हमने भारत को गणतंत्र कहा है। गणतंत्र का आधार या उसकी आत्मा है इसी भारत का संविधान। वह संविधान जो मौलिक अधिकार के रूप में हमें अभिव्यक्ति की आजादी देता है। लेकिन आज जब हम 69 वां गणतंत्र दिवस मना रहे हैं, तब यही अभिव्यक्ति की आजादी बहुत बड़ा संकट बनकर हमारे सामने आ खड़ी हुई है। सवाल यह पैदा हुआ है कि अभिव्यक्ति की आजादी किसकी और कितनी?
इसमें कोई दो राय नहीं कि भारत के पास विश्व को बताने के लिए उसका गौरवशाली अतीत है। लेकिन आज भारत अतीत और वर्तमान के द्वंद्व की चौखट पर खड़ा है। द्वंद्व इस बात का भी है कि अतीत किसका और उसकी गौरवपूर्ण प्रस्तुति किस रूप में? आजादी के 70 साल और गणतंत्र के 68 साल में हमारी उपलब्धि यह है कि हमने अपने अतीत को भी धर्म, संप्रदाय, जाति और पार्टी के हिसाब से बांट लिया है।
यदि सरकार कांग्रेस की है तो हमारे अतीत के गौरव का रूप कुछ अलग है और यदि सरकार भाजपा की है तो उसका स्वरूप बिलकुल जुदा है। मुख्यमंत्री यदि दलित है तो सरकारों का आचरण कुछ अलग है और यदि सवर्ण है तो उसका आचरण कुछ अलग। और अब तो सवर्ण में भी अलग अलग जातियों के हिसाब से आचरण सामने आ रहे हैं।
दुनिया भर के आला लीडरों के सामने भारत की उपलब्धियों का बखान करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में दावोस के वर्ल्ड इकॉनामी फोरम में कहा कि ‘’भारत में अनादिकाल से हम मानव मात्र को जोड़ने में विश्वास करते आए हैं, उसे तोड़ने में नहीं उसे बांटने में नहीं। भारतीय चिंतकों ने कहा, ‘वसुधैवकुटुम्बकम्’ यानी पूरी दुनिया एक परिवार है। यह धारणा निश्चित तौर पर आज दरारों और दूरियों को मिटाने के लिए ज्यादा सार्थक है।’
विश्व मंच पर भारत के ‘सिरमौर’ नेता द्वारा कही गई इस बात पर अमल की सबसे ज्यादा जरूरत आज खुद भारत के भीतर ही महसूस हो रही है। तमाम प्रगति के बावजूद यह समय संकट का इसलिए है क्योंकि जिस संविधान से गणतंत्र चलता है, उस संविधान में उल्लिखित सभी स्थापित संस्थाओं को संदिग्ध बना देने या उनकी रीढ़ तोड़ देने के प्रयास हो रहे हैं।
दूसरा प्रयास समानांतर रूप से समाज को तोड़ने का चल रहा है। यही देश था जिसमें 18 वीं और 19 वीं शताब्दी के दौरान आजादी के आंदोलन के समानांतर सामाजिक आंदोलन भी व्यापक रूप से चलाए गए। उस दौरान कई रूढि़यों और अंधविश्वासों को खत्म करने के प्रयास हुए। लेकिन आज हम एक बार फिर देश को जातिगत भंवर में ढकेला जाता देख रहे हैं।
सबसे बड़ी चिंता, संविधान की शपथ लेकर आने वाली सरकारों के, खुद के द्वारा ही संविधान की धज्जियां उड़ाना है। लोकहिंसा हो तो सरकार पर उसके शमन का दायित्व है, लेकिन सरकार प्रायोजित हिंसा हो तो उसका शमन कौन करे? समाज की खुद की बुराइयां अपनी जगह हैं, लेकिन जातिगत, संप्रदायगत और धर्मगत वैमनस्य यदि सरकारें ही फैलाने लगे तो फिर कौन बचाए?
इस गणतंत्र दिवस पर विचार क्या इन बातों पर नहीं होना चाहिए?