दो दिन पहले ‘ओरछा विमर्श’ की बात जारी रखते हुए मैंने अपनी बात वरिष्ठ मीडियाकर्मी अरुण त्रिपाठी द्वारा सुनाए गए एक शेर पर खत्म की थी जो कहता है-
गैरों से कहा तुमने, गैरों से सुना हमने
कुछ हमसे कहा होता, कुछ हमसे सुना होता…
दरअसल आज के मीडिया की यही स्थिति है। वह रूबरू होकर बात नहीं करता। कहीं से कही हुई और कहीं से सुनी हुई बात को परोसने का ही परिणाम है कि चीजें सच से दूर, बहुत दूर चली जा रही हैं। विकास संवाद द्वारा आयोजित ‘ओरछा विमर्श’ के दूसरे दिन यानी 19 अगस्त के दूसरे सत्र का विषय इस मायने में बहुत महत्वपूर्ण था। ‘रचा जाता सच’ विषय पर केंद्रित इस सत्र की भूमिका रखते हुए राकेश दीवान ने ठीक ही कहा कि यह ऐसा समय है जब मीडिया में सच ‘रचा’ जा रहा है। और यह रचना अलग-अलग हितों को केंद्र में रखकर की जा रही है।
वरिष्ठ पत्रकार अरविंद मोहन ने ‘मीडिया में रचा जाता सच’ पर अपनी बात रखते हुए उस ‘पोस्ट ट्रुथ’ शब्द को केंद्र में रखा जो इन दिनों बहुत चर्चित है। हिन्दी में यदि इसे समझना चाहें तो छद्म, काल्पनिक या उत्तर सत्य जैसे शब्द इसके निकट के हो सकते हैं। यह शब्द ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में भी पिछले दिनों शामिल किया गया है।
अरविंद मोहन ने कहा कि वैसे तो यह राजनीति का शब्द है लेकिन 1990 के बाद से हो रहे बदलावों में मीडिया भी ‘पोस्ट ट्रुथ’ की राजनीति का हिस्सा बन गया है। हालांकि हम ‘सत्यमेव जयते’ में विश्वास रखने का दावा करते हैं, लेकिन व्यवस्था यह मानने लगी है कि सच कुछ नहीं होता, सच वही है जिसे तंत्र बताता या दिखाता है। इस अवधारणा को संचार माध्यमों से इसलिए जोड़ा जा रहा है क्योंकि उनकी पहुंच बड़ी तेज और विस्तृत है।
उन्होंने कहा कि हमारे यहां दो मुहावरे चलते हैं- ‘हवा बनाना’ और ‘हवा बिगाड़ना’, पोस्ट ट्रुथ ठीक इन्हीं मुहावरों का इस्तेमाल कर रहा है। सचाई यह है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया कितना ही ताकतवर दिखता हो लेकिन दिन में एक या दो खबरों से ज्यादा खबरें दिखाने का उसका बूता ही नहीं है। इसीलिए वह सुबह से ही तय कर लेता है कि आज किसे गिराना है और किसे उठाना है। जबकि उससे ज्यादा ताकत तो प्रिंट मीडिया में है जो रोज 200-250 खबरें दे देता है। लेकिन अंदर से खोखला यह इलेक्ट्रानिक मीडिया ही हमें महाबली लगने लगा है। यह ‘पोस्ट ट्रुथ’ का ही प्रभाव है कि इलेक्ट्रानिक मीडिया ध्यान बंटाने के लिए ‘राधे मां’ जैसे पात्र गढ़ता है और जरूरी चीजों को दरकिनार कर देता है।
अरविंद मोहन का कहना था कि मास मीडिया का केंद्रीकरण खतरनाक है। हमें गूगल जैसी कंपनियों की पॉलिटिक्स को समझना होगा। आज दुनिया में 8-10 कंपनियां ऐसी हैं जिन्हें पता है कि कौन किस चीज से लड़ सकता है और कौन किस चीज से पट सकता है। खबर से लेकर मनोरंजन तक इन्हीं कंपनियों का कब्जा है। हमें जानना जरूरी है कि हमें नकली निष्पक्षता या नकली पक्षधरता के जाल में उलझाया जा रहा है।
