एंटी इन्‍कम्‍बेंसी का खतरा और गठबंधन की आभासी दरार

छह दिन पहले जब पूर्वोत्‍तर राज्‍यों के चुनाव नतीजे आए थे और खासतौर से त्रिपुरा में जिस तरह भारतीय जनता पार्टी ने जीत हासिल की थी, उसके बाद से ही यह चर्चा जोरों पर है कि भाजपा ने ‘लालकिले’ में जबरदस्‍त सेंधमारी कर डाली है। त्रिपुरा में 25 साल पुराने माकपा शासन को अपदस्‍थ कर भाजपा ने वहां लाल के बजाय भगवा झंडा लहरा दिया है।

त्रिपुरा चुनाव के बाद से ही इस बात का दावा हो रहा है कि यह वामपंथी विचारधारा को बहुत बड़ी चोट है और इसे एक तरह से देश में वाम विचारधारा के खात्‍मे के रूप में देखा जाना चाहिए। भाजपा की जीत पर पार्टी अध्‍यक्ष अमित शाह ने जहां यह टिप्‍पणी की थी कि ‘’लेफ्ट अब देश के किसी भी हिस्से के लिए राइट नहीं है’’ वहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि ‘’सूरज जब ढलता है तो लाल रंग का होता है और जब सूर्योदय होता तो केसरिया रंग लेकर निकलता है।‘’

लेकिन पूरब से केसरिया खबर आने के पांच दिन बाद ही दक्षिण से एक मटमैली खबर आई है। दक्षिण में एनडीए की सहयोगी तेलुगूदेशम पार्टी (टीडीपी) ने नाराज होकर मोदी मंत्रिमंडल से अपने मंत्री वापस बुला लिए हैं। गुरुवार को टीडीपी खाते के मंत्री अशोक गजपति राजू और वाय.एस. चौधरी ने मोदी सरकार से इस्‍तीफा दे दिया। उधर आंध्रप्रदेश सरकार में शामिल भाजपा के मंत्रियों के भी सरकार से अलग हो जाने की खबरें हैं।

टीडीपी की नाराजी पिछले दिनों वित्‍त मंत्री अरुण जेटली द्वारा संसद में पेश वर्ष 2018-19 के बजट के बाद से ही दिखाई देने लगी थी और एनडीए के इस घटक दल ने इस बात पर सार्वजनिक रूप से ऐतराज जताया था कि बजट में आंध्रप्रदेश को कोई तवज्‍जो नहीं दी गई है। टीडीपी नेताओं का कहना था कि केंद्र सरकार के इस रवैये से उन्‍हें बड़ी निराशा हुई है।

टीडीपी की मुख्‍य मांग आंध्रप्रदेश को विशेष राज्‍य का दर्जा देने की थी लेकिन वित्‍त मंत्री अरुण जेटली ने इसे ठुकराते हुए साफ कह दिया था कि ऐसा करना संभव नहीं है। जबकि आंध्रप्रदेश की दलील है कि हैदराबाद को तेलंगाना की राजधानी बनाने से उन्‍हें राजस्‍व का काफी नुकसान हुआ है, इसे देखते हुए राज्य को मदद के तौर पर विशेष दर्जा दिया जाना चाहिए था।

उधर केंद्र सरकार का दावा है कि एक वक्‍त था जब विशेष राज्य के दर्जे का विचार अस्तित्व में था। लेकिन 14वें वित्त आयोग के तहत यह दर्जा सिर्फ पूर्वोत्तर और तीन पहाड़ी राज्यों तक ही सीमित हो गया। इसके मुताबिक देश में जिन राज्‍यों को विशेष दर्जा प्राप्‍त है उनमें असम,नगालैंड, जम्मू कश्मीर, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, सिक्किम, त्रिपुरा, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश शामिल हैं।

चंद्रबाबू ने कहा, “मैं 29 बार दिल्ली गया लेकिन उसका कोई फायदा नहीं मिला। राज्य ने निर्माण कार्यों और पोलावरम योजना पर 13054करोड़ रुपये खर्च किए लेकिन केंद्र से सिर्फ 5,349.7 करोड़ की मदद मिली। हमने पोलावरम प्रोजेक्ट पर खर्च हुए पैसे का समय समय पर हिसाब भी दिया लेकिन उस मद में अभी भी केंद्र से हमें 4,932 करोड़ रुपये मिलने बाकी हैं।

