यह सरसों किसान को दुगुना नहीं आधा कर देगी

पर्यावरण और जैविक संपदा संरक्षण के मसलों को लेकर मध्‍यप्रदेश की भूमिका अचानक देश में खासी महत्‍वपूर्ण हो गई है। मुख्‍यमंत्री शिवराजसिंह चौहान द्वारा देश की महत्‍वपूर्ण नदी नर्मदा को प्रदूषण से मुक्‍त करने और उसे बारहों महीने लबालब रखने के इरादे से शुरू की गई नर्मदा सेवा यात्रा का सोमवार यानी 15 मई 2017 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नर्मदा के उद्गम स्‍थल अमरकंटक में समापन किया।

प्रधानमंत्री ने इस अभियान की दिल खोलकर कर सराहना करते हुए कहा कि ‘’चूँकि नर्मदा नदी ग्लेशियर से नहीं निकलती बल्कि पेड़-पौधों के प्रसाद से प्रगट होती है, इसलिए इसकी रक्षा बड़े पैमाने पर पौधे लगाकर और पेड़ बचाकर ही की जा सकती है। हम ऐसा कर्म करें कि आने वाली पीढ़ियां हमें उसी तरह याद रखें जैसे आज हम अपने पुरखों को याद करते हैं। जैसे नदियों ने हमारे पुरखों को जीवन दिया उसी तरह हम भी नदियों को जीवन दें।‘’

अमरकंटक का कार्यक्रम देखते हुए मुझे याद आया प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का 9 अक्‍टूबर 2014 को इंदौर में आयोजित ग्‍लोबल इन्‍वेस्‍टर्स मीट में दिया गया वह भाषण जिसमें उन्‍होंने बड़े गर्व भाव से यह ‘रहस्‍य’ उद्घाटित किया था कि मध्यप्रदेश ऐसा राज्य है जो देश की कुल जैविक खेती में 40 प्रतिशत का योगदान कर रहा है। उनका कहना था कि देश अपने संसाधनों और परंपरागत तरीकों को बचाकर जैविक खेती जैसे उपायों से काफी कुछ हासिल कर सकता है।

प्रधानमंत्री के 15 मई 2017 के अमरकंटक भाषण और 9 अक्‍टूबर 2014 के इंदौर भाषण में एक जैसी चिंता झलकती है। यह चिंता हमारे प्राकृतिक संसाधनों और परंपरागत जैविक संपदा को बचाने की है। लेकिन इसी अवधि के बीच देश में एक ऐसी घटना हो चुकी है जिसके परिणामों पर गंभीरता से विचार नहीं किया गया, तो वह हमारे सारे किये कराये पर पानी फेर सकती है। मुख्‍यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक की कथनी और करनी पर गंभीर सवाल उठा सकती है।

यह घटना है जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रैजल कमेटी (GEAC) द्वारा देश के पहले जेनेटिक फूड के रूप में सरसों की खेती को मान्‍यता देना। देश में जेनेटिक फूड और जेनेटिकली मॉडिफाइड (जीएम) फसलों की खेती के व्‍यापक विरोध को देखते हुए यह मामला कई सालों से विवाद में है। एक बड़ा वर्ग यह मानता है कि ऐसी फसलों के न सिर्फ मनुष्‍य के शरीर पर आनुवांशिक दुष्‍परिणाम होंगे बल्कि ये फसलें हमारी परंपरागत फसलों और जैविक संपदा को खत्‍म कर देंगी।

देश में जीएम फसलों के रूप में कपास (बीटी कॉटन) की खेती का प्रयोग किया जा चुका है और आंकड़े गवाह हैं कि बीटी कॉटन ने हमारे कपास उत्‍पादक किसानों को समृद्ध बनाने के बजाय उन्‍हें और ज्‍यादा बरबाद कर दिया। जीएम फसलों के पक्ष और विरोध में अपने-अपने तर्क हैं लेकिन दुनिया के अधिकांश देशों में जीएम प्रौद्योगिकी को लेकर संशय की स्थिति बनी हुई है। जीएम यानी कृत्रिम बीज वाली फसलों के समर्थकों का दावा है कि यह बीज साधारण बीज से बहुत ज्‍यादा उत्‍पादन देता है। जबकि विरोधियों का कहना है कि शुरुआती दौर में भले ही हमें उत्‍पादन बढ़ता हुआ दिखे लेकिन अंतत: जीएम फसल हमारी जैव विविधता को नष्‍ट करेगी।

