जो कहना है अभी कह लें ताकि बाद में सनद तो रहे

स्‍वामी विवेकानंद ने कहा था ”शिक्षा का मतलब यह नहीं है कि तुम्हारे दिमाग में ऐसी बहुत सी बातें इस तरह ठूँस दी जाएँ कि अंतर्द्वंद्व होने लगे और तुम्हारा दिमाग उन्हें जीवन भर पचा न सकें। जिस शिक्षा से हम अपना जीवन निर्माण कर सकें, मनुष्य बन सकें, चरित्र गठन कर सकें और विचारों का सामंजस्य कर सकें, वही वास्तव में शिक्षा कहलाने योग्य है। यदि तुम पाँच ही भावों को पचाकर तदनुसार जीवन और चरित्र गठित कर सकते हो, तो तुम्हारी शिक्षा उस आदमी की अपेक्षा बहुत अधिक है, जिसने एक पूरे पुस्तकालय को कंठस्थ कर रखा है। यदि बहुत तरह की जानकारियों का संचय करना ही शिक्षा है, तब तो ये पुस्तकालय संसार में सर्वश्रेष्ठ मुनि और विश्वकोश ही ऋषि हैं।”

स्‍वामी जी आज मुझे इसलिए याद आए क्‍योंकि उनकी कही हुई इस बात के करीब सवा सौ साल बाद उनका भारत आज उस दिशा में सोचने का उपक्रम कर रहा है। स्‍वामीजी उसे ही शिक्षा मानते थे जो व्‍यक्ति को अच्‍छा इंसान बना सके और जीवनमूल्‍यों को सिखाते हुए उसके व्‍यक्तित्‍व का विकास करे।

शिक्षा हमारे यहां व्‍यक्ति और समाज के विकास और परिष्‍कार का साधन कम और राजनीतिक का साधन ज्‍यादा रही है। शिक्षा में सुधार की बातें तो बहुत हुईं, समय समय पर कई आयोग भी शिक्षा में सुधार के लिए गठित किए गए, लेकिन अंतत: उनके निष्‍कर्ष और सिफारिशें राजनीति की अंधेरी कोठरियों में कैद होकर रह गईं। यह भी हुआ कि एक से दूसरी राजनीतिक विचारधारा वाली सरकारों के आने पर शिक्षा का पुराना ढांचा ही बदल देने की कोशिशों (या साजिशें) हुईं।

शायद यही कारण है कि हम आज भी भाषा के मामले से लेकर इतिहास के मुद्दों तक में एकराय नहीं हैं। यह ठीक है कि भारत अनेकता में एकता की धारणा का प्रतिनिधित्‍व करने वाला देश है लेकिन हमने एक राष्‍ट्र के रूप में अपनी शिक्षा की अवधारणा और शिक्षा के ढांचे को भी अनेकता में ही बिखराए रखने की साजिशें रचीं। कभी कोशिश ही नहीं हुई कि शिक्षा के मामले में तो कम से कम यह देश एकरूपता रखे।

आज हम अपने सामाजिक और आर्थिक ढांचे में जो विसंगतियां और असमानताएं देख रहे हैं उसका एक बड़ा कारण यह है कि हमने शिक्षा का एक समग्र ढांचा विकसित ही नहीं होने दिया। कभी राजनीतिक कारणों से तो कभी सामाजिक और आर्थिक कारणों से। आजादी के बाद बुनियादी तालीम की बात हुई लेकिन उसकी बुनियाद भी ठीक से डल पाती इससे पहले ही वह अवधारणा खारिज कर दी गई।

शिक्षा एनडीए सरकारों के एजेंडे में महत्‍वपूर्ण स्‍थान रखती आई है। खासतौर से भारतीय जनता पार्टी जिस विचारधारा को लेकर आगे बढ़ी है उसका मत रहा है कि वर्तमान शिक्षा पद्धति ने देश की कई पीढि़यों को भारत के ‘वास्‍तविक’ इतिहास से काटकर रखा है। आरोप यह है कि जो सांस्‍कृतिक वैभव और गौरव भारत कभी धारण किया करता था, कांग्रेस की कथित नीतियों ने देश की जनता को उस  ‘गौरवशाली अतीत’ से दूर रखने की साजिश की।

