देश इस समय ‘नोट त्रासदी’ से गुजर रहा है। आठ नवंबर की रात को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 500 और 1000 के नोट प्रचलन से बाहर किए जाने का इतना हल्ला है कि देशवासियों को कुछ सुनाई नहीं दे रहा। सारा देश या तो नोट निकालने में लगा है या फिर जमा कराने में। अच्छा खासा बैंक बैलेंस रखने वाले लोग भी भिखारियों की तरह घूम रहे हैं। ऐसे में किसी को फुर्सत नहीं है कि किसी दूसरी बात पर ध्यान दे या उसे याद भी करे।
लेकिन करेंसी कोरस के इस कोलाहल में भी मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में 32 साल पहले हुई त्रासदी को भुलाया तो नहीं ही जा सकता। 2-3 दिसंबर 1984 की रात भोपाल के यूनियन कारबाइड कीटनाशक कारखाने से रिसी जहरीली गैस की चपेट में आकर हजारों लोगों की मौत हो गई थी और उससे भी अधिक लोग काम करने लायक नहीं रहे थे। गैस पीडि़तों की भावी पीढि़यां भी दुनिया की उस सबसे भीषणतम औद्योगिक दुर्घटना के असर से बच नहीं सकी थीं।
मैंने समाचार एजेंसी यूएनआई में काम करते हुए उस त्रासदी को कवर किया था। आज जब लोगों को लंबी-लंबी कतारों में नोट पाने के लिए एटीएम या बैंकों के सामने खड़ा देखता हूं तो याद आते हैं वे दिन जब भोपाल में अपनी आंखों और सीने में जलन लिए ऐसे ही हजारों लोग अस्पतालों के बाहर इलाज के लिए लाइन लगाए खड़े रहते थे। इलाज के जाल से थोड़ी मुक्ति मिली तो सारे लोग राहत और मुआवजे के जाल में फंस गए। ठीक आज की ही तरह मारामारी दिखाई देती थी। गैस कांड मुआवजे के लिए भरा जाने वाला फार्म पाने के लिए मरने मारने की हद तक संघर्ष करते लोग… फिर गैस अदालतों में कई-कई दिनों तक, घंटों अपने केस की बारी आने का इंतजार करते लोग…
उस दौरान भी दलालों का वैसा ही जाल फैला हुआ था जैसा आज बंद हो गए काले नोटों को सफेद करवाने का दावा करने वाले दलालों का फैला हुआ है। कदम कदम पर दलाल… मुआवजा सूची में आपका नाम होने की सूचना देने वाले दलाल, गैस मुआवजे का फार्म लाकर देने वाले दलाल, मुआवजा फार्म भरने वाले दलाल, अदालतों के बाहर किसी और के एवज में लाइन में लगने वाले दलाल, अदालत में लगने वाले दस्तावेज जुटाने वाले दलाल, अदालत के बाबुओं से सेटिंग कराने का दावा करने वाले दलाल, मुआवजा राशि बढ़वाने वाले दलाल, मुआवजा सूची में नाम शामिल करवाने वाले दलाल… ऐसा लगता था दलालों की यह जमात कभी खत्म ही नहीं होगी। उस समय चारों ओर यही महसूस होता था कि आपके आसपास जो भी मौजूद है वह मनुष्य नहीं बल्कि दलाल ही है। याकि दलाल की शक्ल में ईश्वर का भेजा ऐसा दूत जो आपकी हर परेशानी का हल लेकर आया है। गोया उसके पास जादू की वो छड़ी है, जो आपको हर मुसीबत से छुटकारा दिला देगी…
याद है मुझे… चारों ओर दलालों से घिरे, दलालों के चंगुल में फंसे, दलालों से ठगे जाते लोग… फिर भी दलालों की चिरौरी करते लोग… बड़ा ही कठिन समय था। ऐसा लगता था कि वह गैस कांड से पीडि़त लोगों की लाइन नहीं बल्कि दर्द की ऐसी लहर है जो कभी खत्म ही नहीं होगी।
आज नोटबंदी के चलते बैंकों से नोट निकलवाने की होड़ मची है, उस समय बैंकों में गैस कांड के मुआवजे की राशि जमा करवाने की आपाधापी मची थी। भोपाल गैस पीडि़तों को अरबों रुपए का मुआवजा मिला, अरबों रुपए की योजनाएं इस शहर के लिए लाई गईं। लेकिन आज 32 बरस बाद भी ऐसा लगता है कि वह दर्द वहीं ठहरा हुआ है। उस ठहरे हुए दर्द को वहीं छोड़कर भोपाल स्मार्ट बनने की राह पर चल पड़ा है। उस समय त्रासदी के दलाल थे आज स्मार्ट सिटी के दलाल हैं। 3 दिसंबर यानी गैस त्रासदी की बरसी के मायने अब इस शहर में सरकारी छुट्टी और कुछ संगठनों के प्रतीकात्मक प्रदर्शन भर रह गए हैं। शुरू के कुछ सालों तक गैस पीडि़तों का दर्द मीडिया की सुर्खियां भी बनता था और सरकारों को दिखावे के लिए ही सही कुछ करने या कहने को मजबूर भी करता था। लेकिन अब ऐसा कुछ नहीं होता। गैस कांड की बरसी आती है और चली जाती है।
अगर कोई पूछे कि गैस कांड से भोपाल ने क्या सीखा, तो शायद ठीक ठीक जवाब किसी के पास नहीं होगा। रही बात कुछ करने की तो, ज्यादा दूर क्यों जाएं, कबाड़ की शक्ल में यूनियन कारबाइड का वह हत्यारा कारखाना आज भी अपनी जगह मौजूद है और वह जहरीला कचरा भी, जिसे भोपाल से हटाने के लिए दर्जनों बार योजनाएं बनीं, लेकिन उन पर अमल कभी नहीं हो सका।
सच है, इस व्यवस्था में कचरा तो कचरा ही है, भले ही वह आदमी की शक्ल में ही क्यों न हो। आप कितने ही ‘स्वच्छता अभियान’ चला लें, यहां आदमी की औकात भी किसी कचरे से ज्यादा नहीं…