यह शिक्षा का मामला है, ठीक से सोच विचार लिया है ना?

चार दिन पहले मध्‍यप्रदेश में शिक्षा से जुड़ी एक खबर ने मुझे चौंका दिया। यह खबर संकेत दे रही है कि प्रदेश में शिक्षा के ढांचे में सरकार आमूलचूल परिवर्तन करने जा रही है। याद रखें मैंने ‘शिक्षा के ढांचे’ की बात कही है ‘शिक्षा’ की नहीं। हो सकता है, सरकार जो प्रयोग करने जा रही है, उस पर उसने सोचा विचारा होगा, लेकिन पहली नजर में मुझे इस योजना में लोचा नजर आ रहा है।

अब खबर सुनिए, सरकार ने मन बनाया है कि कम छात्र संख्‍या वाले प्राइमरी और मिडिल स्‍तर के स्‍कूलों को खत्‍म करके उन्‍हें हाईस्‍कूल या हायर सेकण्‍डरी स्‍कूलों में मर्ज यानी विलीन कर दिया जाए।

एक समय मध्‍यप्रदेश में सरकारी विभागों और सार्वजनिक उपक्रमों में यह ‘विलीनीकरण आंदोलन’ बहुत चला था। पहले राजनीतिक गोटियां सेट करने के लिहाज से निगम और मंडल बनाए जाते और जब वे नहीं चल पाते थे तो उन्‍हें किसी मुनाफेदार निगम में या किसी सरकारी महकमे में विलीन कर दिया जाता था। इसका नफा और नुकसान दोनों होता था। नफा यह कि ऐसे निगम मंडलों में ‘फिट’ करवाए गए अपने पट्ठों की नौकरी बच जाती और नुकसान यह कि एक नाकारा संस्‍था के लोगों का बोझ पड़ जाने से अच्‍छा भला चलने वाले दूसरे उपक्रम का भी भट्टा बैठ जाता था।

पता नहीं उस ‘विलीनीकरण आंदोलन’ की पुडि़या किसने स्‍कूल शिक्षा विभाग को भी दे दी। जिसका असर यह हुआ कि अब स्‍कूल शिक्षा विभाग प्रयोग के तौर पर प्रदेश में कुछ जगहों पर प्राइमरी और मिडिल स्‍कूलों को हाईस्‍कूल और हायर सेकण्‍डरी स्‍कूल में विलीन करने जा रहा है। इस प्रयोग की शुरुआत आदिवासीबहुल जिले बैतूल से की जा रही है। बाद में यह प्रयोग खंडवा जिले में भी किया जाएगा।

सरकार ने इस प्रयोग को ‘समेकित स्‍कूल’ नाम दिया है। और लगता है इसके लिए सबसे पहले बैतूल जिले का चयन बहुत सोच समझ कर किया गया है। ऐसे प्रयोग आमतौर पर पिछड़े या आदिवासी जिलों में ही किए जाते हैं। कारण यह कि वहां आइडिया फेल भी हो जाए तो बहुत ज्‍यादा हो हल्‍ला मचने की गुंजाइश कम रहती है। वैसे आधिकारिक रूप से बताया यह जा रहा है कि चूंकि यह मॉडल बैतूल के विधायक हेमंत खंडेलवाल ने सुझाया था इसलिए जिले के बैतूलबाजार क्षेत्र से ही उसे शुरू करने का फैसला किया गया।

समेकित स्‍कूल मॉडल का जो खाका बताया जा रहा है उसके मुताबिक चिन्हित स्‍कूल के दस किमी के दायरे में आने वाले ऐसे सारी प्राइमरी व मिडिल स्‍कूल खत्‍म कर दिए जाएंगे जहां पढ़ने वाले बच्‍चों की संख्‍या कम है। समेकित स्‍कूल के लिए नया भवन बनेगा जिसमें हॉस्‍टल, स्‍पोर्ट्स सुविधाएं, आधुनिक प्रयोगशाला और ऑडिटोरियम जैसी सुविधाएं होंगी। दस किमी के दायरे से छात्रों को लाने ले जाने के लिए बस सुविधा मुहैया कराई जाएगी। विलीन होने वाले स्‍कूलों के शिक्षकों को समेकित स्‍कूलों या अन्‍य स्‍कूलों में शिफ्ट किया जाएगा। इस तरह से एक बेहतर स्‍कूल में बच्‍चों को बेहतर पढ़ाई की सुविधा मिल सकेगी।

