हमारी सड़कें या तो कुपोषण की शिकार हैं या दुष्‍कर्म की

प्रश्‍न सिर्फ 368.62 करोड़ की लागत से भोपाल में बस रैपिड ट्रांजिट सिस्‍टम (बीआरटीएस) बनाने और सिर्फ 6 साल बाद, 100 करोड़ रुपए खर्च कर उसे तुड़वाने का नहीं है। मूल प्रश्‍न यह है कि बढ़ते शहरीकरण और उन शहरों में बुनियादी ढांचे के विकास और नियोजन को लेकर हमारी सोच क्‍या है? जिस परंपरावादी और दीमक लगे राजनीतिक व प्रशासनिक ढांचे को हम ढो रहे हैं, क्‍या वह इन नई चुनौतियों का सामना करने के लिए नैतिक और बौद्धिक रूप से तैयार है?

जब भी शहरों की बात होती है, आजकल सबसे बड़ी समस्‍या ट्रैफिक और वाहनों की पार्किंग की नजर आती है। वाहनों की लगातार बढ़ती संख्‍या ने शहरों की सड़कों को लगातार छोटा और संकरा किया है। ऊपर से बढ़ते अतिक्रमण और व्‍यवसायीकरण ने ऐसी कोई जगह नहीं छोड़ी है जहां ये वाहन, जब चल न रहे हों, तो इन्‍हें व्‍यवस्थित रूप से खड़ा या पार्क किया जा सके।

वाहन दोनों ही स्थितियों में समस्‍या बनते जा रहे हैं, वे चल रहे होते हैं तो सड़कों पर कोहराम मचाते हैं और जब खड़े होते हैं तो चलने में रुकावट बन जाते हैं। सड़कों को शहर या गांव के विकास की धमनियां कहा जाता है, लेकिन अब इन धमनियों में वाहनों का क्‍लॉटिंग लगातार बढ़ता जा रहा है। कई जगह तो इन्‍होंने 100 फीसदी ब्‍लॉकेज कर दिया है, जिससे सड़कों का धड़कना ही बंद होता जा रहा है। हमारे सिस्‍टम में इसके समाधान के लिए न तो कोई स्‍टेंट डालने की सुविधा है और न ही बायपॉस की।

मैं इसी कॉलम में कई बार लिख चुका हूं कि सड़कों का कोई धनीधोरी नहीं है। सब उन्‍हें अपने बाप का माल समझते हैं। श्रीलाल शुक्‍ल ने अपने उपन्‍यास ‘राग दरबारी’ की शुरुआत ही एक सड़क और उस पर खड़े ट्रक से की है। वे लिखते हैं-

‘’शहर का किनारा। उसे छोड़ते ही भारतीय देहात का महासागर शुरू हो जाता था। वहीं एक ट्रक खड़ा था। उसे देखते ही यकीन हो जाता था, इसका जन्म केवल सड़कों से बलात्कार करने के लिये हुआ है। जैसे कि सत्य के होते हैं, इस ट्रक के भी कई पहलू थे। पुलिसवाले उसे एक ओर से देखकर कह सकते थे कि वह सड़क के बीच में खड़ा है, दूसरी ओर से देखकर ड्राइवर कह सकता था कि वह सड़क के किनारे पर है। चालू फ़ैशन के हिसाब से ड्राइवर ने ट्रक का दाहिना दरवाजा खोलकर डैने की तरह फैला दिया था। इससे ट्रक की खूबसूरती बढ़ गयी थी, साथ ही यह ख़तरा मिट गया था कि उसके वहां होते हुये कोई दूसरी सवारी भी सड़क के ऊपर से निकल सकती है।‘’

श्रीलाल शुक्‍ल साहित्‍यकार होने के साथ ही प्रशासनिक अधिकारी भी थे। राग दरबारी का पहला संस्‍करण 1968 में आया था। जरा सोचिए उन्‍होंने क्‍या सोचकर इस उपन्‍यास की शुरुआत ‘ट्रक’ और ‘सड़क’ के प्रतीकों से की होगी। और जब उस समय कोई लेखक किसी ट्रक के बारे में यह लिख सकता था कि ‘उसका जन्‍म केवल सड़कों से बलात्‍कार करने के लिए हुआ है’ तो कल्‍पना कीजिए, वह बात लिखे जाने के 50 साल बाद आज सड़कों की हालत क्‍या होगी। इन 50 सालों में हमने सड़कें यदि बनाई तो सिर्फ और सिर्फ इसलिए कि वाहन उनके साथ बलात्‍कार कर सकें। एक मायने में हमारी सड़कों और बच्‍चों की हालत एक जैसी ही है, या तो वे कुपोषण के शिकार हैं या फिर दुष्‍कर्म के।

