सड़ी हुई रोटी पर तो सिर्फ फफूंद ही पनप सकती है!

दो दिन पहले मैंने मोदी सरकार के उस फैसले के बारे में लिखा था जिसके अंतर्गत तय किया गया है कि अब विभिन्‍न मंत्रालयों में जॉइंट सेक्रेटरी स्‍तर के अफसरों की सीधी भरती की जा सकेगी। संबंधित क्षेत्र में 15 साल का अनुभव रखने वाले व्‍यक्ति इन पदों के लिए आवेदन कर सकते हैं। सरकार ने बाकायदा दस मंत्रालयों में की जाने वाली ऐसी नियुक्तियों को लेकर विज्ञापन भी जारी कर दिया है।
सरकार के इस फैसले पर तरह तरह की प्रतिक्रियाएं आ रही हैं। सीआरपीएफ के पूर्व विशेष महानिदेशक एन.के. त्रिपाठी ने मंगलवार को ट्विटर पर इस फैसले की सराहना करते हुए लिखा कि ‘’संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) से चयनित हमारी अत्‍यंत प्रतिभाशाली नौकरशाही शासन/प्रशासन के अंतर्राष्‍ट्रीय मापदंडों के अनुरूप परिणाम देने में विफल रही है। इसका कारण उसका अपने ही अहंकार में जीना और एक सड़े गले राजनीतिक तंत्र के अधीन एकाधिकारवादी तंत्र के रूप में काम करना है। इससे निजात पाने के लिए सीधी भरती (लेटरल एंट्री) के साथ ही अन्‍य उपायों पर भी विचार होना चाहिए।‘’
उन्‍होंने लिखा कि-‘’निजी अथवा सार्वजनिक क्षेत्र से पेशेवरों को इस काम के लिए चुनने का मामला बहुत दिनों से लंबित है। ऐसे में सिर्फ 10 संयुक्‍त सचिव तो इसके लिए बहुत कम हैं और निचले स्‍तर पर हैं, हमें तो मनमोहनसिंह जैसे कई लोग सचिव स्‍तर चाहिए।‘’
इस प्रक्रिया को लेकर कांग्रेस अध्‍यक्ष राहुल गांधी की आशंकाओं का जिक्र करते हुए त्रिपाठी ने कहा कि- ‘’उनकी (राहुल गांधी) यह आशंका सुनकर हंसी आती है कि इस कदम के जरिये राष्‍ट्रीय स्‍वयं सेवक संघ के लोग पिछले दरवाजे से नौकरशाही पर काबिज कर दिए जाएंगे। उन्‍हें यह पता होना चाहिए कि इसके लिए तय मापदंड में 15 साल के अनुभव वाले विशेषज्ञ मांगे गए हैं न कि प्रचारक…’’
श्री त्रिपाठी की इस राय पर देवी अहिल्‍या विश्‍वविद्यालय के पूर्व कुलपति और पेशे से चिकित्‍सक डॉ. भरत छापरवाल ने अपनी तीखी प्रतिक्रिया में सरकार के कदम को लेकर कई आशंकाएं जाहिर की हैं। उन्‍होंने कहा है कि- ‘’सीधी भरती के जरिये सिर्फ 15 साल के अनुभव के आधार पर दो लाख रुपए मासिक वेतन पाते हुए 3 से 5 साल की सेवाओं के बाद मुक्‍त हो जाने की बात बहुत ही अव्‍यावहारिक है।‘’
डॉ. छापरवाल ने जो सबसे गंभीर सवाल उठाया वो यह है कि-‘’ऐसे अधिकारियों की पहुंच सभी प्रकार की फाइलों तक होगी,जिनमें गोपनीय फाइलें भी शामिल हैं, और ऐसा होना राष्‍ट्रीय सुरक्षा के लिहाज से खतरनाक हो सकता है।
‘’ऐसे व्‍यक्तियों का कार्यकाल पूरा हो जाने के बाद, उनकी निष्‍ठा उसी कॉरपोरेट या संस्‍थान के प्रति होगी जहां वे काम करते हैं। काम के दौरान भी वे अपने मालिकों के हितों का ही संरक्षण और पोषण करेंगे और एक तरह से क्रोनी पूंजीवाद और कॉरपोरेट माफिया को मजबूत बनाएंगे।‘’