ऐसे स्‍कूल खड़े करने के पीछे सबसे बड़ा फायदा सरकारी खर्च में कमी बताया जा रहा है। दावा है कि हर समेकित स्‍कूल पर सालाना करीब एक करोड़ रुपए की बचत होगी। यह बचत शिक्षकों के वेतन, हॉस्‍टल खर्च, स्‍कूल में भोजन और सायकल वितरण जैसी योजनाओं के खर्च में कटौती से संभव होगी। एक अनुमान के मुताबिक वर्तमान व्‍यवस्‍था में करीब 45 शिक्षक काम कर रहे हैं जबकि नई व्‍यवस्‍था में सिर्फ 26 शिक्षक ही लगेंगे।

ऊपरी तौर यह योजना बहुत लुभावनी लगती है। क्‍योंकि इसमें हींग और फिटकरी का खर्चा भी कम है और रंग चोखा होने की गारंटी भी है। लेकिन मूल प्रश्‍न ग्रामीण इलाकों की सामाजिक स्थिति का है। स्‍वामी विवेकानंद ने शिक्षा पद्धति को लेकर करीब सवा सौ साल पहले एक बात कही थी कि यदि बच्‍चा स्‍कूल तक नहीं जा सकता तो स्‍कूल को बच्‍चे के पास तक जाना चाहिए। लेकिन नई योजना में बच्‍चे के पास खड़े स्‍कूल को वहां से हटाकर बच्‍चे को स्‍कूल के पास जाने के लिए मजबूर होना पड़ेगा।

ग्रामीण इलाकों में वैसे ही बच्‍चों के नियमित रूप से स्‍कूल जाने का प्रतिशत बहुत अच्‍छा नहीं है, इसलिए हमें ‘स्‍कूल चलें हम’ जैसे अभियान चलाना पड़ते हैं। अभी तक नीति यह रही है कि स्‍कूलों के ढांचे का विकेंद्रीकरण कर गांव गांव में स्‍कूल खोले जाएं। अब यदि दस किमी के दायरे में एक ही स्‍कूल होगा तो जरा कल्‍पना कीजिए कि उसकी हालत क्‍या होगी?

बच्‍चों को स्‍कूल लाने ले जाने के लिए बस की व्‍यवस्‍था करने की बात तो की जा रही है, लेकिन ऐसी व्‍यवस्‍थाएं राजधानी जैसे शहरों में तो कारगर हो नहीं पातीं, क्‍या गारंटी है कि ग्रामीण इलाकों में वे कारगर हो जाएंगी। अव्‍वल तो मां बाप अपने बच्‍चों को इतनी दूर भेजने से कतराएंगे और यदि मान भी गए तो जिस दिन बस नहीं आई या बस वालों की हड़ताल हो तो तय मानिए कि स्‍कूल की भी हड़ताल हो जाएगी।

मुझे लगता है योजना का मूल मकसद खर्चा बचाना है। लेकिन क्‍या वास्‍तव में इससे खर्चा बच पाएगा? बड़ा स्‍कूल होगा तो वहां ज्‍यादा सुविधाओं की जरूरत होगी और उन पर नियमित रूप से उतना खर्चा भी होगा। रही शिक्षकों की बात तो क्‍या सरकार शिक्षकों की संख्‍या कम करने के लिए यह योजना लेकर आ रही है? एक तो वैसे ही रोजगार का संकट भयावह है, यदि यह योजना पूरे प्रदेश में लागू हुई तो ऐसे में शिक्षकों की संख्‍या में कटौती करने से क्‍या यह संकट और बढ़ नहीं जाएगा?

नवाचार से मेरा कोई विरोध नहीं है, लेकिन प्रश्‍न यही है कि ऐसी योजना पर अमल से पहले आपने सारा आगा पीछा ठीक से सोच लिया है ना?

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