इसे नौकरशाही में ‘मार्गदर्शक मंडल’ की तैयारी न समझें

67 वर्ष के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में बयान दिया है कि 40 की उम्र के बाद अफसरों में काम का जज्‍बा नहीं रह जाता। लिहाजा पिछड़े जिलों में युवा और ऊर्जावान अफसरों की तैनाती की जानी चाहिए। प्रधानमंत्री ने यह बात उस ‘राष्‍ट्रीय जनप्रतिनिधि सम्‍मेलन’ में कही जिसमें देश भर के विधायक और सांसद शामिल हुए। इसका आयोजन लोकसभा अध्‍यक्ष की ओर से किया गया था।

प्रधानमंत्री के इस बयान को लेकर प्रशासनिक हलकों में काफी हलचल है। खासतौर से उम्रदराज आईएएस अधिकारियों और राज्‍य प्रशासनिक सेवा से भारतीय प्रशासनिक सेवा में आकर कलेक्‍टर बनने वाले अफसरों में इसकी तीखी प्रतिक्रिया हुई है। उन्‍होंने तो यहां तक मान लिया है कि प्रधानमंत्री का यह बयान ऐसे अफसरों को कलेक्‍टर बनने से रोकने की कोशिश है।

मध्‍यप्रदेश में ही राज्‍य प्रशासनिक सेवा से भारतीय प्रशासनिक सेवा में आकर सेवानिवृत्‍त हुए अखिलेंदु अरजरिया जी ने फेसबुक पर पीएम के इस बयान को लेकर लंबी पोस्‍ट डाली है। उन्‍होंने स्‍वयं के अनुभव से कहा है कि उम्र से कार्य कुशलता का संबंध नहीं है। यदि स्वास्थ्य ठीक है तो 60 वर्ष का व्यक्ति जितनी ऊर्जा, लगन और कुशलता से कार्य करता है, उतनी कुशलता से 40 वर्ष से कम उम्र का अस्वस्थ या सामान्य व्यक्ति नहीं कर सकता।

अरजरिया जी के मुताबिक जिले में कलेक्टर और पुलिस अधीक्षक के पद पर अनुभवी और होश के साथ जोश से काम करने वाले संवेदनशील अधिकारी ही अधिक उपयुक्त होते हैं। अनुभवहीन, असंवेदनशील,युवा अधिकारी समस्या निपटाने के बजाय समस्याएं पैदा करते हैं। बिना होश के जोश किस काम का?

उन्‍होंने लिखा कि ‘’सामान्यतः 24 वर्ष की आयु में डिप्टी कलेक्टर और पुलिस उप अधीक्षक के पद पर नियुक्ति होती है। आईएएस, आईपीएस मिलने में 25 वर्ष लग जाते हैं। यानी ऐसे अफसर 45 से 50 वर्ष की आयु तक पहुंचने पर ही कलेक्टर/पुलिस अधीक्षक बनने योग्य हो पाते हैं। यदि इन पदों के लिये अधिकतम आयु 40 वर्ष तय की जाती है तो एक भी प्रमोटी अधिकारी इन पदों तक नहीं पहुँच पायेगा। यदि मोदी जी प्रमोटी अधिकारी को निम्नतर मानते हैं तो प्रमोशन ही समाप्त कर दें।‘’

इस मामले पर आगे बात करने से पहले जरा वो बात सुन लीजिए जो प्रधानमंत्री ने कही है। उन्‍होंने कहा- ‘’मै हैरान था, आमतौर पर जिला कलेक्‍टर की औसत उम्र 27, 28, 30 के करीब होती है। युवा आईएस अफसरों को तीन-चार साल में वहां (जिलों में) जाने का अवसर मिल जाता है, लेकिन जो 115 जिले मैंने देखे, उनमें 80 फीसदी से ज्यादा जिन कलेक्‍टरों से मैं मिला, वे 40 वर्ष से अधिक आयु वाले थे, कोई तो 45 तक वाले थे।‘’

मोदी ने कहा- ‘’अब मुझे बताइए 40-45 की उम्र का अफसर उस जिले में है, वो बड़े हो रहे बच्‍चों के एडमिशन की चिंता कर रहा है, बड़े शहर में काम मिल जाए, तो बच्चों की पढ़ाई का कुछ हो जाए, यही बात उसके दिमाग में रहती है। दूसरा ज्यादातर ये स्टेट कैडर के प्रमोटी अफसर होते हैं, उन्हीं को वहां भेजे जाने का मतलब, सोच में ही बैठ गया है कि ये तो बैकवर्ड जिले हैं यार, इसी को भेज दो गाड़ी चल जाएगी।‘’

