मप्र उपचुनाव: अंबाह में भाजपा के सामने कैंडिडेट बदलने की चुनौती

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अंबाह उपचुनाव

डॉ. अजय खेमरिया

मुरैना की सुरक्षित सीट अंबाह पर मुकाबले में निवर्तमान विधायक सबसे कमजोर स्थिति में जान पड़ते हैं। पूरे क्षेत्र में चर्चा है कि उनका टिकट बदला जा सकता है। खबर तो यह भी है कि खुद कमलेश जाटव चुनाव से पीछे हट सकते हैं। मुरैना जिले की इस सीट पर बीजेपी पिछली बार तीसरे नम्बर पर थी। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण 2 अप्रैल 2018 के दलित सवर्ण दंगे और ‘माई का लाल’ फैक्टर था क्योंकि यहां सर्वाधिक तोमर, ठाकुर और ब्राह्मण, वैश्य वोटर भी हैं। इन्हीं वर्गों ने अंचल में ‘मोदी तुझसे बैर नहीं, शिवराज तेरी खैर नहीं’ के नारे को वोटिंग का आधार बना दिया था।

कमलेश जाटव कांग्रेस जिलाध्यक्ष राकेश मावई के जरिये सिंधिया का भरोसा पाने में सफल हुए थे। राकेश अब सिंधिया की खिलाफत में खड़े हैं, इसलिए संभव है स्वयं सिंधिया भी विश्वसनीयता के पैरामीटर पर कमलेश को अनफिट कर दें। ऐसी स्थिति में टिकट बदलने का फायदा ही होगा, क्योंकि यह क्षेत्र परम्परागत रूप से बीजेपी का गढ़ है और बसपा का प्रभाव भी यहां जिले में सबसे ज्यादा है।

सवाल यह है कि कमलेश जाटव अगर समझौते के अनुरूप टिकट प्राप्त करते हैं, तब यहां क्या सीन बनेगा? आज की मैदानी परिस्थिति साफ कहती है कि अंबाह, पोरसा का यह बैल्ट कमलेश जाटव को 2018 की तरह स्वीकृति देने के मूड में कतई नहीं है।

कांग्रेस इस स्थिति का फायदा उठाने की पूरी कोशिश करेगी, लेकिन उसकी राह में बसपा की मौजूदगी रोड़े का काम करेगी। बीजेपी अगर अपना प्रत्याशी बदलकर लड़े तो बसपा उसे फायदा पहुँचा सकती है। वरना मौजूदा कैंडिडेट 2018 में बीजेपी की पोजिशन को ही प्राप्त करेगा। बसपा यहां से पहले भी जीत चुकी है।

बीजेपी के पास कमलेश सुमन, बंसीलाल और अशोक अर्गल जैसे बेहतर उम्मीदवार भी हैं, लेकिन बुनियादी सवाल प्रत्याशी बदलाब पर सिंधिया की सहमति का ही है। क्योंकि जिन विधायकों ने सिंधिया के सम्मान के लिए अपनी विधायकी कुर्बान की है उनके टिकट काटने का काम निजी तौर पर भी आसान नहीं है।

इस सीट पर तोमर, सखबार जाटव, ब्राह्मण, वैश्य सहित ओबीसी व दलित समाज की लगभग सभी जातियों के वोटर हैं। बीजेपी के कोर वोटर सवर्ण और छोटी संख्या वाली ओबीसी की नाई, धोबी, कहार, प्रजापति, कुशवाह जैसी जातियां रही हैं। सखबार जाटव यहां बीजेपी को अपवादस्वरूप छोड़कर बिल्कुल भी वोट नहीं करते हैं। यही कारण है कि 1993 से यहां बीजेपी और बसपा में ज्यादातर नजदीकी लड़ाई हुई है।

बसपा के प्रदेश अध्यक्ष सत्यप्रकाश सखबार यहां से 2013 में एमएलए रह चुके हैं। उन्होंने तीन बार के बीजेपी विधायक बंशीलाल जाटव को हराया था। हालांकि 2018 में सखबार चौथे नम्बर पर रहे थे। लेकिन बसपा की ताकत यहां 1993 से निर्णायक बनी हुई है। 1993, 1998 में बसपा कांग्रेस से आगे रही और 2013 में तो उसका कैंडिडेट ही जीता है। पिछले 6 चुनावों में कभी भी बसपा 22 फीसदी वोट से नीचे नहीं रही है।

