हाल ही में एक खबर ने मुझे चौंका दिया। आमतौर पर खबरें अब चौंकाती नहीं। या तो वे भयभीत करती हैं या फिर स्वयं के प्रति हिकारत का भाव पैदा करती हैं। अब चौंकाने वाली खबरें कम ही आती हैं। सोशल मीडिया के शुरुआती दौर में एक समय ऐसा भी था जब हर खबर पर लोग चौंक जाते थे लेकिन धीरे धीरे उनकी समझ में आ गया है कि यह वह भेडि़या है जो वास्तविक रूप में कभी नहीं आता। अलबत्ता उसका आभासी रूप ही हमें फाड़ खाए जा रहा है।
मुझे चौंकाने वाली खबर सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले से जुड़ी है। दरअसल जस्टिस दीपक गुप्ता की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने जमीन विवाद के एक मामले में पंजाब व हरियाणा हाईकोर्ट के फैसले को पलटते हुए कहा कि यदि किसी दस्तावेज की कॉर्बन कॉपी पर मूल हस्ताक्षर किए गए हैं तो उसे भी मूल कॉपी की तरह ही सबूत माना जाएगा।
हाईकोर्ट ने इस मामले में कॉर्बन कॉपी को मूल दस्तावेज की तरह वास्तविक साक्ष्य मानने से इनकार कर दिया था। जबकि सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ऐसी कॉपी भी साक्ष्य के तौर पर मान्य की जाएगी। दोनों पक्षों के हस्ताक्षर वाली उस प्रति को वास्तविक सबूत के समकक्ष ही मजबूत साक्ष्य के तौर पर स्वीकार किया जाएगा और कोर्ट उस आधार पर मामले की सुनवाई कर सकता है।
सुप्रीम कोर्ट का कहना था कि कॉर्बन कॉपी भी उसी तरह तैयार की जाती है जिस तरह मूल दस्तावेज होता है। फर्क सिर्फ इतना है कि वह मूल लिखावट के इम्प्रेशन के रूप में होती है। लेकिन यदि उस पर संबंधित पक्षों ने अपने मूल हस्ताक्षर किए हैं तो ऐसे में वह भी मूल दस्तावेज की तरह ही हो जाती है और उसकी मान्यता पर कोई सवाल नहीं उठ सकता।
आप पूछ सकते हैं कि इस खबर में चौंकने जैसा क्या है? तो चौंकने वाली बात यह है कि आज कंप्यूटर के कॉपी पेस्ट वाले युग में और किसी भी दस्तावेज की पेन ड्राइव में कॉपी लेकर उसका प्रिंट आउट ले लेने के जमाने में कॉर्बन कॉपी की बात हो रही है। बहुत संभव है कि नई पीढ़ी के कई लोगों ने तो कॉर्बन पेपर तक नहीं देखा हो। लेकिन यह खबर बरबस ही मुझे तो कम से कम 50 साल पीछे खींच ले गई।
एक जमाना था जब कॉर्बन पेपर का जलवा हुआ करता था। आज दुनिया कार्बन उत्सर्जन को लेकर हाहाकार कर रही है, लेकिन एक समय था जब इसी कॉर्बन के सूक्ष्मकणों के लेप वाला पेपर दस्तावेजों की प्रतियां तैयार करने का एकमात्र साधन हुआ करता था। यह उस समय की बात है जब फोटोकॉपी मशीनें भी ईजाद नहीं हुई थीं। तब यदि किसी दस्तावेज की एक से अधिक प्रतियां तैयार करनी होती थीं तो कागजों की तह के बीच में कॉर्बन पेपर फंसाकर या तो पूरा मजमून हाथ से लिखा जाता था या फिर इसी प्रक्रिया से टाइप किया जाता था।
मुझे याद है जब भी हमें अपनी मार्कशीट की कॉपी कहीं लगानी पड़ती तो हम कॉर्बन पेपर लगाकर उसकी तीन-चार प्रतियां बनाते। ऐसा करते समय पहले यानी मूल पन्ने पर इबारत को पेन से थोड़ा गड़ाकर लिखना पड़ता था ताकि उसका दबाव इतना बने कि कार्बन पेपर के जरिये नीचे लगे बाकी चारों पन्नों पर भी वैसा ही इम्प्रेशन आ जाए।