उन्‍होंने कहा- ‘’आधुनिक भारत के निर्माण में अखिल भारतीय प्रशासनिक, पुलिस, विदेश, राजस्‍व एवं वन सेवाओं सहित अन्‍य सेवाओं के अफसरों का महत्‍वपूर्ण योगदान है। कुछ अपवादों को छोड़कर उनका योगदान सराहनीय रहा है। उन्‍हें एक कठिन प्रक्रिया के जरिये चुना जाता है और बाद में उन्‍हें प्रशासनिक अकादमियों में अच्‍छी तरह प्रशिक्षित किया जाता है। ‘’
‘’जब भी जरूरत होती है ऐसे अधिकारियों को भारत अथवा विदेश स्थित संस्‍थानों से आवश्‍यक प्रशिक्षण भी दिलवाया जाता है। नया प्रस्‍ताव समय की कसौटी पर खरी उतरी हमारी मेधा पर सवाल उठाता है।‘’
‘’हाल के वर्षों में यह देखा जा रहा है कि एक खास विचारधारा के प्रति समर्पण रखने वाले लोगों को इस तरह की नियुक्तियां दी जा रही हैं और वे नीतिगत निर्णयों को प्रभावित कर रहे हैं। देश को इस ‘हिडन एजेंडा’ का शिकार होने से बचाने की जरूरत है।‘’
मेडिकल कौंसिल ऑफ इंडिया के सदस्‍य रह चुके डॉ. छापरवाल ने कहा कि जहां तक चिकित्‍सा सेवाओं का सवाल है अकसर यह सुना जाता है कि इसके लिए अलग से अखिल भारतीय चिकित्‍सा सेवा के गठन की जरूरत है लेकिन इस दिशा में कोई खास कदम नहीं उठाए गए हैं।
तार्किक दृष्टि से श्री त्रिपाठी और डॉ. छापरवाल की राय पर बहस हो सकती है, दोनों की राय को लेकर सहमति और असहमति भी जरूर जताई जाएगी लेकिन प्रशासन में वरिष्‍ठ पदों पर काम कर चुके दोनों विशेषज्ञों ने जो मत व्‍यक्‍त किए हैं उन पर गंभीरता से विमर्श होना चाहिए।
मुझे एक बात जो श्री त्रिपाठी की प्रतिक्रिया में उल्‍लेखनीय लगती है वो यह है कि ‘’हमारा वर्तमान प्रशासनिक ढांचा एक सड़े गले राजनीतिक सिस्‍टम के तहत काम कर रहा है।‘’ इस बात को स्‍वीकार करते हुए बड़ा सवाल यह उठता है कि चाहे कोई भी आए, यदि उसे इस सड़े गले तंत्र के अधीन ही काम करना है तो फिर कैसे तो वह ठीक से काम कर पाएगा और कैसे आप उससे अपेक्षित परिणामों की उम्‍मीद करेंगे।
यह बात एक बार फिर उस शाश्‍वत विवाद की तरफ मुड़ जाती है जो सरकार और नौकरशाही की चिरंतन समस्‍या है। नौकरशाही कहती है कि पॉलिटिकल बॉसेस उन्‍हें काम नहीं करने देते और राजनीतिक नेतृत्‍व कहता है कि भ्रष्‍ट नौकरशाही के कारण वे बदनाम होते हैं।
कॉरपोरेट कल्‍चर में काम करने वाला व्‍यक्ति अपने हिसाब से काम करता है। उसे वैसी दखलंदाजी की आदत नहीं होती जैसी सरकारी सिस्‍टम में आए दिन देखने को मिलती है। सरकारों के कई फैसले जनदबाव या वोटों के दबाव में लिए जाते हैं। ऐसे में यदि कोई विशेषज्ञ आ भी गया तो क्‍या वह पूरी आजादी से काम कर पाएगा? नंदन नीलेकणि जैसे लोगों का हश्र हम देख चुके हैं।
और जहां तक सुरक्षा संबंधी प्रश्‍नों की बात है तो डॉ. छापरवाल की इस आशंका को निर्मूल भी नहीं ठहराया जा सकता कि ऐसी नियुक्तियों के साथ ऐसे खतरे बिलकुल जुड़े रहेंगे। ऐसे में जवाबदेही किसकी होगी?

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