इन ‘डायनों’ और ‘विषकन्‍याओं’ से ज्‍यादा तो समाज डराता है

अपना मध्‍यप्रदेश रह रहकर दुनिया को चौंकाता रहता है। कभी वह इतना अधिक प्रगतिशील दिखाई देता है कि कई विकसित कहे जाने वाले राज्‍य भी क्‍या आधुनिक होंगे, लेकिन कई बार वह इतना अधिक आदिम दिखाई देने लगता है मानो उसने जंगल से बाहर की दुनिया कभी देखी ही न हो।

राज्‍य के शाजापुर जिले से हाल ही में एक चौंकाने वाली खबर आई है। चौंकाने से भी ज्‍यादा यह खबर डराने वाली है। यह खबर नहीं बल्कि विकास के हमारे तमाम दावों के मुंह पर एक करारा तमाचा है। खुद को बीमारू के कलंक से बाहर खींच लाने का दावा करने वाले हम सभी के लिए इससे ज्‍यादा बीमार बनाने वाली खबर और कोई नहीं हो सकती।

खबर यह है कि शाजापुर और राजगढ़ जिलों के कई गांवों में आज भी कुछ खास समाजों में ‘डायन’ और ‘विषकन्‍या’ प्रथा मौजूद है। खुद समाज के ही लोग, खासतौर से महिलाएं, अपने आसपास की चुनिंदा महिलाओं और बच्चियों पर ‘डायन’ अथवा ‘विषकन्‍या’ होने का कलंक चस्‍पा कर देती हैं और फिर उनके साथ वही सबकुछ होता है जो अंधविश्‍वास के चलते ऐसा कलंक ढोने वाली किसी भी महिला के साथ होता रहा है।

जो सूचनाएं सामने आई हैं उनके मुताबिक समाज में यह प्रथा सदियों पुरानी है और अंधविश्‍वास एवं नारी उत्‍पीड़न की पराकाष्‍ठ वाली इस कुप्रथा को दुर्भाग्‍य से आज भी बड़े ‘सम्‍मान भाव’ से ढोया जा रहा है। इस प्रथा को जारी रखवाने वालों का आतंक इतना है कि कोई इसके खिलाफ मुंह भी नहीं खोलना चाहता। और मुंह खोलना तो दूर, समझाइश के बावजूद स्‍वयं महिलाएं ही अपने गांव और समाज को इस कलंक से मुक्‍त करने को राजी नहीं हैं।

पूरे प्रसंग में सुखद बात यह है कि महिलाओं पर होने वाले इस अत्‍याचार का खुलासा खुद प्रभावित गांव की जागरूक लड़कियों ने प्रशासन को ज्ञापन सौंपकर किया है। हिम्‍मत करके आगे आने वाली महिलाओं ने, जिनमें ज्‍यादातर युवतियां हैं, अपने समाज को इस कुप्रथा से मुक्ति दिलाने की मांग करते हुए यहां तक कह दिया कि यदि मुक्ति नहीं दिलाई जा सकती तो उन्‍हें कन्या भ्रूण हत्या की अनुमति ही दे दी जाए।

अपनी मांग को लेकर जिले के ग्राम कड़वाला सहित दो अन्य गांवों की 50 से अधिक महिलाओं का जत्था गत 9 दिसम्बर को शाजापुर के एसपी शैलेंद्रसिंह चौहान के पास पहुंचा। जत्‍थे की अगुवाई कॉलेज की पढ़ाई कर रही रचना पाटीदार तथा नर्सिंग की छात्रा गायत्री पाटीदार कर रही थीं। इन लोगों ने एसपी को दिए ज्ञापन में कहा है कि उनके खड़क पाटीदार समाज में चार पीढ़ियों से चली आ रही कुप्रथा के चलते रसूखदार तबका किसी भी महिला को ‘डायन’ एवं बालिका को ‘विषकन्या’ घोषित कर देता है। रचना पाटीदार का तो कहना था कि उसने स्वयं अपनी मां को ‘डायन’ घोषित कर देने के बाद अपमान में घुट-घुटकर जीते देखा है।

