मैंने जब सीबीएसई की दसवीं और बारहवीं की परीक्षा के परिणामों पर लिखना शुरू किया था तो इरादा केवल यही जानने और समझने का था कि नंबरों की इस अंधी दौड़ का अंत कहां और कैसा होगा? आज जब इस श्रृंखला को मैं खत्म करने जा रहा हूं तो सारे सवाल मानो वहीं के वहीं ठहरे हुए लग रहे हैं। आप मुझे पुराने जमाने का कहकर खारिज कर सकते हैं, लेकिन मेरे इस सवाल को शायद आप खारिज न कर पाएं कि क्या सचमुच हमारे बच्चे इतने सारे अंक लाकर भी वह हासिल कर पा रहे हैं जिसे ‘संतोष’ कहते हैं। क्या उनकी जिंदगी में सुकून नाम की चीज हमें दिखाई देती है?
नर्सरी से लेकर ग्रेजुएट या पोस्ट ग्रेजुएट होने तक वह ‘मेरिट’ के पीछे भागता है और उसके बाद कंपनी द्वारा दिए गए ‘टारगेट’ के पीछे। ऐसा लगता है कि नंबर ही उसकी जिंदगी का लक्ष्य हैं और यह लक्ष्य पाने की कोशिश में वह खुद कब नंबर में तब्दील हो जाता है पता ही नहीं चलता।
यकीन न आए तो जरा अपने आसपास ऐसे प्रतिभाशाली बच्चों की स्थिति पर नजर डालकर देखिए। जैसे ही किसी बच्चे ने 95 प्रतिशत या उससे अधिक अंक प्राप्त किए या वह किसी प्रतियोगी परीक्षा की मेरिट सूची में आया, उस पर बाजार का अधिकार हो जाता है। वे कोचिंग संस्थान जहां से उसने थोड़ी बहुत कोचिंग ली होगी, अपने उत्पाद की तरह उसकी मार्केटिंग करने लगते हैं। भले ही बच्चे ने खुद की प्रतिभा से सफलता अर्जित की हो, लेकिन प्रचार ऐसे होता है मानो वह बच्चा यदि उस कोचिंग संस्थान में नहीं गया होता तो गर्त में चला जाता।
और आगे क्या होता है… आगे वह बच्चा खुद बाजार बनकर रह जाता है। वहां उसकी जिंदगी का हिसाब किताब उसके सुख-दुख से नहीं बल्कि उसे मिलने वाले पैकेज और कंपनी के प्रॉफिट और लॉस अकाउंट से तय होता है। अकसर हम मीडिया में ऐसी खबरें पढ़ते रहते हैं जहां मां-बाप से लेकर शिक्षा संस्थान तक बड़े गर्व से यह प्रचारित-प्रसारित करते हैं कि उनके बच्चे को फलां कंपनी में एक करोड़, दो करोड़ या पांच करोड़ का पैकेज मिला।
दुर्भाग्य से हमारी पूरी शिक्षा और परीक्षा प्रणाली का अंतिम लक्ष्य इस तरह के पैकेज को ही मान लिया गया है। अच्छा पैकेज प्राप्ति का मार्ग, मोक्ष के मार्ग की तरह हो गया है और अच्छा पैकेज मिल जाना मानो मोक्ष का पर्याय। ऐसे में समाज के हित अहित के बारे में सोचने की बात तो छोड़ दीजिए, हम यह सोचने की जहमत तक नहीं उठाते कि इन प्रतिभाशाली बच्चों में से कोई अच्छा संगीतकार, अच्छा गायक, अच्छा चित्रकार, अच्छा शिल्पी, अच्छा वैज्ञानिक या अच्छा लेखक भी निकला कि नहीं। विडंबना यह है कि पैकेज संस्कृति से इतर मैंने इन जितने क्षेत्रों के नाम गिनाए हैं वहां भी बच्चे की प्रतिभा बाजार के रहमोकरम पर ही आश्रित होती है।
मेरा मानना है कि हमारी परीक्षा पद्धति में समाज से जुड़ाव और समाज के प्रति जिम्मेदारी तय करने वाले तत्वों का भी समावेश होना चाहिए। ‘ऑब्जेक्टिव टाइप’ प्रश्नों पर आधारित वर्तमान परीक्षा प्रणाली ने बच्चों के लिए सौ में से सौ अंक लाने की राह भले ही खोल दी हो लेकिन उसने इन बच्चों की जिंदगी की राह को उतना ही ज्यादा मुश्किल बना दिया है।