अब नरेंद्र मोदी के नेतृत्‍व वाली एनडीए सरकार ने पहली से आठवीं कक्षा तक के बच्‍चों के पाठ्यक्रम में आमूलचूल परिवर्तन करने की ओर कदम बढ़ाया है। मीडिया में हाल ही में ये खबरें प्रमुखता से छपी हैं कि सरकार ने इस उद्देश्‍य से एक ‘लर्निंग आउटकम’ दस्‍तावेज एनसीईआरटी से तैयार करवाया है। दो साल से चल रहे मंथन के बाद तैयार इस दस्‍तावेज के बारे में मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने बताया कि 2019-20 के शैक्षणिक सत्र से बच्‍चों के बस्‍ते का बोझ भी इसके जरिये कम हो जाएगा।

इस दस्‍तावेज के मुताबिक सामाजिक विज्ञान की आठवीं कक्षा में पढ़ाया जाएगा कि ईस्ट इंडिया कंपनी अपने आर्थिक हितों को साधते हुए कैसे देश पर काबिज हो गई। संबंधित पाठ में कंपनी के कारोबार का ब्‍योरा देने के बजाय यह बताया जाएगा कि कैसे उसने भारत के खिलाफ आर्थिक षड्यंत्र रचा। महात्मा गांधी के चंपारण सत्याग्रह को पढ़ाने के साथ ही यह भी बताया जाएगा कि कैसे नील की खेती की नीति के जरिये अंग्रेजों ने भारतीय कृषि अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ दी।

बच्चों को गणित समझाने के लिए कक्षा एक में 20 रुपए तक की नकली मु्द्राओं के जरिए गिनती सिखाई जाएगी। यह मुद्रा वह होगी जिसे बच्‍चे खेलने में इस्‍तेमाल करते हैं। विभिन्‍न आकार समझाने के लिए घर में मौजूद चीजों को माध्‍यम बनाया जाएगा। कक्षा आठवीं में जीएसटी के जरिए ब्याज का गणित समझाया जाएगा। विज्ञान को घर से समझाने के लिए 8वीं के बच्चों को पढ़ाया जाएगा कि अचार में नमक और मुरब्बे में शक्कर क्यों डाली जाती है।

पर्यावरण की किताब में कक्षा तीन में ही बच्चों को अच्छे-बुरे स्पर्श का फर्क समझाया जाएगा। सामाजिक विज्ञान और भाषाओं जैसे हिंदी, अंग्रेजी और उर्दू के पाठ्यक्रमों को इस तरह बनाया जाएगा ताकि वे नैतिक शिक्षा तो दें ही, साथ ही उनमें समसामयिक घटनाओं और बिंबों का इस्तेमाल भी हो। इतिहास को भी इस तरह पढ़ाया जाएगा कि वह युद्धों के वर्णन और तारीखों को रटने तक सीमित न रहे।

कक्षा सातवीं में सल्तनत काल की इकलौती महिला शासक रजिया सुल्तान और मुगल बादशाह अकबर के जीवन को न सिर्फ पाठ्यक्रम में बरकरार रखा जाएगा बल्कि उनके बारे में नाटक तैयार कर उसके जरिये बच्चों को जानकारी दी जाएगी। बच्चों को धर्मों के बुनियादी मूल्‍य समझाने के लिए उन्हें भजन, कीर्तन, कव्वाली सुनाने के इरादे से धार्मिक स्थलों पर ले जाया जाएगा।

सरकार द्वारा तैयार करवाया जा रहा नया सिलेबस कैसा होगा यह तो उसका अंतिम प्रकाशन होने के बाद ही पता चलेगा। लेकिन उम्‍मीद की जानी चाहिए कि शिक्षा के स्‍वरूप और ढांचे में किए जाने वाले ये परिवर्तन किसी नए विवाद का कारण नहीं बनेंगे। न शिक्षा के क्षेत्र में और न ही राजनीति के क्षेत्र में…। सबसे बड़ी बात तो यह देखने की होगी कि क्‍या यह नया सिलेबस बच्‍चों को बेहतर और नेक इंसान बनाने में कोई मदद करता है या नहीं, जैसा कि स्‍वामी विवेकानंद ने चाहा था…।

एक महत्‍वपूर्ण मुद्दा इस मामले में समाज की सार्थक और सक्रिय भागीदारी का भी है। खबरों के मुताबिक नई नीति का मसौदा जल्‍दी ही सार्वजनिक किया जाकर उस पर लोगों के सुझाव आमंत्रित किए जाएंगे। हम सरकारों को कोसने से लेकर टीवी पर फिल्‍म अभिनेत्रियों की अंत्‍येष्टि और आंखमारी तक के लिए समय निकाल लेते हैं, जरूरी है कि इस काम के लिए भी थोड़ा समय निकालें। बाद में छाती माथा कूटने के बजाय जो कुछ कहना है अभी कह लें, ताकि बाद में कम से कम सनद तो रहे…

 

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