एबीपी न्यूज के भोपाल संवाददाता ब्रजेश राजपूत ने भोपाल के अखबार ‘सुबह सवेरे’ में, इंदौर में 5 जनवरी को हुई डीपीएस स्कूल की बस दुर्घटना पर रविवार को कॉलम लिखा। उस कॉलम के आखिर में ब्रजेश ने दुआ की है कि ‘’काश स्कूली बच्चों के साथ हुआ ये हादसा इस धरती पर आखिरी हो…’’
ब्रजेश की इस ‘मासूम सी’ दुआ से सहमत होने के बावजूद मैं कहना चाहूंगा कि ”ना भाई, हमारी सरकार में ये तो ना हो पावेगा… तुम कुछ और मांग लो पर जनता की सलामती ना मांगो। ऐसी कठिन परीक्षा मत लो। अरे, जो काम ‘सरकार’ के बूते का है ही नहीं उसे वो संभव करके कैसे दिखाएगी… हां, दो चार कंडम बसों के परमिट चाहिए तो कभी भी आ जाना…”
इंदौर हादसे को ही लेकर हमारे एक और मित्र राकेश दीवान ने फेसबुक पर कमेंट डाला है- ‘’एक पत्रकार मित्र ने इंदौर की स्कूल बस दुर्घटना पर अपनी दुखभरी टिप्पणी क्या की कि तमाम ‘सियार’ ‘हुआं- हुआं’ करने लगे। कोई आरटीओ की दलाली गिनाने लगा, तो कोई पुलिस की ‘रेट लिस्ट’उजागर करने में लग गया। किसी ने स्कूलों की लापरवाही पर उंगली उठाई तो कुछ ने सीधे ‘मामा’ की राजनीति को ही गरियाना जरूरी समझा। अब इन ‘हाई पिच’ में ‘हुआं- हुआं’ करते ‘सियारों’ से पूछिए कि अपने-अपने बच्चों को सुरक्षित स्कूल भेजने के लिए वे कौन-कौन से सार्वजनिक प्रयास करते हैं?’’
राकेश भाई ने अपनी पोस्ट में सवाल उठाया-‘’ क्या अपने-अपने वाहनों के अलावा उन्हें कोई सामूहिक, सार्वजनिक तरीका दिखाई देता है? शिक्षा की सबसे मामूली जरूरत, बच्चों का स्कूल पहुंचना ही मौत से खिलवाड़ करते पूरा होता हो, तो बाकी शिक्षा का तो भगवान ही मालिक है। कमाल यह है कि बच्चों के ‘पालक’ यदा-कदा समूचे ‘सिस्टम’ को गरियाने से अधिक कुछ नहीं करना चाहते। यहां तक कि अपने बच्चों की, स्कूलों के बाहर और भीतर रोज होती मौतें भी उन्हें बेचैन नहीं करतीं। क्या यह बेजारी अपने भविष्य की अनदेखी नहीं है?’’