केंद्र सरकार से अलग होने से पहले चंद्रबाबू ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बात भी की और इस्‍तीफा देने वाले दोनों मंत्री भी मोदी से जाकर मिले। प्रधानमंत्री से मुलाकात के बाद टीडीपी नेता वाय.एस. चौधरी ने कहा कि हम सरकार से अलग हो रहे हैं लेकिन एनडीए से अलग होने का फैसला अभी नहीं किया गया है।

दरअसल घटक दलों के साथ भाजपा की यह तनातनी नई नहीं है। एनडीए के पुराने सभी साथी समय समय पर भाजपा के रवैये को लेकर सार्वजनिक रूप से अपना असंतोष जाहिर करते रहे हैं। फिर चाहे वह शिवसेना हो या अकाली दल या फिर टीडीपी। क्षेत्रीय रूप से इन बड़े दलों के अलावा और भी छोटे मोटे सहयोगी दल हैं जो अपनी मांगों को लेकर भाजपा को निशाने पर लेते रहे हैं।

इन घटनाओं से ऊपरी तौर पर ऐसा लगता है कि या तो भाजपा अपने सहयोगी दलों को साथ लेकर नहीं चल पा रही है या फिर उसे अपना कद इतना बड़ा और विस्‍तारित लगने लगा है कि वह आने वाले दिनों में बगैर किसी सहयोगी दल के खुद के बूते पर राजनीति करने में स्‍वयं को सक्षम समझने लगी है।

लेकिन मेरा सवाल और आकलन कुछ अलग है। मैं ऊपरी तौर पर किए जाने वाले इन आकलनों से स्‍वयं को समझा नहीं पा रहा हूं कि क्‍या दरअसल ऐसा ही है? क्‍या हमें जो दिख रहा है या दिखाया जा रहा है उसे ही ध्‍यान में रखते हुए यह मान लेना चाहिए कि भाजपा सारे सहयोगियों को छोड़ छाड़ कर राज्‍यों व लोकसभा के चुनाव खुद के बूते लड़ने की तैयारी कर रही है?

शायद ऐसा नहीं है। हो सकता है यह मेरा खयाली पुलाव मात्र हो, लेकिन मैं मानता हूं कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह राजनीति करने की जो नई कूटनीतिक शैली लेकर आए हैं उसमें चीजें जैसी दिखती हैं या दिखाई जाती हैं, उन्‍हें उसी तरह देखना बहुत बड़ी गलती होगी। मेरे विचार से ये तनातनी भी सिर्फ दिखावा या भाजपा की रणनीति का ही एक हिस्‍सा है।

भाजपा को इस समय सबसे बड़ा खतरा एंटी इन्‍कम्‍बेंसी का नजर आ रहा है। मैं त्रिपुरा जैसी सफलता के पीछे भी भाजपा के प्रयासों से बड़ा हाथ इसी एंटी इन्‍कम्‍बेंसी फैक्‍टर का देखता हूं। यही बात हाल ही में राजस्‍थान और मध्‍यप्रदेश में हुए लोकसभा एवं विधानसभा उप-चुनावों में भी दिखाई दी है। और असर तो इसका गुजरात में भी हुआ, भले ही भाजपा वहां जीत गई हो।

तो ये जो खटपट दिख रही है, पूरी संभावना है कि वह सोची समझी हो। जिस तरह भाजपा अपने उम्‍मीदवारों के चेहरे बदलकर चुनाव जीतने का प्रयोग करती रही है, उसी तरह शायद वह सहयोगी दलों से तकरार का नाटक करवाकर अपने राजनीतिक फायदे की गलियां खोज रही हो।

क्‍या यह नहीं हो सकता कि सारे घटक दल भाजपा से नाराजी जताकर अपने अपने राज्‍यों में एंटी इन्‍कम्‍बेंसी के खतरे को कम करते हुए विधानसभा और लोकसभा में ठीकठाक प्रदर्शन कर लें और बाद में फिर से भाजपा के साथ खड़े हो जाएं। याद रखिए चंद्रबाबू की पार्टी ने सरकार से अलग होने का फैसला किया है, ये पंक्तियां लिखे जाने तक वे एनडीए के साथ ही हैं। यही बात शिवसेना और अकालियों के रवैये में भी नजर आती है।

तो क्‍या आपको भी नहीं लगता कि यह जाल दुश्‍मन को छकाने के लिए बिछाया जा रहा है? इस लिहाज से भी जरा सोचकर तो देखिए…

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