अहा! क्या जमाना था वो भी। एक कॉर्बन पेपर पांच पैसे का आता था और कई बार उतनी राशि जुटाना भी मुश्किल होता। ऐसे में कई बार तो बिना कॉर्बन पेपर के मार्कशीट की कॉपियां तैयार करने में घंटों लग जाते। स्केल की मदद से विषय और अंकों के वैसे के वैसे खांचे बनाना और फिर सावधानीपूर्वक सारा विवरण उसमें भरना ताकि कोई गलती न छूट जाए।
आज तो सेल्फ अटेस्टेशन का चलन हो गया है, लेकिन उस समय ऐसे दस्तावेजों को राजपत्रित अधिकारी से सत्यापित करवाना होता था और आज की पीढ़ी कल्पना नहीं कर सकती कि उस समय किसी राजपत्रित अधिकारी को खोजना और उसे मार्कशीट अटेस्ट करने के लिए राजी कर लेना कितना मुश्किल होता था।
ऐसे में अकसर कॉर्बन पेपर के जरिये पांच-सात कॉपियां बना ली जातीं और उन्हें एक बार में ही अटेस्ट करवा लिया जाता ताकि बाद में जरूरत पड़ने पर इस्तेमाल किया जा सके। ऐसा इसलिए करना पड़ता था क्योंकि पता नहीं अगली बार जरूरत पड़ने पर राजपत्रित अधिकारी मिले या न मिले। और यदि मिल भी गया तो वह हस्ताक्षर और अपने पदनाम वाली सील लगाने को राजी हो या न हो। मैंने तो वह स्थिति भी देखी है जब इस तरह के अटेस्टेशन के लिए अफसर को पैसे तक देने पड़ते थे।
आमतौर पर उन दिनों दो ही कंपनियों के कॉर्बन पेपर आया करते थे। एक कोरस और दूसरा कैमल या कैमलिन। इनमें भी कोरस को थोड़ा ऊंची क्वालिटी का माना जाता था। सरकारी दफ्तरों से निकलने वाले स्टेशनरी के कूड़े में इस्तेमाल किए हुए ऐसे कॉर्बन पेपरों की भरमार होती थी और नया कॉर्बन पेपर न खरीद सकने वाले, उस कूड़े से बीने हुए कॉर्बन पेपरों के जरिये अपना काम चलाया करते थे।
काम हो जाने के बाद कार्बन पेपर को बहुत हिफाजत के साथ रख दिया जाता ताकि इम्प्रेशन बनाने की उसकी गुणवत्ता प्रभावित न हो और अगली बार उसे फिर से इस्तेमाल किया जा सके। ऐसा करते समय बड़े लोगों की बच्चों को यह सख्त हिदायत होती थी कि कार्बन पेपर को मोड़ना नहीं है वरना वह जहां से मुड़ा है उतना हिस्सा खराब हो जाएगा और मुड़ा हुआ भाग एक काली या नीली लाइन के रूप में मजमून के साथ साथ पेपर पर उतर आएगा।
यदि आप पूछें कि एक कॉर्बन पेपर से कितने इम्प्रेशन तक लिए जा सकते थे तो इसका ठीक ठीक जवाब देना मुश्किल है। यह इस्तेमाल करने वाले के सलीके और क्षमता पर निर्भर हुआ करता था। लेकिन एक बात तय थी, वह पेपर तब तक खारिज नहीं किया जाता था जब तक कि उसकी काली चमड़ी पूरी तरह उतर न जाए। कॉर्बन लगाने का तरीका भी खास होता था। पुराने लोगों को याद होगा और कई बार उनके साथ यह हादसा हुआ भी होगा कि कॉर्बन पेपर उलटा लगा देने से मजमून का इम्प्रेशन अगले पन्ने पर उतरने के बजाय उसी पेपर की पीठ पर उतर आया हो।
सब वक्त वक्त की बात है… आज का खलनायक कॉर्बन उस समय दस्तावेजीकरण का सबसे अहम और मददगार साधन था। उसका महत्व कितना था इसका अंदाज इसी बात से लगा लीजिए कि कंप्यूटर और स्कैनिंग के इस युग में भी आप जो मेल करते हैं, उसमें जब सीसी लिखते हैं तो उसका अर्थ है कॉर्बन कॉपी, और बीसीसी यानी ब्लाइंड कॉर्बन कॉपी… मतलब कॉर्बन पेपर का इस्तेमाल भले ही न हो रहा हो पर कॉपी के लिए उसका वर्चुअल इस्तेमाल तो आप आज भी कर ही रहे हैं…