जी राकेश भाई, आपने बहुत दुरुस्त सवाल उठाया। सरकार और उसके तंत्र की बात तो बाद में करेंगे, पहले आपके सवालों पर ही बात कर लें। मुझे याद है राजधानी भोपाल सहित प्रदेश के कुछ जिलों में प्रशासन ने स्कूल बसों की व्यवस्था को लेकर बीच बीच में मुहिम चलाई थी। उसमें पालकों से अपेक्षा की गई थी कि वे उन वाहनों में अपने बच्चों को न भेजें जो सुरक्षा के लिहाज से उपयुक्त नहीं हैं। इसमें खासतौर से गैस किट के सहारे चलने वाले वाहनों से बचने की सलाह दी गई थी।
दुर्भाग्य की बात है कि खुद अभिभावकों की ओर से ही उस मुहिम को ज्यादा समर्थन नहीं मिला। कहा गया कि बच्चों को स्कूल भेजने के पर्याप्त साधन ही नहीं है तो अभिभावक भी मजबूर हैं। उधर स्कूल संचालकों ने भी हाथ खड़े कर दिए कि इस तरह निजी तौर पर बच्चों को लाने ले जाने वाले वाहनों की निगरानी करना न तो उनके अधिकार में है और न ही यह उनका काम है।
बच्चों के एडमिशन से लेकर उनकी नियमित फीस देने तक में लाखों रुपए खर्च कर देने वाले अभिभावक ही जब इस तरह बच्चों की जान जोखिम में डालते हुए उन्हें स्कूल भेजने के लिए मजबूर हों तो कोई क्या कर सकता है? पहला दबाव तो अभिभावकों की तरफ से ही लाया जाना होगा। यदि वे चाहें तो कैसे कोई स्कूल या प्रशासनिक व्यवस्था मजबूर न हो, व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए।
लेकिन होता यह है कि जो परिवार ऐसी दुर्घटनाओं का या किसी अनहोनी का शिकार हो जाते हैं, उन्हें या उनके आसपास के कुछ लोगों को छोड़कर, बाकी लोग थोड़े दिन बाद ही अपनी अपनी ढपली लेकर खड़े हो जाते हैं। पीडि़त परिवार की भावनाएं अपनी जगह होती हैं लेकिन बाकी लोग अपने बच्चों के ‘भविष्य’ की दुहाई देते हुए स्कूल पर कार्रवाई न करने तक का दबाव बनाते हैं।
अब थोड़ी बात उस ‘व्यवस्था’ की भी कर लें जिसके उल्लेख को राकेश भाई ने रूटीन की ‘हुआ-हुआ’ बताया है। देखिए, ये जो परिवहन का महकमा है ना, उसे तो ‘ऊपर वाला भगवान’ भी नहीं सुधार सकता, क्योंकि इसे बिगाड़ने का काम खुद जमीन पर मौजूद हमारे ‘ईश्वरीय अवतार’ ही कर रहे हैं। अब जब आरटीओ से लेकर परिवहन विभाग के अदने से कर्मचारी तक, लाखों करोड़ों के लेनदेन से अपने नौकरी बचाए या चलाए हुए हों तो हादसे तो होंगे ही…
आपको रैलियों के लिए बसें चाहिए, आपको राजनीतिक कर्मों कुकर्मों के लिए पैसा चाहिए, आपको और भी कई ‘व्यवस्थाएं’ करने वाला आसामी चाहिए, तो फिर यह तो होगा ही। आखिर परिवहन का अफसर भी पैसा कहां से लाएगा? पैसा तो वही देगा जो उलटे सीधे काम करवाने आएगा। पैसे देकर कंडम बसों का परमिट लेगा और यमदूत बनकर सड़कों पर दौड़ेगा…
इसीलिए मैंने कहा कि ब्रजेश राजपूत की दुआ शायद कभी कबूल न हो, क्योंकि हमारे सिस्टम में तो ऐसी दुआओं के कबूल होने लायक माहौल न बन पावेगा। हां, हादसा होने के बाद हम कुछ दिन तक ऐसे ही थोड़ा बहुत लिख पढ़ लेंगे, व्यवस्था को कोस लेंगे, लेकिन थोड़े दिन बाद फिर तैयार हो जाएंगे ऐसा ही कोई और हादसा झेलने के लिए।
रविवार को ही राजधानी के एक अखबार ने इंदौर हादसे की जांच करने गई उच्चस्तरीय टीम के सामने मुस्कुराते हुए ढिठाई से जवाब देते इंदौर आरटीओ का फोटो छापा। स्पीड गवर्नर लगा होने के बावजूद दुर्घटनाग्रस्त बस के इतनी तेजी से दौड़ने के बारे में पूछे गए सवाल पर आरटीओ साहब कह रहे थे- ‘’परिवहन विभाग में सॉफ्टवेयर धीरे धीरे अपडेट हो रहे हैं, अगर इसी दौरान हादसा हो गया तो हमारी कहां गलती है?’’ रविवार को ही इंदौर से मुझे किसी ने वाट्सएप पर सूचना दी कि पीडि़त परिवारों से मिलने गए मुख्यमंत्री जी ने उस आरटीओ को वहां से हटा दिया है।
एक ‘संवेदनशील’ सरकार इससे ज्यादा और कर भी क्या सकती है?