बीजेपी के लिए 2008 में कमलेश सुमन ने 29156 वोट से सबसे बड़ी जीत दिलाई थी। उसके बाद से यहां पार्टी जीत नहीं सकी है। 2018 में तो बीजेपी प्रत्याशी गब्बर सखबार, नेहा किन्नर से भी पीछे रह गया था। असल में 2018 में नेहा किन्नर को सवर्ण वर्ग के कुछ लोगों ने बीजेपी और खासकर ‘माई के लाल’ के जवाब में लड़ाया था।

बीजेपी के तमाम नेताओं ने पर्दे के पीछे रहकर, नेहा को मुकाबले में लाकर अपनी नाराजगी का सन्देश दिया था। मौजूदा परिस्थितियों में काफी कुछ बदलाव आया है। अब शिवराज सिंह के विरुद्ध पहले जैसा माहौल नहीं है, न ही सिंधिया जैसी विपक्ष की अपील, जो बीजेपी सरकार के विरुद्ध आम जनता को लामबंद कर रही थी।

लेकिन जो जातीय गोलबंदी है उसकी उलझन भी कम नहीं है। मसलन कांग्रेस दिमनी से किसी तोमर को टिकट देगी और बीजेपी इस बार चार अनारक्षित सीट में से किसी भी ठाकुर को टिकट नहीं दे पाएगी, जाहिर है दिमनी का रिफ्लेशन अंबाह पर भी पड़ेगा जहाँ यह समाज एक मजबूत पकड़ रखता है।

हालांकि बीजेपी का कोर वोटर 2018 की तरह छिटकने के आसार कम इसलिए हैं क्योंकि सिंधिया के अलावा केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह जैसे प्रचारक उसके पास होंगे। बसपा अगर सत्यप्रकाश सखबार को फिर से टिकट देती है तब यहां फाइट त्रिकोणीय होगी और बसपा के प्रदर्शन से बीजेपी की हार जीत तय हो सकती है।

अंबाह में कांग्रेस के पास अमर सिंह, अमृत लाल टैगोर (बसपा) के अलावा बीजेपी के बागी नेताओं के विकल्प भी खुले हैं। इस सीट पर क्षेत्रीय सांसद नरेंद्र सिंह तोमर की भूमिका भी अहम है, क्योंकि उनका पुश्तैनी घर यहीं है और वे तोमर वोटरों में निर्विवाद बड़े नेता तो हैं ही। इसके अलावा केएस ऑयल के मालिक रमेश गर्ग की अहमियत भी राजनीतिक रूप से इस सीट पर कम नहीं है, क्योंकि अम्बाह, पोरसा कस्बों में बड़ी संख्या में वैश्य समाज मौजूद है जिन पर रमेश गर्ग की पकड़ है।

बसपा के साथ 2018 में इस जिले में एक बुरा पक्ष यह जुड़ गया था कि उसका कोर वोटर जाटव उससे इसलिए कट गया था कि इस बिरादरी ने बीजेपी को हराने के लिए एक तरह की रणनीतिक वोटिंग की थी। इसीलिए उसका कोर वोटर भी उससे खिसक गया था। अंबाह में उसके पूर्व अध्यक्ष सत्यप्रकाश सखबार का चौथे स्थान पर रहना इस रणनीतिक वोटिंग का ही नतीजा था।

अंचल में लगभग सभी सीटों पर यही ट्रेंड देखने को मिला था जिसका फायदा कांग्रेस को 34 में में 26 सीटों के रूप में मिला था। अब मायावती ने राजस्थान के घटनाक्रम के बाद आक्रामक होकर उपचुनाव लड़ने के लिए कैडर को सन्देश दिया है, जाहिर है, अंबाह में बसपा की ताकत को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। मूल बात बीजेपी के प्रत्याशी के चयन पर ही निर्भर है।

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टीम मध्‍यमत

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