सरकार की गोद में अफसरशाही का राजनीतिक आमोद-प्रमोद

खबर आई है कि मध्‍यप्रदेश में मुंगावली उपचुनाव के दौरान अशोक नगर जिला कलेक्‍टर पद से हटाए गए आईएएस अधिकारी बीएस जामोद को फिर से अशोक नगर का कलेक्‍टर बना दिया गया है। जामोद को मतदाता सूचियों में गड़बड़ी के चलते चुनाव आयोग के निर्देश पर हटाया गया था और उनकी जगह अनूपपुर जिला पंचायत के सीईओ बीएस चौधरी कोलसानी को कलेक्‍टर नियुक्‍त किया गया था। कोलसानी को अब कटनी कलेक्‍टर पदस्‍थ किया गया है।

दरअसल पिछले दिनों मध्‍यप्रदेश में शिवपुरी जिले के कोलारस और अशोनगर के मुंगावली में हुए उपचुनाव राजनीतिक रूप से बहुत ही विवादास्‍पद रहे थे। सत्‍तारूढ़ दल भाजपा और मुख्‍य विपक्षी दल कांग्रेस ने यहां अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी। भाजपा की ओर से जहां मुख्‍यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने चुनाव अभियान का नेतृत्‍व संभाला था, वहीं कांग्रेस की ओर से कमान गुना के सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री ज्‍योतिरादित्‍य सिंधिया के हाथ में थी। दोनों उपचुनाव कांग्रेस ने जीते।

चुनाव के दौरान दोनों पक्षों की ओर से आरोप प्रत्‍यारोप का दौर जमकर चला और चुनाव आयोग तक अनेक शिकायतें गईं। कई शिकायतों में चुनाव आयोग ने कार्रवाई करते हुए चुनाव प्रक्रिया से जुड़े कुछ अफसरों व सरकारी कर्मचारियों को संबंधित जिलों से हटाते हुए उन्‍हें कहीं और पदस्‍थ करने के निर्देश दिए। मुंगावली में मतदाता सूचियों में गड़बड़ी को लेकर कांग्रेस की ओर से की गई शिकायत का संज्ञान लेते हुए आयोग ने सरकार से कलेक्‍टर को हटाने के लिए कहा था।

अब चुनाव बीत जाने के बाद सरकार ने पुरानी व्‍यवस्‍था को कायम करते हुए हटाए गए कलेक्‍टर को फिर से वहीं उसी पद पर पदस्‍थ कर दिया है। वैसे तो यह राज्‍य सरकार का अधिकार है कि वह किस अधिकारी को कहां पदस्‍थ करे और उससे क्‍या काम ले। ऐसा भी पहली बार नहीं हो रहा है कि चुनाव आयोग के निर्देश पर किसी अफसर या कर्मचारी को फौरी तौर पर हटा दिए जाने के बाद, चुनाव प्रक्रिया संपन्‍न होते ही, उसे फिर से पुरानी पदस्‍थापना दे दी गई हो।

लेकिन अशोकनगर सहित ऐसे जितने भी मामले हुए हैं, वे हमारी पूरी प्रशासनिक व्‍यवस्‍था को लेकर कई सवाल पैदा करते हैं। यह मामला अकेले बीएस जामोद का नहीं है। मुद्दा यह है कि जब चुनाव आयोग ने एक अफसर को लोकतंत्र के सबसे महत्‍वपूर्ण अनुष्‍ठान यानी चुनाव प्रक्रिया में गड़बड़ी करने का दोषी पाते हुए उसे हटाने के निर्देश दिए हों तो क्‍या इसे लोकतंत्र और भविष्‍य में होने वाली चुनावी प्रक्रियाओं के लिए स्‍वस्‍थ संकेत माना जाए कि सरकारें अपनी जिद या मनमर्जी के चलते उसे फिर से उसी स्‍थान पर पदस्‍थ कर दें।

चुनाव प्रक्रिया में सरकारी मशीनरी का राजनीतिकरण कोई नई बात नहीं है। कई सरकारी कर्मचारी अपनी राजनीतिक निष्‍ठाओं के चलते चुनाव प्रक्रिया को प्रभावित करने की कोशिश करते हैं। सरकारें भी नौकरशाही पर दबाव डालकर सत्‍तारूढ़ दल को लाभ पहुंचा सकने वाले काम करवाती रही हैं। ऐसा करने के लिए या तो संबंधित क्षेत्र में पदस्‍थ लोगों में से ‘अपनों’ को चिह्नित कर उनसे राजनीतिक हित साधे जाते हैं या फिर ऐसे अफसरों और कर्मचारियों को किसी और जिले या विभाग से लाकर वहां बिठाया जाता है जो चुनाव में सत्‍तारूढ़ दल को राजनीतिक फायदा दिलवा सकें।

