नोबल-कथा -1
इन दिनों दुनिया में भारत के अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी, उनकी फ्रांसीसी पत्नी एस्थर डुफ्लो और एक अन्य अमेरिकी अर्थशास्त्री माइकल क्रेमर को अर्थविज्ञान (नोबल फाउण्डेशन ‘इकानॉमिक साइंस’ शब्द का ही इस्तेमाल करता है) का इस वर्ष का नोबल सम्मान दिए जाने की चर्चा चल रही है। सामान्य दृष्टि से देखें तो निश्चित ही किसी देश के व्यक्ति को नोबल सम्मान मिलना उस देश के लिए बड़े फख्र की बात है। खासतौर से भारत जैसे देश के लिए जहां, बौद्धिक और अकादमिक जगत कई सालों से अपनी मान्यताओं, धारणाओं, स्थापनाओं और विचारों को लेकर आपस में ही उलझता आ रहा है।
ऐसे में हम अभिजीत बनर्जी को मिले नोबल सम्मान को किस नजरिये से देखें? तय है कि ‘अनेकता में एकता’ को अपनी विशिष्टता मानने वाले भारत में इस सम्मान को लेकर प्रतिक्रियाओं में भी विविधता दिखाई देगी। और वैसा हुआ भी है। पर दूसरों की बात करने से पहले मैं चाहूंगा कि इस सम्मान पर मीडिया की प्रतिक्रिया को लेकर ही बात शुरू हो। चूंकि मैं किसी महानगर या महान वैचारिक और बौद्धिक स्थापत्य वाले शहर से नहीं आता, इसलिए यह बात मैं अपने शहर भोपाल के संदर्भ में ही कहूंगा।
भोपाल को आप एक औसत भारतीय मानस वाला शहर कह सकते हैं। यह मध्यप्रदेश की राजधानी जरूर है लेकिन यह वैसी राजधानी भी नहीं है जैसी मुंबई, चेन्नई, हैदराबाद, बेंगलुरू आदि हैं। दिल्ली की तो बात ही छोड़ दीजिए। इतना ही नहीं भोपाल शहर जरूर है लेकिन यह वैसा शहर भी नहीं है जैसा जयपुर, अहमदाबाद, पुणे, नागपुर, चंडीगढ़ आदि हैं। यानी यह एक बड़े शहर में तब्दील हो रहा छोटा शहर है जहां अमीरी और आधुनिकता ने अभी पूरी तरह पैर नहीं पसारे हैं और न ही इसने अभी गरीबी और गुरबत से पूरी तरह नाता तोड़ा है।
इसलिए ‘गरीबी हटाने’ की प्रयोगधर्मी अवधारणा को लेकर इस बार का जो नोबल सम्मान दिया गया है, उस पर भारतीय मानस की प्रतिक्रिया जानने के लिहाज से भोपाल मुफीद शहर है। अब जरा 15 अक्टूबर 2019 के अखबार, खासतौर से हिन्दी अखबार उठाकर देखिये, जिस दिन मीडिया में अभिजीत बैनर्जी व अन्यों को अर्थविज्ञान का नोबल मिलने की खबरें छपीं। शहर के बड़े और प्रमुख हिन्दी अखबारों में इस खबर के साथ हुआ व्यवहार ही बता देता है कि हमारी नजरों में इस ‘नोबल सम्मान’ की अहमियत और हैसियत या औकात क्या है।
भोपाल के तीन प्रमुख और सर्वाधिक पढ़े जाने वाले अखबारों में से पहले दो अखबारों में, एक भारतीय को अर्थशास्त्र का नोबल मिलने की खबर पहले पन्ने की खबर नहीं है। एक ने इसे तीसरे नंबर के पेज पर छापा है तो दूसरे ने देश विदेश की खबरों वाले 17वें पेज पर। तीसरे के पास इन दिनों प्रचलित परंपरा के अनुसार पहला पन्ना विज्ञापन जैकेट के लिए आरक्षित था इसलिए वहां कहने को भले ही यह खबर पहले पेज की कही जाए, लेकिन व्यावहारिक तौर पर वह है तीसरे नंबर के पन्ने पर। और वहां भी यह लीड खबर या टॉप बॉक्स के रूप में नहीं है, बल्कि सबसे नीचे पैंदे में छापी गई है।
आप पूछ सकते हैं कि इन सब बातों का जिक्र करके आखिर मैं कहना क्या चाहता हूं? तो मैं सिर्फ इतना बताना चाहता हूं कि इसे, ऐसे सम्मानों के प्रति हमारे मीडिया की समझ कह लीजिए या फिर कुछ सालों में बदले भारत के मानस का प्रतिबिंब, कि अब एक भारतीय को ‘नोबल सम्मान’ मिलने की खबर भी इतनी अहमियत नहीं रख रही कि वह पहले पन्ने पर प्रमुखता के साथ प्रकाशित हो सके। कल्पना कीजिए, खबर यदि भारत के ‘क्रिकेट वर्ल्ड कप’ जीतने से जुड़ी होती तो भी क्या उसके साथ ऐसा ही व्यवहार होता?
