देश में इन दिनों ‘न्याय’ फिर सुर्खियों में है। नहीं, मैं कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी द्वारा घोषित चुनावी ‘न्याय’ योजना की बात नहीं कर रहा हूं। मैं जिस ‘न्याय’ का जिक्र कर रहा हूं वह देश की न्यायपालिका के संदर्भ में है। 20 अप्रैल को देश की सर्वोच्च न्यायिक संस्था सुप्रीम कोर्ट के मुखिया, भारत के प्रधान न्यायाधीश को लेकर जो बातें मीडिया में आई हैं वे बहुत ही गंभीर खतरे की ओर इशारा करती हैं।
सुप्रीम कोर्ट की ही एक पूर्व कर्मचारी ने कथित तौर पर भारत के प्रधान न्यायाधीश पर यौन उत्पीड़न के आरोप लगाए हैं। देश के न्यायिक इतिहास में यह अभूतपूर्व घटना है। जो संस्था शोषितों और पीडि़तों की आखिरी उम्मीद का केंद्र है, इस बार उसी संस्था पर उंगली उठी है। प्रधान न्यायाधीश का यह कथन सिहरन पैदा करने वाला है कि कुछ लोग सीजेआई ऑफिस को निष्क्रिय करना चाहते हैं, न्यायपालिका गंभीर खतरे में है।
सीजेआई ने कहा- ‘’मुझे नहीं लगता कि ऐसा षड़यंत्र रचने का साहस जूनियर असिस्टेंट कर सकती है। इसके पीछे बड़ी ताकतें हैं। अगले सप्ताह मुझे कुछ बड़े लोगों से जुड़े मामले सुनने हैं, इस विवाद के पीछे जो लोग हैं, वे सुप्रीम कोर्ट के कामकाज को निष्क्रिय बनाना चाहते हैं, लेकिन हम ऐसा नहीं होने देंगे।‘’ न्यायपालिका को बलि का बकरा नहीं बनाया जा सकता।
जहां तक महिला के आरोपों का सवाल है, उसकी जांच और सत्यता की पुष्टि की जो भी प्रक्रिया हो वह कानून और न्याय व्यवस्था के मुताबिक होनी चाहिए। लेकिन सबसे बड़ा मुद्दा यह है कि क्या सचमुच देश में ऐसी ताकतें मौजूद हैं जो सुप्रीम कोर्ट को भी अपने दबाव में लेना चाहती हैं, या कि उसके कामकाज को निष्क्रिय करना चाहती हैं? यदि सीजेआई स्वयं यह बात कह रहे हैं तो इससे ज्यादा बड़ा संवैधानिक संकट और क्या हो सकता है? मुझे लगता है पहले तो इस मामले में अधिक प्रभावी ढंग से जांच और कार्रवाई की जरूरत है।
इस विषय को लेकर मीडिया में जो रिपोर्टिंग हुई है उसने मेरा ध्यान एक अन्य खतरे की तरफ भी खींचा है। यदि आपने 21 अप्रैल के अखबारों में इस मामले से संबंधित खबरें सरसरी तौर पर ही देखी हों तो एक बार उन्हें फिर ध्यान से देखिए। उस दिन मामले की विशेष सुनवाई के दौरान प्रधान न्यायाधीश ने कहा- ‘’चीजें अब बहुत दूर तक चली गई हैं, न्यायपालिका को इस तरह से टारगेट नहीं बनाया जा सकता।‘’
विशेष बेंच के दो अन्य सदस्यों जस्टिस अरुण मिश्रा और जस्टिस संजीव खन्ना ने मीडिया से कहा कि वह जिम्मेदारी और सूझबूझ के साथ काम करे और सत्यता की पुष्टि किए बिना महिला की शिकायत से संबंधित खबरों को प्रकाशित न करे। उन्होंने कहा कि हम कोई न्यायिक आदेश पारित नहीं कर रहे हैं लेकिन यह मीडिया पर छोड़ रहे हैं कि वह न्यायपालिका की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करने के लिए जिम्मेदारी से काम करे।
जस्टिस अरुण मिश्रा ने कहा कि न्यायिक प्रणाली में लोगों के विश्वास को देखते हुए हम सभी न्यायपालिका की स्वंतत्रता को लेकर चिंतित हैं। इस तरह के अनैतिक आरोपों से न्यायपालिका पर से लोगों का विश्वास डगमगाएगा। इससे पहले कोर्ट में ही सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने इस बात पर आपत्ति जताई थी कि मीडिया ने इस मामले को प्रकाशित ही क्यों किया। उनका कहना था कि ‘’जो कुछ छपा है वह मानहानिकारक और कूड़ा है’’ (defamatory and rubbish has been published)
