नोटबंदी पर चल रहे घमासान के बीच शुक्रवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का बयान आया कि हो हल्ला वे ही लोग मचा रहे हैं जिन्हें सरकार के इस फैसले के असर से बचने के लिए पहले से ही तैयारी कर लेने का कोई मौका नहीं मिला। मोटे तौर पर देखा जाए तो प्रधानमंत्री की बात बुनियादी रूप से ठीक है। ऐसे मामलों में पूर्व तैयारी का मौका मिलना भी नहीं चाहिए। लेकिन… कुछ मामले ऐसे हैं जो किसी भी तरह की तैयारी का मौका नहीं देते। ऐसे ही एक प्रसंग से मैं खुद पिछले दिनों रूबरू हुआ और उस दौरान हमारे पूरे परिवार को जिस पीड़ा से गुजरना पड़ा उसका अहसास जिंदगी भर बना रहेगा।
यह हमारी बदकिस्मती ही थी कि जिस 8 नवंबर की रात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हजार और पांच सौ के नोट बंद करने का ऐलान किया, उसके ठीक अगले दिन 9 नवंबर की सुबह मेरे छोटे भाई का इंदौर में आकस्मिक निधन हो गया। परिवार पर यह घटना किसी वज्राघात से कम नहीं थी। उस मानसिक संत्रास की स्थिति में भोपाल से इंदौर जाते समय कदम कदम पर नोटबंदी से उपजी परेशानियां हमारी पीड़ा को और अधिक गहरा करती चली गईं। टोल नाकों पर वाहनों की लंबी कतारों के कारण होने वाले इंतजार से लेकर रास्ते में जरूरी सामान की खरीदारी तक ने अहसास करा दिया था कि आने वाले दिनों में लोगों को किन किन मुसीबतों से दो चार होना पड़ेगा।
लेकिन नौ नवंबर की शाम हमें जिस स्थिति से गुजरना पड़ा वह तो मानो पीड़ा की पराकष्ठा ही थी। छोटे भाई का अंतिम संस्कार करने के बाद जब हमें श्मशान घाट प्रबंधन ने अंत्येष्टि सामग्री का बिल थमाया तो अहसास हुआ कि नोटबंदी जैसे फैसलों की मार कितनी गहरी हो सकती है। चूंकि परिवार में वह हादसा अचानक हुआ था इसलिए परिवार के सारे लोग अपने पास जो भी कुछ राशि रखी वही लेकर चले आए थे। जाहिर है इसमें ज्यादातर नोट पांच सौ और हजार के ही थे। श्मशान घाट पर जब हमने पांच सौ के नोट से बिल की राशि चुकानी चाही तो वहां मौजूद व्यक्ति ने उसे लेने से साफ इनकार कर दिया। उसने कहा ये नोट बंद हो गए हैं। हमने समझाने की कोशिश भी कि इस समय हम सौ और पचास के नोट कहां से लेकर आएंगे, लेकिन विश्राम घाट की व्यवस्था देखने वाले व्यक्ति का कहना था- मैं ये नोट नहीं लूंगा, आप सौ सौ के ही नोट दीजिए।
अब जरा कल्पना कीजिए कि आप अपने किसी प्रियजन का अंतिम संस्कार करने आए हों और आपको अंतिम यात्रा में शामिल होने वालों से ही अंत्येष्टि का पैसा जुटाने की नौबत आ जाए तो आप पर क्या गुजरेगी। और फिर अंतिम संस्कार में आमतौर पर लोग जेब में इतने पैसे रखकर भी नहीं जाते। न ही श्मशान घाट पर कोई क्रेडिट या डेबिट कार्ड चलाने की व्यवस्था है। खैर जैसे तैसे हमने वहां का भुगतान तो कर दिया, लेकिन क्या कोई इस तरह का वाकया कभी भूल पाएगा?
पिछले 15 दिनों में हमें कदम कदम पर ऐसी स्थितियों का सामना करना पड़ा। परिवार में गमी हो और बैंक में पैसा होने के बावजूद आप उसके लिए खुद को मोहताज महसूस करें इस पीड़ा का अहसास उसे ही हो सकता है जिसने इसे भुगता हो। मीडिया से लेकर सरकार के स्तर तक इस बात की तो चर्चा हो रही है कि जिन घरों में शादी ब्याह है उनके लिए बैंक खातों से निकासी की विशेष व्यवस्था हो, लेकिन इस बात पर कोई ध्यान नहीं दे रहा कि जिन घरों में किसी का देहावसान हो गया है उन्हें भी पैसों की तत्काल जरूरत है। बल्कि उनकी जरूरत तो शादी ब्याह वाले घरों से भी ज्यादा है। इसीलिए मुझे गुरुवार को पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह की ओर से कही गई यह बात सौ फीसदी सही लगी कि लोग बैंकों में जमा अपना ही पैसा न निकाल पाएं यह कैसा फैसला और यह कैसी व्यवस्था है?अपने परिवार की तमाम पीड़ाओं के बावजूद मैं इस बात से सहमत हूं कि कालेधन पर प्रभावी रोक लगनी चाहिए। लेकिन कालेधन को रोकने के उपाय करने वाला कोई भी फैसला ऐसा प्रभावी मैकेनिज्म भी मांगता है जिसमें किसी व्यक्ति को अपने प्रियजन के अंतिम संस्कार के समय तो कम से कम ऐसी पीड़ादायक स्थिति से न गुजरना पड़े।
ऐसे में नोटबंदी से उपजी मुसीबतों और पीड़ाओं से गुजर रहे लोगों के कष्टों पर विपक्ष की आलोचना का जवाब देते हुए प्रधानमंत्री ने जब यह कहा कि नोटबंदी पर हल्ला ऐसे लोग मचा रहे हैं जिन्हें पहले से तैयारी करने का मौका नहीं मिला, तो बरबस यह पूछने को मन हुआ कि प्रधानमंत्रीजी, जिनको तैयारी करनी थी उन्होंने तो शायद बहुत पहले कर ली होगी, उनकी तैयारी भी इतनी पुख्ता होगी कि नोटबंदी की तमाम मियाद निकलने के बाद भी उनके (काले) धन का एक पैसा भी बरबाद न हो। लेकिन ऐसी तैयारी लोग कैसे व क्या सोच कर करें कि उनका कोई प्रियजन उनसे अमुक तारीख को बिछुड़ जाएगा और उसके अंतिम संस्कार के समय, जेब में पैसा होने के बावजूद, वे उसकी अंत्येष्टि का खर्च उठाने तक की स्थिति में नहीं होंगे।