मंगलवार को भोपाल में एबीपी न्यूज के कार्यक्रम ‘शिखर सम्मेलन’ में मैं भी मौजूद था। मध्यप्रदेश पर केंद्रित इस कार्यक्रम की शुरुआत मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान के साथ बातचीत से हुई थी। चूंकि वहां मौजूद कई सारे लोग मुख्यमंत्री से सवाल पूछने के लिए अपनी चिट भेज रहे थे तो मैंने भी देखादेखी एक सवाल की चिट आयोजकों तक भेज दी।
लेकिन मेरे सवाल की लाटरी उस कार्यक्रम में नहीं खुल पाई। मैं आपके साथ वो सवाल शेयर करना चाहता हूं जो मैंने चिट में लिखकर भेजा था। सवाल का संदर्भ यह है कि मुख्यमंत्री जी अपनी सरकार की तमाम जनकल्याणकारी योजनाओं को गिनाते हुए बता रहे थे कि मेरी सरकार ने प्रदेश की जनता के लिए बहुत कुछ किया है।
इसी बात को आधार बनाते हुए मैंने सवाल लिखकर भेजा था कि जब सरकार इतना सब कुछ कर रही है तो आखिर क्या वजह है कि किसानों से लेकर सरकारी कर्मचारी तक अपनी मांगों को लेकर सड़कों पर उतरे हुए हैं? चूंकि सवाल पूछा नहीं जा सका इसलिए मैं यह नहीं जान पाया कि उस पर सरकार का जवाब क्या है।
ऐसे में यदि मैं अपने सवाल का उत्तर खोजने की कोशिश करूं तो मुझे बुधवार को हुए दो प्रसंग इसका उत्तर देते नजर आते हैं। पहला प्रसंग है मुंगावली और कोलारस के उपचुनाव का परिणाम। इन उपचुनावों को कांग्रेस और भाजपा दोनों ने जीवन मरण का प्रश्न बना लिया था। पार्टियां तो खैर अपने स्तर पर लगी ही थीं लेकिन भाजपा की ओर से व्यक्तिगत रूप से मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने और कांग्रेस की ओर से सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया ने इन्हें प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया था।
अब जो परिणाम आए हैं वे कांग्रेस के पक्ष में गए हैं। इसलिए कहा जा सकता है कि कहीं न कहीं कोई असंतोष सरकार के खिलाफ पनप रहा है। चूंकि ये दोनों विधानसभा क्षेत्र पूरी तरह शहरी क्षेत्र नहीं थे, इसलिए यहां असंतोष का एक बड़ा कारण किसानों की या ग्रामीण क्षेत्र के लोगों की सरकार से नाराजी हो सकता है। इसी तरह सरकारी कर्मचारियों के अलग-अलग वर्गों में अलग-अलग कारणों से चल रही नाराजी ने इस असंतोष को और गहरा किया होगा।
तो क्या मैं यह मानूं कि वह सवाल, जो मैं पूछना चाहता था, क्या उससे जुड़े मुद्दे भाजपा सरकार के लिए मुसीबत का सबब बनते जा रहे हैं। चुनाव से चंद महीनों पहले उप चुनाव के ये परिणाम क्या कोई संकेत दे रहे हैं? क्या इन परिणामों ने उन चौगानों या कोनों का खुलासा नहीं कर दिया है जो भाजपा के लिए कमजोर हैं और जहां उसे विशेष ध्यान देने की जरूरत है।
शायद ऐसा हुआ है। और ऐसा मैं क्यों कह रहा हूं इसका खुलासा बुधवार को हुआ दूसरा प्रसंग करता है। इस दिन वित्त मंत्री जयंत मलैया ने शिवराज सरकार के इस कार्यकाल का अंतिम बजट प्रस्तुत किया। चुनाव से चंद महीनों पहले प्रस्तुत किए गए इस बजट में सरकार का फोकस और उसकी चिंताएं साफ दिखाई दे रही हैं। लग रहा है कि सरकार किसानों और सरकारी कर्मचारियों की नाराजी से वाकिफ है और चुनाव के साल में इन दोनों मोर्चों पर कोई जोखिम मोल लेना नहीं चाहती।