यहां याद दिलाना जरूरी है कि फरवरी 2010 में जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रैजल कमेटी की अनुशंसा के बावजूद तत्कालीन पर्यावरण राज्यमंत्री जयराम रमेश ने बीटी बैंगन की खेती को मंजूरी नहीं दी थी। जबकि GEAC ने 14 अक्तूबर, 2009 को बीटी बैंगन को पूरी तरह सुरक्षित घोषित कर इसकी व्यावसायिक खेती को स्वीकृति दे दी थी। विशेषज्ञों और अन्‍य कई संगठनों के भारी विरोध के कारण इसे न सिर्फ जयराम रमेश ने बल्कि उनके बाद मंत्रालय संभालने वाली जयंती नटराजन ने भी मंजूरी देने से मना कर दिया था। कई राज्‍य सरकारों ने भी अपने यहां आनुवंशिक रूप से संशोधित फसलों की खेती को उचित नहीं बताया था।

अब इस मामले में देश की जैविक संपदा बचाने की बड़ी जिम्‍मेदारी मध्‍यप्रदेश के कंधों पर आने की बात मैंने इसलिए कही क्‍योंकि जीएम फसलों के मुद्दे पर जो भूमिका यूपीए शासन में जयराम रमेश और जयंती नटराजन ने निभाई थी, उसी भूमिका में आज मध्‍यप्रदेश के अनिल माधव दवे हैं। देश के पर्यावरण मंत्री के नाते जीएम सरसों की खेती को मंजूरी देने वाली फाइल दवे की टेबल पर अंतिम स्‍वीकृति के लिए रखी है।

अनिल माधव दवे केवल राजनेता ही नहीं, बल्कि पर्यावरण चेतना के स्‍वयंसेवक भी हैं। उन्‍होंने अपने प्रयासों से नर्मदा नदी को बचाने के लिए बड़ा अभियान चलाया था और आप कह सकते हैं कि आज नर्मदा सेवा यात्रा के रूप में नर्मदा को बचाने का जो विराट अनुष्‍ठान खड़ा हुआ है, उसके पीछे दवे द्वारा तैयार की गई आधारभूमि भी है। हालांकि जीएम फसलों का मामला अलग से सुप्रीम कोर्ट में भी चल रहा है और वहां से निर्णय आना बाकी है। पर्यावरण मंत्रालय ने संकेत दिए हैं कि कोई भी फैसला सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आने के बाद या उसके परिप्रेक्ष्‍य में ही किया जाएगा।

लेकिन बहुत कुछ दवे के रुख पर निर्भर करेगा। उनकी टेबल पर रखी जीएम सरसों की खेती को स्‍वीकृति देने वाली फाइल सिर्फ एक फाइल भर नहीं है, वह देश की जैविक संपदा का भविष्‍य है। ऐसे में एक कमजोर निर्णय जहां देश की खेती किसानी और आने वाली पीढि़यों को संकट में डाल सकता है, वहीं एक साहसिक निर्णय इतिहास रच सकता है। जीएम फसलों का विरोध अन्‍य कृषि संगठन ही नहीं बल्कि राष्‍ट्रीय स्‍वयं सेवक संघ से जुड़ा स्‍वदेशी जागरण मंच भी कर रहा है। सब जानते हैं कि ये मामले बहुराष्‍ट्रीय कंपनियों का अथाह दबाव लिए होते हैं, ऐसे में देखना होगा कि दबावों के आगे न झुकने वाले सख्‍त मिजाज दवे क्‍या रुख अपनाते हैं।   

 

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