नोटबंदी से जुड़ी दूसरी दुनिया का भी नोटिस लीजिए हुजूर  

पहले दो ऐतिहासिक घटनाओं पर जरा नजर डाल लीजिए-

पहली घटना हमारे छोटे से पड़ोसी देश म्‍यामांर यानी बर्मा की है। वहां एक बार भारत की ही तरह नोटबंदी कर दी गई। स्‍वाभाविक था कि उससे लोगों को भारी मुश्किल हुई। जैसी कि समाज की फितरत है वह मुश्किल से मुश्किल घड़ी में भी रास्‍ते तलाश लेता है। सो, वहां लोगों ने नोटों की किल्‍लत से बचने के लिए सदियों पुराने वस्‍तु विनिमय को हथियार बनाया। आज के जमाने में जिसे बार्टर सिस्‍टम कहा जाता है उसी तर्ज पर उन्‍होंने वस्‍तु विनिमय करते हुए अपनी जरूरतों को बिना करेंसी के पूरा करना शुरू कर दिया। इस विनिमय के लिए सबसे ज्‍यादा इस्‍तेमाल देश के मुख्‍य खाद्यान्‍न चावल का किया जाने लगा। लेकिन इस दौरान समाज की एक और आदिम प्रवृत्ति सामने आई। चूंकि ज्‍यादातर विनिमय चावल के रूप में हो रहा था, इसलिए लोगों ने चावल की जमाखोरी शुरू कर दी और यह नौबत आ गई कि देश के मुख्‍य खाद्य पदार्थ चावल की भारी किल्‍लत हो गई। शहरी क्षेत्रों में भारी अराजकता पैदा होने से चावल को लेकर दंगे भड़क गए और बताया जाता है कि जब तक स्थिति पर काबू पाया गया तब तक करीब दस हजार लोगों की जानें जा चुकी थीं।

दूसरी घटना हमारे बड़े पड़ोसी देश चीन की है। जहां चेयरमैन माओ ने देश में बढ़ती चिडियों की संख्‍या को कम करने के लिए अभियान चलवाया और एक समय ऐसा आया जब चीन में चिडि़या दिखना ही दूभर हो गई। उसी जमाने में चीन के दौरे पर गए देश के प्रसिद्ध साहित्‍यकार व संपादक धर्मवीर भारती ने वहां से लौटकर अपनी रिपोर्ट में लिखा था- बाकी तो सब ठीक है लेकिन चीन के आकाश में चिडि़या दिखाई नहीं देती। माओ के आह्वान पर चिडि़यां तो खत्‍म कर दी गईं, लेकिन बाद में पता चला कि वे चिडि़यां फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले टिड्डी दलों को खाकर लोगों की बहुत बड़ी मदद करती थीं। चिडि़यां के खत्‍म होने का नतीजा यह हुआ कि चीन में फसलों पर टिड्डी दलों का हमला हुआ, फसलें बरबाद हुईं और उसके कारण पैदा भयंकर अकाल के चलते करीब दो करोड़ लोगों की मौत हो गई।

ये दोनों घटनाएं भारत की ताजा नोटबंदी से पैदा स्थितियों से निपटने के लिए सबक हो सकती हैं। बड़े नोट बंद होने से लोगों को होने वाली परेशानियों के रोज नए आयाम और नए नए किस्‍से सामने आ रहे हैं। लेकिन इसका सबसे ज्‍यादा चिंताजनक पहलू हाल ही में मुझे मेरे एक मित्र ने बताया। इस पहलू पर सरकार को बहुत ही गंभीरता से ध्‍यान देने की जरूरत है।

मेरे मित्र का कहना था कि उनके एक परिचित की कंपनी ने अपने यहां से कर्मचारियों को निकालना शुरू कर दिया है। इसका कारण यह है कि उस कंपनी में ज्‍यादातर मजदूरों को मजदूरी के भुगतान के रूप में दो नंबर का पैसा दिया जाता था। अब चूंकि वह पैसा देने व लेने की स्थिति नहीं बची है इसलिए कई सारे काम बंद करके मजदूरों की छुट्टी कर दी गई है। यह एक उदाहरण बताता है कि कालेधन से निपटने की चुनौती कितनी गंभीर और गहरी है।

जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नोटबंदी की घोषणा की थी तो उसके बाद ही आर्थिक विशेषज्ञों की ओर से कहा गया था कि हमारे देश में कालेधन की एक समानांतर अर्थव्‍यवस्‍था है जो सरकारी व्‍यवस्‍था से भी ज्‍यादा मजबूत है। ऐसे में जब हम कालेधन पर प्रहार करने या उसे खत्‍म करने की बात करते हैं तो हमें इस बात का पुख्‍ता इंतजाम भी करना होगा कि जिन लोगों की आजीविका जाने अनजाने में उस कालेधन पर चल रही थी उनका क्‍या होगा?

यह सवाल कालेधन का समर्थन करने या सरकार के फैसले का विरोध करने का कतई नहीं है, लेकिन जो लोग ऐसे संस्‍थानों में काम कर रहे थे या कर रहे हैं, उन्‍हें तो शायद पता भी नहीं होगा कि उनके मालिक का धन किस स्रोत से आ रहा है। वे तो इतना ही जानते हैं कि वे एक कंपनी या संस्‍थान में काम रहे हैं बस…!अब यदि ऐसे लोगों को नौकरियों या काम से निकाला जाता है तो वे कहां जाएंगे, उनकी क्‍या व्‍यवस्‍था होगी?

शायद इस बारे में अभी तक न तो सोचा गया है और न कोई बात हो रही है। तो क्‍या कालेधन को रोकने का यह सकारात्‍मक कदम देश में बेरोजगारी की एक नई लहर लेकर आएगा?

नोटबंदी पर चल रही तरह तरह की चर्चाओं के बीच मेरे एक परिचित ने बड़ी अच्‍छी टिप्‍पणी की, उनका कहना था कि जरूरी नहीं कि अच्‍छे उद्देश्‍य के लिए किए गए फैसले का परिणाम भी अच्‍छा ही हो।

निश्चित रूप से सरकार ने फैसला तो अच्‍छे उद्देश्‍य से ही लिया है और इसका स्‍वागत ही किया जाना चाहिए, लेकिन इस फैसले का परिणाम भी अच्‍छा निकले यह सुनिश्चित करने की जवाबदारी भी सरकार की ही है। आत्‍ममुग्‍धता की चकाचौंध में उसे यह जिम्‍मेदारी भूलने की इजाजत नहीं दी जा सकती।

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