परीक्षा पद्धति में बदलाव ने आसान की सौ फीसदी की राह?

मेरिट लिस्‍ट में करीब-करीब शत प्रतिशत नंबर की ओर बढ़ते छात्रों और उनके भविष्‍य पर बात करने से पहले आइए पहले ये समझें कि इतने सारे नंबर आते कैसे हैं? आज की जनरेशन के लिए इतने सारे अंक पाना हंसी खेल की तरह हो गया हो, लेकिन वह पीढ़ी जिसने अपनी जिंदगी में 60 फीसदी यानी प्रथम श्रेणी में उत्‍तीर्ण होने को ही पहाड़ जैसा समझा वह इन अंकों पर न सिर्फ ताज्‍जुब करती है, बल्कि ताज्‍जुब से ज्‍यादा उसे इतने सारे झोली भर अंकों पर संदेह भी होता है।
परीक्षाओं में ऐसा कैसे हो रहा है उसको लेकर मैंने केंद्रीय विद्यालय संगठन में वर्षों से काम कर रहे और इन दिनों एक महत्‍वपूर्ण केंद्रीय विद्यालय में प्राचार्य का पद संभाल रहे अपने परिचित शिक्षक से बात की। मैंने उनसे वैसे तो कई सारे सवाल पूछे लेकिन मुख्‍य रूप से मेरी जिज्ञासा यह जानने में थी कि विज्ञान और गणित आदि विषयों में तो शत प्रतिशत अंक लाना फिर भी संभव है लेकिन मानविकी में ऐसा कैसे संभव हो पा रहा है। और यह भी कि मानविकी विषयों के प्रति रुझान क्‍या किसी खास कारण से है?
केवी के प्राचार्य का जवाब था- इसके लिए एक नहीं अनेक कारण जिम्‍मेदार हैं। पिछले छ: सात सालों में एक ट्रेंड तो यह बदला है कि मेडिकल और इंजीनियरिंग की पढ़ाई महंगी होने, उसमें काफी समय लगने और उसके बाद भी भविष्‍य सुनिश्चित न होने की आशंकाओं ने छात्रों को मानविकी विषयों की ओर मोड़ा। अब कॉरपोरेट घरानों और बहुराष्‍ट्रीय कंपनियों में जिस तरह का सैलेरी स्‍ट्रक्‍चर या पैकेज है उसने भी युवाओं को ऐसे विषय चुनने के प्रति आकर्षित किया जिसके आधार पर वे बड़ा पैकेज हासिल कर सकें।
दूसरा बड़ा कारण निजी नौकरियों में बनी रहनी वाली अनिश्चितता के चलते सरकारी नौकरी के प्रति एक बार फिर बढ़ता झुकाव है। खासतौर से बच्‍चे अब सिविल सेवाओं की ओर ज्‍यादा आकर्षित हो रहे हैं। क्‍योंकि उनमें पैसा भी है और रुतबा भी। ऐसी अखिल भारतीय परीक्षाओं में करीब 40 प्रतिशत प्रश्‍न मानविकी विषयों से जुड़े होते हैं ऐसे में इन विषयों को लेकर पढ़ने वाले छात्रों को फायदा मिलता है।
एक और महत्‍वपूर्ण कारण भाषा का है। आज भी बहुत सारे छात्र अंग्रेजी माध्‍यम की पढ़ाई में खुद को असहज पाते हैं। विज्ञान और उससे जुड़े विषयों की पढ़ाई ज्‍यादातर अंग्रेजी में ही होती है। इसलिए वे छात्र जो पढ़ने में ठीक हैं वे अपनी प्रतिभा के बावजूद वहां पिछड़ जाते हैं। जबकि मानविकी विषयों को हिंदी माध्‍यम से अच्‍छी तरह पढ़ा और समझा जा सकता है। परीक्षा के दौरान छात्र अपनी भाषा होने के कारण स्‍वयं को बेहतर तरीके से अभिव्‍यक्‍त कर पाते हैं।
