कटारे की राजनीतिक शैली में चंबल का पानी बोलता था

यह दिसंबर 1986 की बात है। यूएनआई ब्‍यूरो चीफ के रूप में मेरी पदस्‍थापना ग्‍वालियर में हुई थी। दिसंबर का महीना ग्‍वालियर में उन दिनों भारी चहल पहल का हुआ करता था और इसका कारण था वहां लगने वाला ग्‍वालियर व्‍यापार मेला। माधवराव सिंधिया की विशेष रुचि के चलते उस मेले ने भव्‍य स्‍वरूप ले लिया था। मेले की वैसी रौनक बाद में देखने को नहीं मिली। ग्‍वालियर में पत्रकार के रूप में मेरा पहली बार जिस सबसे बड़ी गतिविधि से पाला पड़ा वह ग्‍वालियर व्‍यापार मेला ही था।

साथी पत्रकारों ने मुझे बताया कि मेले के दिनों में मेला ग्राउण्‍ड का एकाध चक्‍कर लगा लेने से बहुत सारे लोगों से मुलाकात हो जाती है और कई खबरें भी मिल जाती हैं। इलाके में नया होने के कारण लोगों से मिलना और पहचान करना मेरी जरूरत भी थी। एक दिन मुझे बताया गया कि अटेर के विधायक सत्‍यदेव कटारे से वहां मुलाकात हो सकती है। चूंकि मेरे पास समूचे ग्‍वालियर चंबल क्षेत्र का प्रभार था इसलिए यह जरूरी भी था कि मैं ग्‍वालियर के अलावा चंबल संभाग के दोनों जिलों भिंड और मुरैना (उन दिनों श्‍योपुर जिला नहीं बना था, वह मुरैना जिले का ही हिस्‍सा था) के लोगों से भी मेलजोल रखूं। तो मैं भी चला गया। बताया गया था कि कटारे मेला परिसर में ही पत्रकारों से बात करेंगे। यह कार्यक्रम सुबह 11 बजे के आसपास का तय हुआ था। हम लोग इंतजार करते रहे। कटारे जब तय समय के डेढ़ घंटा बाद तक वहां नहीं पहुंचे तो बहुत बुरा लगा और मैं यह कहते हुए वहां से चल दिया कि इससे ज्‍यादा इंतजार नहीं किया जा सकता। यदि समय दिया है तो विधायक को उसका ध्‍यान रखना चाहिए था। मैं निकल ही रहा था कि कटारे का वहां आना हुआ। उनके साथ आए लोगों ने मुझे रोकने की कोशिश की लेकिन मैंने कहा अब नहीं… आपको जो खबर देना हो प्रेस नोट भिजवा दीजिएगा। मैं आगे बढ़ा तो कटारे ने कहा-‘’खाना तो खाते जाइए’’, देरी के कारण उपजी खीज के चलते मैंने जवाब दिया- ‘’इंतजार से ही पेट भर गया है, खाना क्‍या, पानी की भी जगह नहीं बची है…’’ कटारे का जवाब था- ‘’सोच लो यह चंबल का पानी है…’’ मैंने कहा- ‘’आप मुझे धमका रहे हैं…?’’ कटारे ने जवाब दिया- ‘’मैंने तो खाना खाने की बात कही है, आपको यह धमकी लग रही है तो ऐसा ही सही…’’ उसके बाद मैं बिना बात बढ़ाए वहां से चला आया।

गुरुवार को दिवंगत हुए मध्‍यप्रदेश विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता सत्‍यदेव कटारे के साथ मेरा यह पहला एनकाउंटर था। उस घटना के बाद हम दोनों में खिंचाव आना स्‍वाभाविक था। इसी दौरान एक घटना और हुई। ग्‍वालियर में एक और चर्चित शख्सियत थी मनमोहन घायल, वे ग्‍वालियर विकास समिति नाम से एक संस्‍था चलाते थे और लगभग हर साल कुछ लोगों का सम्‍मान करते थे। यूएनआई ब्‍यूरो चीफ होने के कारण उन्‍होंने एक बार मुझसे बात किए बिना मेरा नाम भी सम्‍मानित किए जाने वालों में जोड़ लिया। मुझे ठीक नहीं लगा, मैंने उनसे कहा आपको कम से कम पहले बात तो करनी चाहिए थी। फिर मैंने उनसे पूछा कि सम्‍मान कौन कर रहा है तो उन्‍होंने कहा- सत्‍यदेव कटारे.. चूंकि मेले वाले प्रसंग की यादें धुली नहीं थीं, मैंने कहा, उनके हाथ से सम्‍मानित होने में मेरी कोई रुचि नहीं है। बात आई गई हो गई… लेकिन शायद, मेरी वह बात मनमोहन घायल ने सत्‍यदेव कटारे तक पहुंचा दी थी।

दो-तीन दिन बाद मेरे पास एक फोन आया- ‘’गिरीश भाई, कटारे बोल रहा हूं…’’ मैं यह तो नहीं कहूंगा कि उनकी टोन में कोई झुकने का भाव था, लेकिन पता नहीं क्‍यों उस वाक्‍य ने पुरानी सारी बातें एक झटके में धो डालीं, मैंने सहज भाव से हालचाल पूछा। दो चार मिनिट की बात के बाद कटारे बोले- ‘’उस दिन तो आपने न हमारा खाना खाया न पानी पिया, क्‍या आज हमें चाय पिलाएंगे?’’ और उस चाय ने दोस्‍ती की एक नई शुरुआत की, जो आखिर तक वैसी ही बनी रही।

गुरुवार को जब श्री कटारे के निधन का समाचार सुना तो ऐसी कई घटनाएं स्‍मृतियों में तैर गईं। भिंड जिले की अटेर विधानसभा का प्रतिनिधित्‍व करने वाले कटारे ने अपने राजनीतिक जीवन में कई उतार चढ़ाव देखे, लेकिन उनका चंबल वाला तेवर कभी नहीं गया। शायद यही कारण था कि उन्‍हें कई बार अपने मेंटर बदलना पड़े। उनसे अंतिम मुलाकात करीब साल भर पहले विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष के कक्ष में हुई थी। वहां हमने साथ खाना खाया था। मेरे साथ मेरे सहयोगी पंकज शुक्‍ला भी थे। हमने महसूस किया कि ब्रेन हेमरेज के कारण श्री कटारे का ठीक से बैठना और हाथ उठाना भी मुश्किल था, लेकिन लाचारी का भाव उन्‍होंने कभी नहीं दिखाया।

उनके नेता प्रतिपक्ष रहते हुए कांग्रेस ने विधानसभा में व्‍यापमं मामले को लेकर सरकार को खूब घेरा। बाद में जब इस मुद्दे को कांग्रेस के ही दूसरे नेताओं ने लपक लिया, तो मैंने एक दिन यूं ही श्री कटारे से पूछ लिया- ‘’मामले को तो आपने पकाया लेकिन श्रेय अब दूसरे नेता ले रहे हैं।‘’ उनका जवाब था- ‘’श्रेय भले ही ले लें लेकिन सरकार पर फायर तो हम ही कर सकते हैं।‘’ बंदूक और फायर का यह तेवर ही चंबल की खासियत है और राजनीति की यह चंबल शैली ही कटारे की पहचान थी, जो अब मिलना मुश्किल है…

 

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