कहा जाता है कि कालजयी रचनाएं कभी नहीं मरतीं। आप मनुष्य को तो मार सकते हैं लेकिन उसके विचार को नहीं। इतिहासकार बताते हैं कि बाहरी आक्रांताओं ने इसीलिए भारत की बौद्धिक संपदा को संरक्षित रखने वाले ग्रंथों और कृतियों को व्यापक पैमाने पर नष्ट करने का काम किया था। वे मानते थे कि भारत को ज्ञान से लेकर धन संपदा तक में समृद्धि और संपन्नता की ऊंचाइयों तक पहुंचाने के पीछे इन्हीं ग्रंथों का योगदान है और यदि इन्हें नष्ट कर दिया जाए तो भारत को कमजोर किया जा सकता है।
खैर उसके बाद जो हुआ, वह हमारे जो भी है, जैसा भी है, इतिहास में दर्ज है। पर ऐसा नहीं है कि कालजयी रचनाएं सिर्फ भारत में ही रची गईं। दुनिया भर में सृजनधर्मियों ने ऐसी कई रचनाएं और कृतियां गढ़ी हैं जो उनके रचयिता और सृजनकर्ता के अवसान के सैकड़ों वर्षों बाद भी अपना वजूद और अपनी अहमियत दोनों बनाए हुए हैं। ऐसी ही एक कालजयी रचना रूसी लेखक लियो टॉल्सटॉय की है जिसका नाम है- ‘वॉर एंड पीस।‘
1869 यानी आज से 150 साल पहले लिखी गई यह किताब इन दिनों भारत के मीडिया जगत में चर्चा में है। चर्चा में क्या है, भाई लोगों की मेहरबानी से इसकी फजीहत हो रही है। किस्सा यह है कि महाराष्ट्र के भीमा कोरेगांव में हुई हिंसा को लेकर चल रहे मुकदमे के संदर्भ में बाम्बे हाईकोर्ट में सुनवाई चल रही है। हाईकोर्ट के जज सारंग कोतवाल जनवरी 2018 में पुणे के निकट भीमा कोरेगांव में हुई हिंसा के सिलसिले में गिरफ्तार किए गए वर्नान गोंसाल्विस, सुधा भारद्वाज और अरुण फरेरिया आदि की जमानत अर्जियों पर सुनवाई कर रहे हैं।
28 अगस्त को कोर्ट में सुनवाई के दौरान अदालत ने वर्नान गोंसाल्विस से, पुलिस द्वारा उनके घर से बरामद सामग्री को लेकर पूछताछ की। इसी दौरान ‘वॉर एंड पीस’ का भी जिक्र आया। मीडिया में इस सुनवाई की जो रिपोर्टिंग हुई उसमें कहा गया कि जज साहब ने गोंसाल्विस से पूछा कि आखिर ‘वॉर एंड पीस’ जैसी किताब उनके यहां क्यों है? अदालत में जिक्र आया या नहीं लेकिन जो रिपोर्ट हुआ, उससे यह ध्वनि निकली कि जज साहब ने लियो टॉल्सटॉय की किताब ‘वॉर एंड पीस’ को गोंसाल्विस के घर रखने पर ‘आपत्ति’ की।
और जैसाकि इन दिनों आंख मूंदकर खबरों पर लट्ठ चलाने का चलन है, भाई लोग पिल पड़े। सोशल मीडिया पर जो भी, जहां भी मौजूद था, उसे भड़ास निकालने का मौका मिला और हरेक ने जज को जाने क्या क्या कहते हुए ऐसा लताड़ा कि पूछिये मत। किसी ने उनकी बुद्धि पर सवाल उठाए तो किसी ने उनकी निष्ठा और वैचारिक संबद्धता पर। जाहिर है यह मौका सरकार को लपेटने का भी सबब बना और लोगों ने सरकार से सवाल पूछने शुरू कर दिए कि हमारे पास फलां फलां किताब है, क्या करें? कोई जानना चाह रहा था कि इन किताबो जला दें या गाड़ दें और किसी ने पूछा कि मैंने फलां किताब पढ़ रखी है पुलिस मुझे कब उठाने आएगी?