प्रधानमंत्री ने सुझाव दिया- ‘’अगर हम सब मिल कर तय करें कि नहीं इन 115 जिलों में आने वाले पांच साल तक फ्रेश अफसरों को लगाएंगे, जिनमें ऊर्जा है, काम करने का जज्‍बा है, आप देखिए चीजें बदलना शुरू हो जाएंगी। मुख्‍यमंत्री भी ऐसे अफसरों को विश्वास दें कि भाई तुम्हें चैलेंज दे रहे हैं। ऐसे अफसरों को इस मानसिकता से निकाला जाए कि पिछड़े जिलों में भेजा जाना कोई सजा है।‘’

मेरा मानना है कि इस मसले पर प्रधानमंत्री के बयान को विवाद या आलोचना का विषय बनाने से पहले सम्‍मेलन में दिए गए उनके भाषण को पूरा और गंभीरता से पढ़ा जाना चाहिए। इसे डायरेक्‍ट आईएएस/आईपीएस बनाम प्रमोटी आईएएस/आईपीएस की बहस में डाल देने या उम्र के दायरे में उलझा देने से वह मूल बात दरकिनार हो जाएगी जो प्रधानमंत्री के भाषण के केंद्र में है।

2011 की जनगणना के अनुसार देश में 640 जिले थे। नीति आयोग ने इन जिलों की प्रगति को लेकर एक स्थिति पत्र तैयार किया है। उसी का संदर्भ देते हुए प्रधानमंत्री ने मुद्दा यह उठाया है कि देश के कुल जिलों में से लगभग 115 जिले ऐसे हैं जो पिछड़े हैं। इन जिलों के पिछड़ेपन का खमियाजा पड़ोसी जिलों और संबंधित राज्‍य से लेकर देश भर को उठाना पड़ रहा है।

ऐसे में प्रधानमंत्री का सुझाव है कि इन कथित पिछड़े जिलों की स्थिति को सुधारने के लिए विशेष कार्ययोजना बनाई जाए और वहां कलेक्‍टर के तौर पर ऐसे युवा और ऊर्जावान अफसरों को तैनात किया जाए जो संकल्‍पबद्ध होकर वहां की तसवीर बदलने के लिए काम करें। मेरे विचार से प्रधानमंत्री के इस सुझाव को इसी संदर्भ में देखकर उस पर गंभीरता से काम होना चाहिए।

यह बात सही है कि अफसर चाहे प्रमोटी हो या डायरेक्‍ट, हरेक की ख्‍वाहिश होती है कि उससे ‘अच्‍छा’ जिला मिले। मुझे याद है अविभाजित मध्‍यप्रदेश में छत्‍तीसगढ़ के बस्‍तर सहित कई जिले ऐसे थे जहां होने वाली पदस्‍थापना को सजा के तौर पर देखा जाता था। यही धारणा बुंदेलखंड और चंबल क्षेत्र के जिलों को लेकर थी। नौकरशाही की भाषा में जिसे ‘मलाईदार’ पोस्टिंग कहा जाता है, हर कोई उसी की ताक और जुगाड़ में लगा रहता है।

मुझे इसमें कोई बुराई नजर नहीं आती कि पिछड़े जिलों के लिए विशेष कार्ययोजना बने। मेरे विचार से इसमें डायरेक्‍ट और प्रमोटी का झगड़ा भी नहीं रखा जाना चाहिए। बेहतर तो यह होगा कि सरकार ऐसे जिलों के लिए प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों का एक अलग कैडर तैयार करे। उस कैडर में जाने के लिए इच्‍छुक अफसरों से बाकायदा आवेदन लिए जाएं। जो चुनौती को स्‍वीकार कर जाने को तैयार हो,उसे वहां काम करने का अवसर मिले। इस कैडर के अफसरों को विशेष इन्‍सेंटिव दिया जाए।

याद रखें प्रशासनिक सेवा में आने वाले अफसरों का मूल कर्तव्‍य ‘गुड गवर्नेंस’ देना है। इस झगड़े का कोई मतलब नहीं कि तू 25 का है, तुझे ‘कलेक्‍टरी’ मिल गई और मैं 50 का हूं मुझे मंत्रालय की‘बाबूगीरी’ मिली… और सरकार को भी अफसरों का कोई ‘मार्गदर्शक मंडल’ बनाने के बजाय सभी को खुले मन से अपनाना चाहिए…

 

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