इसके अलावा पढ़ाई के तौर तरीकों और परीक्षा प्रणाली में आए अहम बदलाव भी बढ़ते नंबरों का प्रमुख कारण हैं। सबसे बड़ी बात सीबीएसई का यह मानस है कि पेपर अपेक्षाकृत सरल हों और उत्‍तरपुस्तिकाओं का मूल्‍यांकन भी उदार तरीके से किया जाए। इसके पीछे परीक्षाओं में असफल होने वाले छात्रों की बढ़ती आत्‍महत्‍याएं एक बड़ा कारण हैं। पूरे शिक्षा जगत में ऐसी मौतों को लेकर गहरी चिंता है और इसीके चलते परीक्षा और मूल्‍यांकन दोनों के तरीकों को सरल बनाया गया है।
उन्‍होंने कहा कि आप जिस जमाने की बात कर रहे हैं उस जमाने में बच्‍चों को गाइड करने के संसाधन भी उतने नहीं हुआ करते थे। आज बच्‍चों के लिए कोचिंग के अलावा इफरात से रीडिंग मटेरियल और अन्‍य कई टूल्‍स उपलब्‍ध हैं जो उन्‍हें परीक्षा में अधिक से अधिक सफल होने के लिए सक्षम बनाते हैं। छात्रों के लिए मॉडल प्रश्‍न पत्र जैसी सुविधाएं उपलब्‍ध हैं। हम खुद दसवीं और 12वीं के छात्रों को कम से कम पांच-पांच प्रश्‍नपत्रों के सेट हल करवाकर देखते हैं।
प्रश्‍नपत्रों का पैटर्न भी बदला है। अब 20-20 नंबर के पांच प्रश्‍न पूछे जाने के बजाय 30 से अधिक सवाल पूछे जाते हैं। ये ज्‍यादातर आब्‍जेक्टिव टाइप होते हैं। इन प्रश्‍नों के अधिकतम नंबर ही दो या तीन होते हैं। थोड़ा विस्‍तार से लिखे जाने वाले प्रश्‍न भी ज्‍यादा से ज्‍यादा चार या पांच नंबर के होते हैं। ऐसे में परीक्षार्थी यदि सटीक उत्‍तर देता है तो उसे पूरे में से पूरे अंक देने ही पड़ते हैं।
एक और बात उन्‍होंने बताई कि अब सीबीएसई फिजिकल वेल्‍यूएशन को धीरे धीरे खत्‍म कर रहा है। कई कॉपियां स्‍कैन करके परीक्षकों को ऑनलाइन भेजी जाती हैं और वे ऑनलाइन ही मूल्‍यांकन कर नंबर देते हैं। यह मूल्‍यांकन बहुत वस्‍तुपरक होता है और इसमें मूल्‍यांकनकर्ता के विवेकाधिकार के हिसाब से नंबर देने की गुंजाइश बहुत कम होती है।
उन्‍होंने यह भी जानकारी दी कि कुछ सालों से मेरिट छात्रों की उत्‍तरपुस्तिकाएं सीबीएसई ऑनलाइन उपलब्‍ध करा रहा है ताकि बाकी छात्र भी जान सकें कि जिन छात्र-छात्राओं ने 100 में से 100 अंक प्राप्‍त किए हैं आखिर उन्‍होंने प्रश्‍नों के उत्‍तर किस प्रकार दिए। इस प्रैक्टिस के दो पहलू हैं, पहला तो यह कि मेरिट में आने वाले छात्रों की प्रतिभा पर कोई संदेह न रहे और दूसरा यह कि भविष्‍य में इन परीक्षाओं की तैयारी करने वाले छात्र उत्‍तर लिखने के ऐसे तरीके सीख सकें कि उन्‍हें भी अधिकतम अंक प्राप्‍त हों।
इतनी सारी बातें जानने के बाद मुझे लगा कि परीक्षा पद्धति में बदलाव का ही नतीजा रहा होगा कि इस बार 10वीं और 12वीं में तिरुवनंतपुरम रीजन का परिणाम क्रमश: 99.6 और 97.32 रहा। यानी वहां दसवीं में सौ में से एक से भी कम और बारहवीं में तीन से भी कम विद्यार्थी असफल रहे। कोई आश्‍चर्य नहीं होगा कि आने वाले वर्षों में तिरुवनंतपुरम रीजन का परिणाम शत प्रतिशत रहे।
लेकिन केवी प्राचार्य द्वारा दी गई इन जानकारियों ने कई मामलों में मेरी शंकाओं का समाधान किया तो कई नए सवाल भी खड़े कर दिए।
कल पढ़ें- वे कौनसे सवाल हैं जिनके जवाब मिलना जरूरी हैं।

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