पिछले दिनों हमने इसी कॉलम में देश की नई शिक्षा नीति पर बात की थी। नरेंद्र मोदी सरकार ने शिक्षा के क्षेत्र में आमूल चूल परिवर्तन के इरादे से, पूर्व केबिनेट सचिव टीएसआर सुब्रमण्यन की अध्यक्षता में, नई नीति तैयार करने के लिए एक कमेटी बनाई थी। उस कमेटी की रिपोर्ट सरकार को मिल गई है, लेकिन चूंकि उसे पूरी तरह सार्वजनिक नहीं किया गया है, इसलिए मानव संसाधन विकास मंत्रालय से छन छन कर बाहर आने वाली, नई शिक्षा नीति से जुड़ी सूचनाएं, कई मंचों पर बहस का विषय बन रही हैं।
हाल ही में टेलीग्राफ अखबार ने नई शिक्षा नीति को लेकर एक और मुद्दा उठाया है। अखबार का कहना है कि नई नीति के लिए बनाए गए विशेषज्ञों के पैनल से कहा गया कि वो अपने अंतिम दस्तावेज में से यौन अथवा सेक्स/सेक्सुअल शब्द निकाल दें। मंत्रालय का मानना है कि इस शब्द से विवाद खड़ा हो सकता है।
नई शिक्षा नीति में विशेषज्ञ पैनल के सामने स्कूलों में यौन शिक्षा भी एक अहम मुद्दा रहा है। हालांकि पैनल ने इस पर क्या राय दी है और किस स्तर पर उसने विचार विमर्श किया है, इसकी जानकारी नहीं है, फिर भी माना जा रहा है कि शिक्षा क्षेत्र से जुड़े कई विशेषज्ञों की राय है कि स्कूलों में यौन शिक्षा दिए जाने पर विचार होना चाहिए। मंत्रालय चाहता है कि इस तरह की बातों को ‘यौन शिक्षा’ या ‘यौन स्वास्थ्य संबंधी आवश्यकताएं’ कहने के बजाय यह विषय बच्चों को ‘’किशोर शिक्षा कार्यक्रम एवं राष्ट्रीय जनसंख्या शिक्षा कार्यक्रम’ के नाम से पढ़ाया जाए। मंत्रालय को सीधे सीधे सेक्स शब्द के इस्तेमाल पर ऐतराज है। यह बात अलग है कि खुद मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने अपनी वेबसाइट पर ‘किशोर शिक्षा पाठ्यक्रम’ की जो जानकारी दे रखी है वो कहती है कि इसमें किशोर प्रजनन एवं यौन स्वास्थ्य से जुड़ी बातों को बताया जाएगा।
दरअसल मोदी सरकार के लिए यह विषय इसलिए बहुत संवेदनशील है क्योंकि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, यौन शिक्षा जैसे किसी भी प्रयोग का विरोध करता रहा है। शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाले संघ से ही जुड़े संगठन ‘शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास’ की वेबसाइट पर न्यास के सचिव अतुल कोठारी के हवाले से जो जानकारी अपलोड है, वो कहती है-
‘’2007 में देश में यौन शिक्षा लागू करने का प्रयास केंद्र सरकार द्वारा किया गया था। इसके विरुद्ध देशव्यापी आन्दोलन चला, इस प्रयास में देश की अनेक संस्थाए जुड़ीं। इसके परिणामस्वरूप सरकार ने अपना निर्णय स्थगित किया। उस पाठ्यक्रम की समीक्षा हेतु कुछ राज्य सरकारों एवं केन्द्र सरकार के द्वारा समितियाँ गठित की गई। जब आन्दोलन चल रहा था उसी समय राज्यसभा की याचिका (पिटीशन) समिति को एक याचिका दी गई थी। समिति ने याचिका स्वीकार करते हुए उस पर देश के सात बड़े महानगरों में सुनवाई की, जिसमें उन्हें 40 हजार से अधिक आवेदन प्राप्त हुए। इन आवेदनों की जब समीक्षा की गई तब अधिकतर आवेदन यौन शिक्षा के विरुद्ध पाए गए। याचिका समिति ने लगभग डेढ़ वर्ष कार्य करते हुए अपनी रिपोर्ट तैयार की। सांसदों ने सर्वसम्मति से पारित इस रिपोर्ट में कहा कि यौन शिक्षा के बदले ‘चरित्र निमार्ण एवं व्यक्तित्व विकास की शिक्षा’ देनी चाहिए।‘’
शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास ने भी यौन शिक्षा का विकल्प देने के बारे में राष्ट्रीय स्तर पर परिसंवाद आयोजित कर विद्धानों की राय के आधार पर सर्वसम्मति से एक प्रारूप तैयार करते हुए पाठ्यक्रम समिति का गठन किया था। इस समिति ने ‘चरित्र निर्माण एवं व्यक्तित्व के समग्र विकास’ का एक पाठ्यक्रम तैयार किया। फिर उस पाठ्यक्रम पर न्यास ने देश भर में चर्चा एवं परिसंवाद आयोजित किए। न्यास का मत है कि यौन शिक्षा के बजाय स्कूलों में योग शिक्षा को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाना चाहिए।
शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास हाल ही में अपनी एक और सिफारिश को लेकर चर्चा में आया है, जिसमें उसने कहा है कि स्कूलों में प्राथमिक से लेकर उच्च स्तरीय कक्षाओं में पढ़ाई का माध्यम मातृभाषा होना चाहिए। स्कूलों में विदेशी भाषा किसी भी भारतीय भाषा का विकल्प नहीं होनी चाहिए। अंग्रेजी किसी भी स्तर पर अनिवार्य नहीं होनी चाहिए।
न्यास ने यह भी कहा है कि रिसर्च के काम राष्ट्रीय आवश्यकताओं से जुड़े होने चाहिए और जो भी शोधार्थी इस शर्त पर खरा न उतरे, उसे यूजीसी की स्कॉलरशिप नहीं दी जाए। ऐसी कोई भी टिप्पणी, जो भारतीय संस्कृति, परंपरा, सम्प्रदाय, विचार, प्रतिष्ठित शख्सियत आदि की गलत व्याख्या करती हो या उसके बारे में भ्रामक जानकारी देती हो, उसे शिक्षा पाठ्यक्रमों से तुरंत हटा दिया जाना चाहिए।
इसके अलावा आईआईटी, आईआईएम और एनआईटी जैसे अंग्रेजी माध्यम के संस्थानों में भारतीय भाषाओं में शिक्षा शुरू करने की सुविधाएं दी जाएं। उन स्कूलों पर कानूनी कार्रवाई की जाए जो बच्चों को अपनी मातृभाषा में बोलने से रोकते हैं।
जाहिर है नई शिक्षा नीति घोषित करने से पहले मानव संसाधन विकास मंत्रालय को कई पापड़ बेलने पड़ेंगे, ऐसे में सुब्रमण्यन कमेटी की रिपोर्ट अपने मूल स्वरूप में कितनी जिंदा रह पाएगी, कहना मुश्किल है।