तभी तो जयंत मलैया के बजट में कृषि और ग्रामीण विकास के साथ साथ सरकारी कर्मचारियों को लुभाने के लिए खजाना खोल दिया गया है। कृषि और ग्रामीण क्षेत्र से जुड़े विभागों के बजट में इस बार कुल मिलाकर 73 फीसदी की बढ़ोतरी की गई है। किसान कल्याण और कृषि विभाग का जो बजट पिछले साल 4960.79 करोड़ का था उसे इस बार बढ़ाकर 9278.95 करोड़ कर दिया गया है। कुल कृषि बजट 37498 करोड़ का है।
इसी तरह नाराज कर्मचारियों को खुश करने के लिए भी सरकार ने बजट में कई घोषणाएं वित्त मंत्री से करवाई हैं। जैसे आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं, सहायिकाओं एवं उप आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को केंद्र सरकार द्वारा तय मानदेय के अलावा दी जाने वाली मानदेय राशि में बढ़ोतरी की जाएगी।
वित्त मंत्री ने कहा कि अब स्थापना अनुदान प्राप्त करने वाली स्वशासी संस्थाओं, स्व-वित्त पोषित नगरीय निकायों, निगम एवं मंडल के कर्मचारियों को भी सातवें वेतनमान का लाभ दिया जाएगा। राज्य वेतन आयोग की ऐसी सिफारिशों पर अप्रैल 2018 तक निर्णय कर लिया जाएगा जिन पर अभी अमल नहीं हुआ है। छठे केंद्रीय वेतनमान की सिफारिशों में विसंगतियों को लेकर दुखी सरकारी कर्मचारियों के आवेदनों पर विचार किया जाएगा।
मलैया ने बजट भाषण में जानकारी दी कि एक जनवरी 2016 के पूर्व सरकारी नौकरी से रिटायर होने वाले कर्मचारियों को देय पेंशन एवं परिवार पेंशन में 10 प्रतिशत की दर से वृद्धि प्रस्तावित है। इसी तरह भूमिहीन कोटवारों की मानदेय राशि में भी बढ़ोतरी का प्रस्ताव है। कॉलेजों में सेवा दे रहे अतिथि विद्वानों एवं शालाओं के अतिथि शिक्षकों के मानदेय तथा अंशकालिक सफाई कर्मचारियों, भृत्यों एवं लिपिकों के मासिक पारिश्रमिक में वृद्धि की जाएगी।
ये घोषणाएं बताती हैं कि सरकार चुनाव के साल में हर कदम फूंक फूंक कर उठा रही है। बजट के ऐलान और आश्वासन इस बात का भी प्रमाण हैं कि सरकार को इस बात का अच्छी तरह से अहसास है कि एक बड़ा वोट बैंक उससे नाराज चल रहा है। यदि यह वोट बैंक यूं ही नाराज चलता रहा तो विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा को इसका तगड़ा खमियाजा भुगतना पड़ सकता है।
बस मुझे एक बात समझ में नहीं आई कि जो सरकार सत्ता में रहने का पंद्रहवां साल पूरा करने जा रही है वह आज भी अपने कामों की तुलना 2003-04 के दिग्विजयसिंह राज से क्यों करती है। वित्त मंत्री से जब बजट पश्चात हुई प्रेस कान्फ्रेंस में यह सवाल पूछा गया तो उनका जवाब था कि हम अपने विरोधियों से ही तो तुलना करेंगे, खुद से कैसी तुलना…?
वित्त मंत्री या सरकार का दृष्टिकोण चाहे जो हो, चुनाव के साल में विरोधी को इतना ज्यादा याद करना भी ठीक नहीं… हो सकता है आंकड़ों में खुद को ऊंचा दिखाने के लिहाज से ऐसी तुलना सरकार को माफिक बैठती हो, लेकिन ध्यान रखना होगा कि लोग वोट डालते समय 15 साल पुराना इतिहास याद नहीं करेंगे, वो तो आज के हालात देखकर ईवीएम का बटन दबाएंगे, जैसा उन्होंने मुंगावली और कोलारस में किया है…
यदि ऐसा हुआ तो मानकर चलिएगा कि आपके लिए आने वाले दिन आसान नहीं हैं…बजट की तमाम घोषणाओं के बावजूद…