ज्ञापन मिलते ही प्रशासन के होश फाख्‍ता हो गए। अफसर हरकत में आए और डिप्टी कलेक्टर कलावती ब्यारे की अगुवाई में अधिकारियों की टीम ग्राम कड़वाला पहुंची। उसने लोगों को समझाया कि वे अंधविश्वास को बढ़ावा देना बंद करें, लेकिन गांव की महिलाओं ने ही अफसरों को यह कहते हुए चलता कर दिया कि जिन महिलाओं को हमारे समाज ने डायन घोषित कर दिया है, उनके हाथ का पका भोजन हम ग्रहण नहीं करेंगे। वहीं कुछ महिलाओं का कहना था कि यह प्रथा बरसों से चली आ रही है और इसे किसी भी हालत में नहीं बदला जा सकता। जांच के लिए गए दल ने कलेक्‍टर को अपनी रिपोर्ट दे दी है।

इसी बीच मीडिया में यह भी खबर आई कि ऐसे मामले शाजापुर के पड़ोसी जिले राजगढ़ के गांवों में भी सामने आए हैं और वहां की पुलिस अधीक्षक सिमाला प्रसाद को भी ऐसी ही शिकायत की गई है। प्रसाद का कहना है कि कुछ लड़कियों की शिकायत के बाद उन्‍होंने दो गांवों में चौपाल लगाकर इस कुप्रथा का कारण जानने की कोशिश की लेकिन कुछ स्‍पष्‍ट नहीं हो पाया है। जल्‍दी ही संबंधित सभी गांवों की पंचायत लगाने और उसमें इस विषय पर बात करने की कोशिश की जा रही है।

लेकिन प्रभावित गांवों की लड़कियों की जागरूकता के विपरीत इस मामले में प्रशासनिक और राजनीतिक मशीनरी का रवैया हैरान कर देने वाला है। मैदानी स्‍तर से जो जानकारी आई है वह बताती है कि अफसर अभी भी चलताऊ ढर्रे पर ही काम कर रहे हैं। उनका तर्क (या कुतर्क) है कि यह सामाजिक मामला है, इसमें किसी भी प्रकार की जल्दबाजी और सख्ती नुकसान दायक हो सकती है।

ग्राम कड़वाला की आबादी लगभग दो हजार है। वहां कुप्रथा के चलते बहिष्कृत महिला एवं युवतियों की संख्या लगभग पचास बताई जाती है। गांव के सरपंच नंदकिशोर पाटीदार का जरा बयान सुनिए, उनका कहना है कि यह मामला महिलाओं से जुड़ा हुआ है इसलिए वे इसमें अधिक हस्तक्षेप नहीं कर सकते, यदि मामला पुरुषों से जुड़ा होता तो उसे बातचीत से निपटाया जा सकता था। यह प्रथा समाज में पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है।

निश्चित ही समाज में आज भी कई कुप्रथाएं अपनी जड़ें जमाए बैठी हैं। लेकिन इस तरह के रवैये से तो वे खत्‍म होने से रहीं। इन्‍हें चलताऊ तरीके से लेने के बजाय पूरी गंभीरता से लेना होगा। इसमें न केवल प्रशासनिक मशीनरी की, बल्कि राजनीतिक मशीनरी की भी बड़ी भूमिका है। और इन सबसे बड़ी भूमिका तो खुद उस समाज की है जो सदियों से इस रोग से ग्रस्‍त होने के बावजूद खुद को बीमार नहीं समझ रहा।

आज खुद समाज की नई पीढ़ी इस बुराई के खिलाफ आगे आई है। सभी को मिलकर उनका सहयोग करना होगा। शासन स्‍तर पर भी इस मामले में तत्‍काल पहल होनी चाहिए, महिला एवं बाल विकास विभाग की मंत्री को भी मामले का संज्ञान लेना चाहिए। जब तक सामूहिक प्रयास नहीं होंगे ऐसी बुराइयां और न जाने कितनी सदियों तक महिलाओं से गरिमापूर्ण जीवन जीने का उनका हक छीनती रहेंगी।

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