भारतीय राजनीति में भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ राजनीति करने वाले अधिकांश दलों, खासकर वामपंथी दलों एवं कांग्रेस का यह बहुत प्रचलित आरोप है कि इस पार्टी यानी भाजपा में बौद्धिक या अकादमिक लोगों का संकट है। आज भी भाजपा या उसके नेताओं के बयानों का अकसर यह कहकर विरोध किया जाता है या उनकी खिल्ली उड़ाई जाती है कि उनमें बौद्धिक तत्व अथवा प्रतिभा की कमी है।
जब से मोदी सरकार सत्ता में आई है, ऐसे कई प्रसंग आए हैं जिनमें कलाकारों, साहित्यकारों, संस्कृतिकर्मियों ने अलग अलग मुद्दों पर सरकार या भाजपा को इसी आधार पर घेरने या कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की है कि उनके पास, उनके खिलाफ उठाए जाने वाले मुद्दों या उनसे पूछे जाने वाले सवालों के तार्किक जवाब नहीं हैं। फिर चाहे वह असहिष्णुता का मसला हो या फिर मॉब लिंचिंग का…
बौद्धिक जगत में अकसर की जाने वाली इस घेराबंदी या हमलों का सामना करने में भाजपा कठिनाई महसूस करती भी रही है। ऐसा नहीं है कि उसके पास बोलने वालों की कमी है, लेकिन शायद उसके पास वैसा तार्किक, बौद्धिक और अकादमिक संदर्भ देकर बोलने वालों की कमी जरूर दिखाई देती है, जैसे बोलने या लिखने वाले उसके विरोधी पक्ष के पास हैं।
सरकार में आने के बाद हालांकि भाजपा ने इस मोर्चे को बहुत कुछ संभाल लिया है और अब उसकी तरफ से भी ऐसे बौद्धिक और अकादमिक हमलों के माकूल जवाब दिए जाने लगे हैं। लेकिन एक समय ऐसा भी था जब भाजपा में ऐसे लोगों की कमी थी जो हिन्दी और अंग्रेजी में समान अधिकार के साथ तार्किक रूप से अपनी बात रखते हुए विरोधियों का मुंह बंद कर सकें।
भाजपा में यह कमी दूर करने वाले मुखर नेताओं में जिन कुछ लोगों का नाम लिया जा सकता है उनमें प्रमोद महाजन, सुषमा स्वराज और अरुण जेटली के नाम प्रमुख हैं। अटल-आडवाणी युग में ये तीनों नाम भाजपा की भावी पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते थे और इन्होंने अपनी प्रतिभा और मेधा से भाजपा के साथ-साथ भारतीय राजनीति में अपनी उपस्थिति को बहुत मजबूती के साथ रेखांकित भी करवाया। संयोग से ये तीनों नेता करीब करीब हमउम्र ही थे। प्रमोद महाजन अक्टूबर 1949 की, सुषमा स्वराज फरवरी 1952 की और अरुण जेटली दिसंबर 1952 की पैदाइश थे। इन तीनों में भाजपा के ही नहीं, बल्कि देश के कई लोग प्रधानमंत्री बन सकने की संभावना देखते थे।
2006 में प्रमोद महाजन की असमय मौत हो जाने के बाद इसी माह 6 अगस्त को सुषमा स्वराज के निधन के बाद 24 अगस्त को अरुण जेटली के अवसान ने भाजपा के ‘बौद्धिक मोर्चे’ को बहुत विपन्न कर दिया है। सुषमा स्वराज उस तरह से ‘राजनीति की राजनीति’ में कभी शामिल नहीं हुईं, लेकिन बाकी दोनों नामों यानी प्रमोद महाजन और अरुण जेटली के साथ ऐसा नहीं था।
महाजन और जेटली ने अपने-अपने समय में ही देश में करवट ले रही राजनीति और उसमें भाजपा की संभावनाओं देखते हुए नई राजनीतिक शैली विकसित करने की पहल शुरू कर दी थी। और यह शैली संसद और चुनावी राजनीति के बरक्स कॉरपोरेट और मीडिया के भरपूर उपयोग की भी थी। महाजन वैसे आते तो मुंबई से थे, लेकिन उन्होंने दिल्ली की राजनीति में अपनी अलग कार्यशैली का जलवा कायम कर लिया था।