‘अर्थ नीति में रचा जाता सच’ विषय पर अपनी बात रखते हुए वरिष्ठ मीडियाकर्मी अरुण त्रिपाठी ने कहा कि आज व्यवस्था के आर्थिक पक्ष के बारे में बात करना दिक्कत वाला काम है। मीडिया में आर्थिक जगत की बात लांछित करने वाला विषय बन गई है। लेकिन हमें यह सवाल तो खड़ा करना ही होगा कि हिन्दुत्व के उदय का वर्तमान आर्थिक परिदृश्य अथवा उदारीकरण से कोई लेना देना है क्या? देश में असमानता बहुत तेजी से बढ़ी है और पूरा आर्थिक परिदृश्य कृत्रिम दिखाई देने लगा है।
उन्होंने कहा कि लगता है हमारे बुद्धिजीवियों और राजनेताओं के दिमाग में भी कुछ केमिकल लोचा चल रहा है। विकास के मानकों को कमजोर कर राज्य नाम की संस्था को मजबूत किया जा रहा है। आर्थिक वृद्धि दर जैसे शब्द छलावा बनकर रह गए हैं। अर्थनीति को लेकर एक अजीब तरह का सम्मोहन व्याप्त है। आज भले ही सत्ता के शीर्ष पर ‘मनमोहन’ न हों लेकिन अर्थजगत पर ‘सम्मोहन’ का परदा जरूर डला हुआ है। दिक्कत यही है कि पिछले कई सालों से आर्थिक फैसले तटस्थ दृष्टि से नहीं लिए गए। यही कारण है कि आज हमारी अर्थ व्यवस्था ‘पवित्र’ नहीं है। अलग अलग नीतियों के ‘गंगास्नान’ के दौरान उसे कई तरह की बीमारियां लग गई हैं।
वर्धा हिन्दी विश्वविद्यालय में मीडिया के अध्यापक त्रिपाठी ने कहा कि जिन चीजों के प्रति हमें सहिष्णु होना चाहिए उनके प्रति हम असहिष्णु हैं और जिनके प्रति असहिष्णु होना चाहिए उनके प्रति सहिष्णु… ऐसा लगता है कि वैश्वीकरण के खतरे को राष्ट्रवाद के खतरे से दूर करने की कोशिश हो रही है।
इसी सिलसिले में ‘आभासी और वेब मीडिया’ में रचे जाते सच की चर्चा करते हुए वरिष्ठ पत्रकार प्रकाश हिन्दुस्तानी ने आजम खान, कन्हैया कुमार, अमित शाह, योगी आदित्यनाथ आदि से जुड़ी कई घटनाओं का हवाला देते हुए कहा कि सोशल मीडिया पर ऐसी ऐसी बातें लिखी या बताई जा रही हैं जिनका आम लोगों से कोई लेना देना नहीं है। यह हमारे संसाधनों, बुद्धिमत्ता और इंटरनेट का दुरुपयोग है। आज सारा तंत्र छवि गढ़ने में लगा है। हमने मान लिया है कि मोबाइल पर उंगली दबाने या कंट्रोल कॉपी, कंट्रोल पेस्ट करने से क्रांति आ जाएगी। लेकिन यह हमारा भ्रम है और सत्ता इस भ्रम को बनाए रखना चाहती है।
भारतीय जनसंचार संस्थान में अध्यापक डॉ. आनंद प्रधान ने ‘अकादमिक क्षेत्र में रचा जाता सच’ पर बात करते हुए कहा कि आज पॉलिसी के स्तर पर होने वाले भ्रष्टाचार के बारे में या तो हम जानते ही नहीं है या फिर उसे बड़ी आसानी से स्वीकार कर लेते हैं। ये जो कथित ‘थिंक टैंक’ हैं वे परोक्ष रूप से लाबिंग का काम करते हैं। कुछ तथ्यों को रख देना भर ही पूर्ण सत्य नहीं है। हमें समझना होगा कि सच और समाचार एक ही चीज नहीं हैं। आज पैसे लेकर रिसर्च पेपर छापे जा रहे हैं। सारी चीजों को अपने हिसाब से गढ़ा जा रहा है, जिसमें सच भी शामिल है और इससे बचने का एक ही उपाय है, जो बुद्ध ने कहा था- शंका करो…
(जारी)