भोपाल के बीआरटीएस का मामला ही ले लीजिए। पहले सुविधा के नाम पर बनाया गया और अब असुविधा के नाम पर तोड़ा जाने वाला यह कॉरिडोर एक बार फिर शहरी नियोजन में हमारी नाकामी का परचम बनकर सामने आया है। और आप क्‍या समझते हैं, क्‍या कॉरिडोर की रेलिंग तोड़ दिए जाने से समस्‍या का समाधान हो जाएगा? क्‍या सड़कों पर होने वाली दुर्घटनाएं रुक जाएंगी? क्‍या उसके बाद ट्रैफिक जाम की समस्‍या नहीं रहेगी? यकीन मानिए ऐसा कुछ नहीं होगा।

होगा यह कि थोड़े दिनों के लिए सड़क आपको चौड़ी दिखेगी जरूर लेकिन बाद में वह लगातार संकरी होती चली जाएगी। जिस बैरागढ़ में मंगलवार को दुर्घटना और उसके बाद युवक की मौत वाला हादसा हुआ है, वहां आप कभी भी निकल जाइए, खासतौर से कारोबार और कामकाजी समय में। आपको आज भी वाहन निकालने में पसीने आ जाएंगे। क्‍योंकि दुकानदारों ने खुद ही सड़कों पर या तो अपनी दुकान के विस्‍तार से या वहां खड़े किए जाने वाले अपने एवं ग्राहकों के वाहनों से अतिक्रमण कर सड़क का गला घोंट रखा है।

सड़कें चाहे जितनी चौड़ी कर ली जाएं। जब तक उन्‍हें दुकानों, गुमटियों, ठेलों, हॉकरों आदि के अतिक्रमण और वाहनों की पार्किंग से मुक्‍त नहीं कराया जाएगा, समस्‍या का हल नहीं निकल सकता। इधर आप कॉरिडोर तोड़कर वाहनों के चलने के लिए जगह बनाएंगे और उधर वह जगह थोड़े ही दिनों में अतिक्रमण और पार्किंग से लील ली जाएगी। समस्‍या जहां की तहां बनी रहेगी।

प्रदेश के नगरीय विकास और आवास मंत्री जयवर्धनसिंह सुन रहे हों तो सुनें, शहरों के नियोजन और यातायात व्‍यवस्‍था में लगे लोग सुन रहे हों तो सुनें, यदि आपको हल निकालना ही है, तो पहले सड़कों को रोज, हर सेकंड होने वाले इस बलात्‍कार से मुक्‍त कराने की सोचिए। मैंने अभी कुछ दिन पहले ही लिखा था कि ऐसा शायद भोपाल में ही हो सकता है कि सरेआम किसी व्‍यस्‍त तिराहे पर भांग का ठेका दे देने जैसा भंगेड़ी फैसला हो जाए। शहर के भीड़भाड़ वाले चौराहों की ऐन छाती पर चारों ओर दुकानें या गुमटियों को ठोकने की इजाजत दे दी जाए।

वाहनों की बढ़ती संख्‍या और पार्किंग की जुगाड़ तो अपने आप में समस्‍या है ही, लेकिन जब आप सड़कों को अतिक्रमण के जरिए लील जाने की हरकतों पर भी आंखें मूंद लेते हैं तो हालात कई गुना खराब हो जाते हैं। सड़क पर चलने वालों की रोजमर्रा की मुश्किलों और मुसीबतों से आप शायद वाकिफ न हों। कई बातें आपको पता भी न चल पाती हों। ऐसे में आप उन लोगों को बुलाकर बात तो करिए जो आपको ढंग के सुझाव दे सकते हैं। अपने अनुभवों से बता सकते हैं कि कहां क्‍या परेशानी है और उसका संभावित हल क्‍या हो सकता है।

इसके लिए पहल तो आपको ही करनी होगी। वरना वो गुलजार ने लिखा है ना- ‘’तुम्‍हारा क्‍या तुम्‍हें तो राह दे देते हैं कांटे भी, मगर हम खाकसारों को बड़ी तकलीफ होती है…’’ आपका काफिला तो पुलिस की चाक चौबंद व्‍यवस्‍था में आसानी से निकल जाता है, पर यकीन मानिए हम खाकसारों को सचमुच बहुत तकलीफ होती है…

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here