सरयूसुत मिश्रा

लोकतंत्र की मर्यादा और पवित्रता दिन प्रतिदिन क्यों कम होती दिखाई पड़ रही है? संसदीय शासन प्रणाली में जन सहभागिता की अवधारणा क्या सही मायनों में अमल में दिखाई पड़ रही है? संसद और विधानसभाओं के निर्वाचित प्रतिनिधि विधि निर्माण से ज्यादा शासन व्यवस्था और सरकारी धन में हिस्सेदारी को वरीयता दे रहे हैं?

सांसद और विधायक निधि क्या निर्वाचित प्रतिनिधियों की आय का जरिया बन गई है? क्या सारी इंडियन पॉलिटिकल सर्विस सरकारी धन पर आश्रित हो गई है? दलीय सिस्टम में सारा राजनीतिक खर्च परोक्ष अपरोक्ष रूप से क्या सरकारी धन से ही पूरा हो रहा है? संसद से लगाकर पंचायत तक का नेटवर्क सरकारी धन में हिस्सेदारी के उधेड़बुन में मूल दायित्व से भटक रहा है। इससे लोकतंत्र की पवित्रता पर सवाल उठ रहे हैं। लोक सेवक शब्द सेवा के प्रतीक के रूप में क्यों नहीं देखा जा रहा है?

सारी पॉलिटिक्स सरकारी धन में हिस्सेदारी और शब्दों की बाजीगरी से सेवा का एहसास दिलाने पर केंद्रित हो गई है। राजनीतिक जगत में इस बात की होड़ लगी है कि बयानों में भाषा और गरिमा की दृष्टि से कौन-कितना नीचे गिर सकता है। सेना की पिटाई से लेकर आजादी की लड़ाई में हुई शहादत और कुत्ता शब्द का उल्लेख, विदेशी कोख, राष्ट्रभक्ति जैसे डायलॉग एवं किरदारों का अभिनय लोकतंत्र की मजबूरी बन गया है।

कौन क्या कह रहा है? उसकी सच्चाई क्या है? उसकी जरूरत क्या है? अगर वह नहीं कहा जाता तो क्या देश का कोई नुकसान हो रहा था? अगर इन पैमानों पर राजनीतिक वक्तव्यों को कसा जाएगा तो कोई भी बयान ऐसा नहीं निकलेगा, जिसकी विकास और सेवा की दृष्टि से कोई उपयोगिता हो। जनता को केवल सूचना की आवश्यकता हो सकती है उसे किसी विशेषण के साथ कुछ भी कहने बताने की जरूरत क्यों होनी चाहिए?

सेवा और सुशासन के नाम पर पक्ष-विपक्ष की राजनीति फिल्मों के घटिया दृश्यों और डायलॉग को पूरा करते हुए दिखाई पड़ती है। आज ओटीटी प्लेटफॉर्म पर गाली गलौज भरे डायलॉग भी सुनने देखने को मिल जाते हैं। पॉलिटिक्स भी अब ओटीटी के दौर में पहुंच चुकी है। इसके लिए कोई सेंसर बोर्ड नहीं है। बिना झिझके जो चाहो वह बोला जा सकता है। उससे क्या मतलब निकल रहा है? क्या इससे मानसिक प्रदूषण फैल रहा है? इस पर किसी को सोचने की कोई जरूरत नहीं है।

संसद और विधानसभाओं का मौलिक काम विधि निर्माण है। अभी हाल ही में एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी जिसमें यह बताया गया था कि दशकों से लंबित मामलों पर विधि निर्माण की प्रक्रिया पूरी नहीं हो सकी है। संसद, विधानसभा वैसे तो चलती नहीं है और जब चलती हैं तो केवल डायलॉग के जरिए एक दूसरे से राजनीतिक चतुर और बुद्धिमान होने की प्रतियोगिता होती दिखाई पड़ती है।

भारत में राजनीति सेवा का जरिया हुआ करती थी। कभी राजनेता पदयात्रा कर जनता के बीच में जनता के आसरे उनके ही स्तर पर सेवा कार्यों में संलग्न पाए जाते थे। अब तो स्थिति ऐसी हो गई है कि एक बार जो पंच-सरपंच भी बन गया तो उसका एक कार्यकाल में ही रहन सहन और आर्थिक स्थिति बदल जाती है। गांव-गांव में बड़ी-बड़ी गाड़ियां सेवा के नाम पर ही दिखाई पड़ जाती हैं।

सांसद-विधायक निधि लोकतंत्र को अब अपवित्र करते हुए दिखाई पड़ रही है। यह दोनों निधियां निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को कार्य करने की वैधानिक शक्तियां देती हैं। इन निधियों से विकास कार्यों का संचालन सामान्यतः पंचायत के माध्यम से किया जाता है। निर्वाचित जनप्रतिनिधियों से कार्य आवंटन के लिए लेन-देन की शिकायतें सामने आती हैं।

जब कल्याणकारी सरकार विकास कार्यों को अंजाम देने के लिए काम करती है तो फिर सांसद और विधायक को अलग से निधि की क्या जरूरत है? ऐसा माना जाता है कि इन निधियों का उपयोग राजनीतिक रूप से समर्थकों और सहयोगियों को संतुष्ट करने के लिए किया जाता है।

सरकारी कार्यप्रणाली में सांसद-विधायकों की हिस्सेदारी बढ़ाने की कोशिश सतत चलती रहती है। इसे जनता की सेवा के नाम पर किया जाता है लेकिन इससे किस की सेवा होती है, इसके लिए किसी भी शोध की आवश्यकता नहीं है। रोजी रोटी और जीवन यापन के लिए नौकरी जैसे एक माध्यम है वैसे ही राजनीति भी एक माध्यम बन गई है। सेवा के नाम पर राजनीति करने की बात तो कही जाती है लेकिन राजनीति में सेवा तलाशना टेढ़ी खीर है।

पंचायत से लगाकर पार्लियामेंट तक निर्वाचन में जिस तरह से धन खर्च होता है वह सामान्य व्यक्ति के लिए तो संभव नहीं लगता। निर्वाचन के लिए धन प्रबंधन से ही बुराइयों की शुरुआत होती है जो सेवा की भावना को समाप्त कर देती है। यह दुर्भाग्यजनक पहलू भी राजनीति से जुड़ा हुआ है।

पक्ष और विपक्ष की राजनीति में एक दूसरे को एक्सपोज़ करने की दौड़ में पूरी राजनीति को एक्सपोज़ कर दिया जाता है। जो राजनीति संसदीय शासन प्रणाली की मालिक जैसे है उसे एक दूसरे के आरोप-प्रत्यारोप में कहीं का नहीं छोड़ा जाता है।

भारतीय राजनीतिक व्यवस्था और सांसद-विधायक निधि की प्रणाली में सुधार की बहुत अधिक गुंजाइश है। समय रहते इस दिशा में इंडियन पॉलिटिकल सर्विस के कर्ता-धर्ताओं ने चिंतन मनन और प्रयास नहीं किया तो इसके खिलाफ जनता से जब आवाज उठेगी तो वह पूरे सिस्टम के लिए बड़ी कठिन चुनौती होगी।
( लेखक की सोशल मीडिया पोस्‍ट से साभार)
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