मीडिया रिपोर्ट्स में कई आपत्तियां इस बात को लेकर भी प्रकाशित हुई हैं कि ऐसे मामलों में नाम या पहचान उजागर करने से बचना चाहिए जबकि चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया का नाम लेकर खबरें प्रकाशित की गईं। यहां यह बताना जरूरी है कि जिन चार डिजिटल मीडिया ने इस मामले को प्रकाशित किया उनमें द वायर, केरेवान, लीफलेट और स्क्रोल शामिल हैं।
इन चारों मीडिया संस्थानों ने मामले के प्रकाशन से पहले चीफ जस्टिस से उनका पक्ष भी जानना चाहा था। 20 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट की कार्रवाई के दौरान खुद चीफ जस्टिस ने मीडिया के रवैये पर बड़ी खिन्नता के साथ टिप्पणी की थी कि- ‘’उन्होंने (मीडिया) मुझे अपना पक्ष रखने के लिए 12 घंटे से भी कम का समय दिया।‘’
यह मामला उजागर होने के बाद इसके पक्ष और विपक्ष में कई तरह के विचार लगातार सामने आ रहे हैं। चीफ जस्टिस के इस कथन को लेकर भी कई तरह की अटकलें लगाई जा रही हैं कि कुछ ताकतें हैं जो सीजेआई ऑफिस को निष्क्रिय करना चाहती हैं। कई लोगों ने इसे परोक्ष रूप से सरकार की ओर इशारा माना है। लेकिन मामले में नया मोड़ उस समय आया जब वित्त मंत्री और वरिष्ठ वकील अरुण जेटली ने चीफ जस्टिस और भारत की सर्वोच्च न्यायिक संस्था के पक्ष में खड़े होते हुए ब्लॉग लिखा।
जेटली ने कहा-‘’ऐसी शिकायतें जब किसी भी प्रशासनिक कामकाज में सामान्य रूप से की जाती हैं तो वे उपयुक्त समिति को भेजी जाती है। लेकिन जब शिकायतकर्ता अपने आरोपों को सनसनीखेज बनाने के लिए अपने ज्ञापन की प्रतियां सुप्रीम कोर्ट के अन्य जजों और मीडिया को देता है तो यह मामला सामान्य नहीं रह जाता।‘’
इसके बाद जेटली ने जो कहा है वह ध्यान देने लायक है। वे लिखते हैं-‘’जब संस्थाओं को क्षति पहुंचाने के अनूठे ट्रैक रिकॉर्ड वाले चार डिजिटल मीडिया संस्थान, चीफ जस्टिस को एक जैसी प्रश्नावली भेजते हैं, तो जाहिर है कि चीजें वैसी नहीं हैं जो दिखाई दे रही हैं।‘’… खेद जताते हुए वे कहते हैं- ‘’पिछले कुछ वर्षों में संस्थाओं को अस्थिर करने वाले (ऐसे) अवरोधकों को प्रमुखता से एक होते देखा गया है और इनके लिए कोई लक्ष्मण रेखा भी नहीं है।‘’
जेटली कहते हैं- ‘इनमें से कई तत्व वाम या अति वाम विचारों का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनके पास कोई चुनावी आधार या लोकप्रिय समर्थन नहीं है, फिर भी मीडिया और शिक्षा में अब भी उनकी खासी उपस्थिति है। जब वे मुख्यधारा के मीडिया से बाहर हो गए तो उन्होंने डिजिटल और सोशल मीडिया की शरण ली है।‘’
सुप्रीम कोर्ट से लेकर सरकार तक का मीडिया के प्रति यह रुख बहुत गंभीर खतरे की ओर संकेत करता है। इस बात पर बहस और तर्क-वितर्क हो सकते हैं कि चीफ जस्टिस के खिलाफ हुई शिकायत को छापना चाहिए था या नहीं और छापना भी चाहिए था तो किस रूप में? लेकिन यदि इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट और सरकार दोनों का रवैया मीडिया की भूमिका को लेकर सकारात्मक नहीं है तो ये मीडिया पर होने वाली ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ से सचेत रहने के दिन हैं।