पर जेटली के साथ महाजन से भी आगे जाकर कुछ और बातों की सुविधा थी। वे सही मायनों में उस लुटियंस दिल्ली का प्रतिनिधित्व करते थे जिसके बारे में, मोदी पूर्व युग में, कहा जाता था कि सत्ता इसी लुटियंस दिल्ली के एलीट क्लब के इशारों पर नाचती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक इंटरव्यू में इसे ‘खान मार्केट गिरोह’ की संज्ञा देकर और भी ज्यादा चिह्नित, परिभाषित व चर्चित कर दिया था।
जेटली उस एलीट दिल्ली क्लब में बहुत सक्रियता से अपनी पैठ बनाने में कामयाब हुए थे। सुप्रीम कोर्ट का वकील होने के कारण उनकी इस भूमिका ने और विस्तार पाया था। मोदी ने कई बार सार्वजनिक रूप से यह बात कही है कि शुरुआती दौर में दिल्ली आने पर वे बहुत असहज महसूस करते थे। फिर धीरे धीरे उन्हें दिल्ली और वहां राजनीति करने का रंग-ढंग समझ में आने लगा।
मोदी को दिल्ली की राजनीति के रंग-ढंग सिखाने में दरअसल उनके पुराने मित्र अरुण जेटली की बहुत बड़ी और महत्वपूर्ण भूमिका थी। दिल्ली के बौद्धिक हमलावरों से मोदी और उनकी सरकार जब जब परेशानी या उलझन में फंसी, अरुण जेटली पार्टी के मुख्य बचावकर्ता की हैसियत से सामने आए। मोदी के विरोधी ‘लठैत भाजपा’ को तो छका सकते थे, लेकिन बौद्धिक और तार्किक गोला बारूद से लैस जेटली को छका पाना उनके लिए भी आसान नहीं होता था। फिर चाहे संसद हो या मैदानी राजनीति, जेटली मोदी की मुख्य रणनीतिक टोली का हिस्सा बन गए।
कानून और वित्त संबंधी मामलों का जानकार होने के कारण जेटली की राय करीब-करीब हर मामले में या तो मानी जाती थी या मायने रखती थी। यह बात अलग है कि प्रमोद महाजन और सुषमा स्वराज के विपरीत अरुण जेटली सीधे चुनाव की राजनीति में खुद सफल नहीं हो पाए। 2014 में उन्होंने, मोदी लहर के दौरान, सुरक्षित समझी जाने वाली अमृतसर सीट से लोकसभा का चुनाव लड़ा, लेकिन पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदरसिंह के हाथों पराजित हो गए।
इस बात पर बहस या शोध हो सकती है कि पूरी पार्टी की चुनावी रणनीति बनाने और उसे सफल करने में मुख्य भूमिका निभाने वाले जेटली खुद सीधे चुनाव की राजनीति में क्यों खेत रहे? लेकिन इससे जेटली का भाजपा या भारतीय राजनीति में महत्व कम नहीं हो जाता। वे 2014 का चुनाव हारने से पहले भी पार्टी के लिए अहम थे और अंतिम सांस तक अहम बने रहे।
मैंने बात भाजपा के ‘बौद्धिक योद्धाओं’ से शुरू की थी। जिन लोगों को भविष्य में यह जानना हो कि जेटली की तर्क और विश्लेषण क्षमता और उनकी बौद्धिकता क्या थी, वे संसद में उनके भाषणों का रिकार्ड टटोल सकते हैं। यह कहना तो गलत होगा कि जेटली के अवसान से भाजपा में बौद्धिकता का शून्य आ गया है, लेकिन इतना जरूर है कि प्रमोद महाजन, सुषमा स्वराज और अब अरुण जेटली के जाने के बाद नए महाजन, स्वराज और जेटली तैयार करना भाजपा के लिए बहुत-बहुत मुश्किल होगा।