मैं महसूस करता हूं कि 99.8 फीसदी तक अंक लाने वाले और पूरे में से पूरे अंक पाने में सिर्फ एक नंबर से पिछड़ जाने वाले ये ‘प्रतिभाशाली’ बच्चे जिंदगी की परीक्षा में ज्यादातर असफल होते हैं। फिर चाहे वह उनके परिवार से जुड़ाव का मामला हो या फिर खुद अपने द्वारा बनाए जाने वाले परिवार का। वे हर बात को ‘ऑब्जेटिव टाइप’ प्रश्नों के रूप में देखने और उनके वैसे ही उत्तर देने या ढूंढने के आदी हो जाते हैं।
याद रखिए जिंदगी ‘आब्जेटिव टाइप’ प्रश्नपत्र नहीं होती, जिसमें हर सवाल का जवाब ‘हां’ या ‘ना’ में देने की सुविधा हो। जिंदगी अकसर ‘सब्जेटिव’ टाइप होती है, वहां आपको विस्तार से चीजों को समझने, उनसे डील करने और उनका हल निकालने की काबिलियत चाहिए। असल जिंदगी में कई बार ‘ना’ का मतलब ‘हां’ और ‘हां’ का मतलब ‘ना’ होता है। कई बार एक ही प्रश्न के कई विकल्प आपके सामने होते हैं तो कई बार आपको एक से अधिक विकल्प चुनना पड़ते हैं।
क्या जिंदगी की इन चुनौतियों का सामना करने की ताकत हमारी परीक्षा प्रणाली बच्चों को दे पा रही है? दरअसल हम अपनी भावी पीढ़ी को या तो ‘साफ्टवेयर’ की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं या फिर ‘हार्डवेयर’ की तरह। उसमें प्राणतत्व के लिए कोई जगह ही नहीं छोड़ रहे। पढ़ाई के दौरान भी बच्चा घड़ी का गुलाम रहता है और पढ़ाई पूरी करने के बाद भी। मैंने लाखों का पैकेज पाने वाले कई बच्चों के चेहरे पर नींद की गुहार को चस्पा हुए देखा है। उनकी आंखों में सपने नहीं बल्कि दफ्तर में हाजिरी दर्ज कराने वाली बॉयोमेट्रिक मशीन का अक्स दिखाई देता है।
जिस परिवार ने उन्हें पाल पोसकर इतना बड़ा किया, उस परिवार के लिए उनके पास कोई वक्त नहीं होता, और परिवार की तो छोडि़ए आज तो पति के पास पत्नी के लिए और पत्नी के पास पति तक के लिए वक्त नहीं होता। एक पारिवारिक काउंसलर का कहना है कि और तो और पति-पत्नी अब अपनी संतान भी पैदा करना नहीं चाहते। इसके लिए भी उनके पास वक्त नहीं, वे यह कमी बच्चों को गोद लेकर पूरी कर रहे हैं। मानो बच्चा भी बाजार से खरीद कर ले आने लायक कोई वस्तु हो।
नंबरों की अंधी दौड़ में भाग रहे बच्चे, ‘पाइड पाइपर’ कहानी के उस जादूगर के पीछे भागते चूहों की तरह हैं, जो उन्हें ले जाकर उस दरिया में फेंक देने वाला है जहां से बचकर निकल आना असंभव है। ऐसे में हमें सोचना होगा कि हम किस तरह के समाज का निर्माण कर रहे हैं। बच्चों का शिक्षित होना, परीक्षाओं में उनका अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होना निश्चित रूप से अच्छी बात है। लेकिन यह सब कुछ इन दिनों बच्चों के ‘परिवार से रिश्तों‘ और ‘समाज की समझ’ की कीमत पर हो रहा है। बड़ा सवाल यह है कि हम उन्हें ‘शिक्षित’ तो बना रहे हैं पर क्या ‘सामाजिक’ भी बना रहे हैं?
पुनश्च– कहने को तो और भी बहुत सारी बातें हैं, पर यह श्रृंखला बस यहीं तक। आगे कभी मौका मिला तो इस विषय पर और बात करेंगे।