पूरे जमाने में अपनी थू-थू होने के बाद आखिरकार जज साहब को सार्वजनिक रूप से यह सफाई देनी पड़ी कि भैया मैंने जिस ‘वॉर एंड पीस’ का जिक्र किया वो लियो टॉल्सटॉय वाली नहीं, इसी नाम से लिखी गई दूसरी किताब ‘वॉर एंड पीस इन जंगलमहल: पीपुल,स्टेट एंड माओइस्ट’है जिसके लेखक/संपादक वरिष्ठ पत्रकार विश्वजीत रॉय हैं। जज बोले- ”मुझे पता है कि टॉल्सटॉय की ‘वॉर एंड पीस’ एक उत्कृष्ट साहित्यिक कृति है। मैं आरोप पत्र के साथ संलग्न पंचनामा से समूची सूची को पढ़ रहा था। यह बहुत ही खराब लिखावट में लिखी गई थी। मैं ‘वॉर एंड पीस’ के बारे में जानता हूं और मैं यह सवाल कर रहा था कि गोंसाल्विस ने इन किताबों की प्रति क्यों रखी, लेकिन मेरा आशय यह नहीं था कि ऐसा करना आपत्तिजनक है।‘’
सिर्फ जज साहब ने ही ऐसी सफाई दी हो यह बात भी नहीं है। मामले में सह-आरोपी सुधा भारद्वाज के वकील युग चौधरी ने भी इस बात की पुष्टि की कि 28 अगस्त को अदालत विश्वजीत रॉय द्वारा लिखी गई किताब का जिक्र कर रही थी, न कि टॉल्सटॉय द्वारा लिखी गई किताब का। उनके अनुसार न्यायाधीश ने कहा, ”युद्ध तथा अन्य शीर्षकों से संबंधित बहुत से संदर्भ हैं। मैंने ‘वॉर एंड पीस’ का जिक्र करने से पहले ‘राज्य दमन’ (एक अन्य किताब) का जिक्र किया। क्या कोई न्यायाधीश अदालत में सवाल नहीं पूछ सकता?’’
अब जरा यह भी जान लीजिए कि जिस दूसरी ‘वार एंड पीस’ का जिक्र किया गया उसमें है क्या? इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी के मुताबिक यह किताब माओवादियों और सरकार के संबंधों और उनकी गतिविधियों से संबंधित जाने-माने कार्यकर्ताओं और शिक्षाविदों के लेखों का संग्रह है। इसका प्रकाशन कोलकाता की सेतु प्रकाशनी ने 2012 में किया। इसमें सरकार की विकास नीतियों, राजनीतिक दलों और माओवादियों की कारगुजारियों के संदर्भ में विफल शांति पहलों की पड़ताल पर केंद्रित सामग्री है। न्यायाधीश की कथित टिप्पणी पर टि्वटर पर हजारों प्रतिक्रियाएं आईं। दिनभर हैशटैग # वॉर एंड पीस सोशल मीडिया पर ट्रेंड करता रहा।
अब हालत यह है कि हाईकोर्ट जज की सफाई के बाद भी सोशल मीडिया वारियर्स इस मुद्दे को छोड़ने को तैयार नहीं हैं। चूंकि बहुत से लोगों ने सिर्फ इसी काम के लिए सोशल मीडिया पर अवतार लिया है इसलिए ऐसे लोगों के बारे में मुझे कुछ नहीं कहना। सिर्फ ईश्वर से प्रार्थना करना है कि उन्हें सही और गलत की पहचान करने की सद्बुद्धि दे। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि आखिर हमें इतनी जल्दी क्या पड़ी रहती है किसी भी बात पर प्रतिक्रिया देने की। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि प्रतिक्रिया न दें तो कुछ लोग शायद जिंदा ही न बचें, उनकी सांसें रुक जाएं। वैसे यह घटना इस बात का भी नमूना है कि आजकल मीडिया में कैसी रिपोर्टिंग हो रही है और किस तरह अर्थ का अनर्थ किया जा रहा है।
यह समय थोड़ा धैर्य रखने का है। कहावत पुरानी है पर याद रखने वाली है कि ‘तेल देखो, तेल की धार देखो’ लेकिन आजकल लोगों ने इसे बदलकर ‘तेल का कुआं देखो, कुएं की गहराई देखो’ कर दिया है। ऐसे में डूबने का खतरा तो हमेशा बना रहेगा। रही बात ‘वॉर एंड पीस’ की तो हर बात को ‘बिट्स एंड पीसेस’ में ग्रहण करने वाले इन दिनों ‘वॉर’ पर ही मोहित हैं। और जब ‘युद्ध’ ही लक्ष्य हो तो कैसी शांति की बात और कैसा शांति का जिक्र….???