उपचुनावों में अपेक्षाकृत कम स्‍तर पर और आम चुनावों में व्‍यापक स्‍तर पर चुनाव आयोग के पास ऐसी शिकायतें पहुंचती हैं जिनमें यही आरोप होता है कि सत्‍तारूढ़ दल सरकारी मशीनरी का अपने राजनीतिक फायदे के लिए दुरुपयोग कर रहा है। चूंकि चुनाव के दौरान संबंधित क्षेत्र का चुनाव प्रक्रिया से जुड़ा सारा अमला एक तरह से चुनाव आयोग के मातहत होता है, आयोग भी शिकायतों का संज्ञान लेते हुए दोषी या आरोपित अफसरों पर कार्रवाई के निर्देश देता है।

पर ऐसी कार्रवाइयों का असर क्‍या केवल चुनाव अवधि तक ही सीमित होना चाहिए? क्‍या इस पर विचार नहीं होना चाहिए कि जिस अफसर या कर्मचारी पर चुनाव प्रक्रिया को दूषित करने के आरोप लगे हैं उसे कम से कम दुबारा तो उस लोकसभा या विधानसभा क्षेत्र में पदस्‍थ न किया जाए। जैसाकि मैंने स्‍वयं कहा कि किस अफसर या कर्मचारी को कहां रखना और उससे क्‍या काम लेना यह सरकार का विशेषाधिकार है, लेकिन क्‍या चुनाव प्रक्रिया में संदिग्‍ध निष्‍ठा वाले लोगों की पदस्‍थापना पर और अधिक सतर्कता और सावधानी नहीं बरती जानी चाहिए?

मैं किसी व्‍यक्ति विशेष के संदर्भ में यह बात नहीं कह रहा, पर सामान्‍य तौर से यह बात मन में आती है कि जब कोई अफसर एक बार संबंधित क्षेत्र के राजनीतिक कार्यकर्ताओं की नजर में संदिग्‍ध हो गया हो तो क्‍या भविष्‍य में उस अफसर पर लोगों का भरोसा कायम हो सकेगा? क्‍या वह अपने कर्तव्‍य को ठीक से अंजाम दे सकेगा? क्‍या उसके हर निर्णय या कार्यकलाप को राजनीतिक भेदभाव की तराजू पर तौलकर नहीं देखा जाएगा, भले ही वह कदम उसने कितने ही निष्‍पक्ष भाव से उठाया हो। और अशोकनगर का मामला तो इसलिए भी गंभीर और विचारणीय है क्‍योंकि राज्‍य में छह महीने बाद ही विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं।

ये स्थितियां न सिर्फ सरकार और गवर्नेंस के लिए ठीक नहीं, बल्कि खुद संबंधित प्रशासनिक अधिकारी के लिए भी उचित नहीं कही जा सकतीं। राज्‍य सरकारें अपनी हेठी या अकड़ दिखाते हुए हटाए गए अफसरों को चुनाव के तत्‍काल बाद फिर से वहीं पदस्‍थ करके भले ही अपने अहम को संतुष्‍ट कर लें लेकिन वे यह क्‍यों भूल जाती हैं कि ऐसा करके वे उस अफसर का कॅरियर भी दांव पर लगा रही हैं।

आज जिस तरह का माहौल है उसमें अफसरशाही से निष्‍पक्ष या तटस्‍थ तौर पर काम करने की अपेक्षा करना बहुत मुश्किल है। यदि कोई अफसर चाहे भी तो वह ऐसा न करने के लिए मजबूर कर दिया जाता है। ऐसे में जरूरी हो जाता है कि कानून कायदों में ही ऐसा पर्याप्‍त प्रावधान हो कि चुनाव प्रक्रिया को दूषित करने के दोषी अफसर दुबारा उस इलाके में न भेजे जा सकें। यदि हमेशा के लिए ऐसा करना संभव न भी हो तो भी कम से कम दो चार साल के लिए तो उनकी पदस्‍थापना दुबारा वहां न हो। मेरे विचार से चुनाव सुधार पर हो रही बहस में इस मुद्दे को भी शामिल किया जाना चाहिए। इसकी पहल खुद चुनाव आयोग की ओर से हो तो और भी बेहतर होगा।

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