आज मैं भारी उलझन में हूं। वैसे मुझे अपनी अवधारणाओं को लेकर गफलत कम ही रहती है। कोई राजी हो या न हो लेकिन मुझे जो ठीक लगता है उस पर मैं किसी की ज्यादा परवाह नहीं करता। हां, मैं इस बात का पक्षधर हमेशा रहा हूं कि हरेक व्यक्ति को अपनी बात कहने या अपना पक्ष रखने का अधिकार है और उससे यह अधिकार किसी भी सूरत में छीना नहीं जाना चाहिए।
मेरी उलझन का कारण पुणे से आई एक खबर है। यह खबर मुख्यधारा के मीडिया के साथ साथ सोशल मीडिया पर भी तरह तरह के एंगल और कमेंट्स के साथ चल रही है। खबर पुणे की एक वैज्ञानिक और उनके घर में खाना बनाने वाली महिला से जुड़ी है। घटना के मुताबिक मौसम विभाग की वैज्ञानिक डॉ. मेधा विनायक खोले ने उनके घर में खाना बनाने वाली 60 वर्षीय महिला निर्मला यादव पर धोखाधड़ी और धार्मिक भावना को आहत करने का मामला पुलिस में दर्ज करवाया है।
मेधा के अनुसार, उन्हें अपने घर में गौरी गणपति और श्राद्ध का भोजन बनाने के लिए हर साल ब्राह्मण और सुहागिन महिला की ज़रूरत होती है। उनका आरोप है कि साल 2016 में निर्मला ने खुद को ब्राह्मण और सुहागिन बताकर यह नौकरी हथिया ली। उस समय उसने अपना नाम निर्मला कुलकर्णी बताया था जबकि वह दूसरी जाति से हैं।
मीडिया में आई खबरों के मुताबिक जब गत 6 सितंबर को मेधा के गुरुजी ने निर्मला के ब्राह्मण नहीं होने की जानकारी दी तो वह सचाई जानने निर्मला के घर गई। वहां पता चला कि निर्मला न तो ब्राह्मण है और न सुहागिन। इस पर मेधा ने उसके खिलाफ भावनाएं आहत करने का मामला पुलिस में दर्ज करा दिया। पुलिस ने धारा 419 (पहचान छुपा कर धोखा देने), 352 (हमला या आपराधिक बल का प्रयोग) और 504 (शांति का उल्लंघन करने के इरादे से किसी व्यक्ति का अपमान करने) के तहत मामला दर्ज कर लिया।
दूसरी तरफ निर्मला का कहना है कि उन्होंने कोई चोरी नहीं की, परिवार चलाने के लिए उन्हें यह झूठ बोलना पड़ा। उसने भी मेधा पर वेतन न देने, गुस्से में गाली देने और मारने के लिए झपटने का आरोप लगाते हुए काउंटर रिपोर्ट पुलिस में लिखा दी। पुलिस ने डॉ. मेधा के ख़िलाफ़ धारा 323 (स्वेच्छा से चोट पहुंचना), 506 (आपराधिक धमकी देना) और 584 (जानबूझ कर अपमान करना) के तहत मामला दर्ज किया है।
अब इस मामले को लेकर मीडिया और सोशल मीडिया में भारी बहस चल रही है। ज्यादतर लोग डॉ. मेधा की वैज्ञानिक पृष्ठभूमि का हवाला देते हुए उनकी तीखी आलोचना कर रहे हैं। यह कहा जा रहा है कि 21 वीं सदी में भी हमारा समाज ऐसी दकियानूसी धारणाओं से जकड़ा हुआ है। जब पढ़े लिखे और वैज्ञानिक लोग तक ऐसा बर्ताव करेंगे तो समाज को इस गैरबराबरी के कलंक से कैसे मुक्त किया जा सकेगा।
लेकिन जब मैंने इस मामले में पुणे ब्राह्मण महासंघ के बयान को पढ़ा तो उलझन में पड़ गया। महासंघ ने इसे मालकिन और नौकरानी के बीच का विवाद बताते हुए कहा है कि इस मामले को जाति की दृष्टि से नहीं देखकर किसी की व्यक्तिगत भावना आहत होने के नज़रिये से देखना चाहिए।
दरअसल मेरी उलझन का कारण सुप्रीम कोर्ट द्वारा हाल ही में निजता के अधिकार को लेकर सुनाया गया फैसला है। एक पल के लिए यह भूल जाया जाए कि डॉ. मेधा वैज्ञानिक और पढ़ी लिखी महिला हैं। ऐसे में क्या निजता के अधिकार के तहत यह सवाल नहीं उठेगा कि किसी व्यक्ति को अपने घर में नौकर रखने की आजादी होनी चाहिए या नहीं। कोई भी कह सकता है कि वह अपने घर में किसे नौकर रखे और किसे नहीं यह उसका अधिकार है। मान लीजिए किसी को जवान नौकर की जरूरत है तो क्या उसे बूढ़ों के खिलाफ माना जाएगा? किसी को पुरुष की जरूरत है तो क्या उसे महिला विरोधी माना जाएगा?
यहां मुझे कमल हसन की फिल्म चाची 420 का दृश्य याद आ रहा है जहां खुद कमल हसन स्त्री वेश में अपने ससुर के यहां नौकरी करता है बल्कि वह एक मुस्लिम को खानसामे के रूप में उस परिवार में नौकरी भी दिला देता है। अब मान लें कि आपको अपने बच्चों की देखभाल के लिए किसी महिला की जरूरत है और कोई पुरुष महिला वेश में आकर वह नौकरी हासिल कर ले और बाद में आपको उसकी असलियत पता चले तो आपकी क्या प्रतिक्रिया होगी?
एक और प्रसंग मुझे याद आ रहा है। भोपाल में जब एक कॉलोनी में मुस्लिम परिवार को मकान देने से मना कर दिया गया था तो उस प्रवृत्ति की आलोचना करते हुए मैंने इसी कॉलम में लिखा था कि ऐसे तो समाज और ज्यादा टूटेगा। मुझे उस कॉलम पर कई प्रतिक्रियाएं मिली थीं। कई लोगों का तर्क था कि मैं अपना मकान किसे किराये पर दूं या बेचूं यह मेरा फैसला है, इसे लेकर मुझ पर सामाजिक दबाव कैसे बनाया जा सकता है?
तो मेरी उलझन यही है कि ऐसे मामलों में, हाल ही में निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार मान लिए जाने के बाद, क्या स्थिति होगी? यदि व्यक्ति कहे कि मैं अपने घर में सिर्फ अमुक जाति के लोगों को ही नौकरी दूंगा या मैं फलां काम सिर्फ अमुक जाति के लोगों से ही करवाऊंगा तो क्या होगा? सरकार के स्तर पर आरक्षण की व्यवस्था में भी तो यही हो रहा है।
अब कायदे से तो यह मेरे निजता के मौलिक अधिकार का मामला हुआ, लेकिन क्या हमारा सामाजिक तानाबना इसकी इजाजत देगा? और यदि किसी ने गलत जानकारी या गलत पहचान बताकर वह काम हथिया लिया है तो क्या उसके खिलाफ पुलिस कार्रवाई मंजूर होगी, जैसाकि पुणे की वैज्ञानिक के मामले में सामने आया है?
मैं भी सोचता हूं, आप भी इस उलझन से निकलने का रास्ता खोजिए…