जरूरी नहीं कि इसमें आप मीडिया का ही दोष ढूंढें। कहा तो यह जाता है कि मीडिया की समाज पर पकड़ होती है और वह समाज की धड़कन को ही प्रतिबिंबित करता है तो इसका मतलब यह भी लिया जा सकता है कि एक औसत भारतीय मानस वाले शहर के लोगों के लिए, गरीबी मिटाने के उपायों को लेकर, एक भारतीय को दिया गया नोबल सम्मान, वैसी खबर नहीं है जिसे पहले पन्ने पर पूरी प्रमुखता और महत्व के साथ लीड खबर के रूप में प्रकाशित किया जाए। और इस बात को आप किसी खबर के प्लेसमेंट के लिहाज से ही न देखें, बल्कि इस बात पर भी विचार करें कि हमारे लिए खबरगत और विचारगत प्राथमिकता एवं अहमियत के विषय क्या होते जा रहे हैं?
सवाल उठाया जा सकता है कि आखिर ऐसा क्यूं हुआ होगा? ऐसे में दो ही सूरत नजर आती है। पहली तो यह कि संबंधित अखबारों के संपादकीय विवेक के अनुसार इस खबर की अहमियत न हो या फिर उस अखबार के संचालक समूह ने इस बारे में कोई नीतिगत फैसला किया हो कि इस खबर को उतनी प्रमुखता नहीं दी जानी है। कारण चाहे जो भी हो लेकिन ये दोनों ही स्थितियां मीडिया के लिए खतरनाक हैं। सोचिये कि मीडिया कैसे, कहां से और किसके द्वारा संचालित हो रहा है?
अब यदि यह किसी ‘नीतिगत निर्णय’ के चलते हुआ है तो क्या उसे सोशल मीडिया पर चल रही इस चर्चा से जोड़कर देखा जाए कि सम्मान पाने वाले अभिजीत बनर्जी वामपंथियों का गढ़ माने जाने वाले जेएनयू से जुड़े रहे हैं। हालांकि मुझे नहीं लगता कि कहीं से ऐसा कोई ‘दबाव’ या ‘सुझाव’ आया होगा। संभवत: यह घटना मीडिया में इन दिनों अंग्रेजी कहावत ‘मोर लॉयल देन किंग’ वाले मुहावरे को चरितार्थ करने की होड़ की तरफ ज्यादा इशारा करती है। रवीश कुमार को मेगसेसे पुरस्कार मिलने संबंधी खबरों के प्रकाशन और प्रसारण के समय भी ऐसा ही दिखाई दिया था।
ऐसे व्यवहार के पीछे इसके अलावा भी कुछ और कारण हो सकते हैं। जैसे या तो मीडिया मानता है कि अब इन सम्मानों की वैसी प्रतिष्ठा और साख नहीं रह गई है या फिर वह यह समझता है कि जिन्हें ये सम्मान दिए जा रहे हैं वे इसके पात्र नहीं हैं या फिर इन सम्मानों को दिए जाने के पीछे की राजनीति और कारणों ने इनके प्रति मीडिया का मोहभंग किया हो… जो भी हो यह स्वस्थ माहौल का संकेत तो नहीं ही है…
ये तो हुआ मामले का एक पक्ष…