अजय बोकिल
गणतंत्र दिवस पर आंदोलनकारी किसानों की ट्रैक्टर रैली में हुई हिंसा और उत्पात के बाद लग रहा था कि अब यह आंदोलन उतार की राह पर है, लेकिन दूसरे ही दिन किसान नेता राकेश सिंह टिकैत द्वारा सार्वजनिक रूप से किसानों का दर्द बयान करने और जार-जार आंसू बहाने के बाद लगता है आंदोलन ने फिर पलटी मार दी है। किसान आंदोलन के इस फेज-2 में हालात तेजी से बदले हैं, जो मोदी सरकार के साथ-साथ उत्तर प्रदेश और हरियाणा की भाजपा सरकारों के लिए भी खतरे की घंटी हैं।
नई परिस्थिति में किसान आंदोलन के कई कोण दिख रहे है। पहला तो यह कि किसान आंदोलन की मुख्य कमान सामूहिक नेतृत्व की बजाए राकेश टिकैत के हाथ आ गई है। दूसरे, टिकैत अब किसान नेता से ज्यादा राजनेता के तेवर और भाषा में बात कर रहे हैं। तीसरे, किसान आंदोलन अब जाट आंदोलन में तब्दील हो रहा है। चौथा, 26 जनवरी की हिंसा के बाद दिल्ली की सरहदों पर, जहां आंदोलनकारी किसान डटे हैं, कील कांटों के साथ किलेबंदी का पूरे देश में गलत संदेश जा रहा है। संदेश यह है कि सरकार अपने ही किसानों से डरी हुई है।
एक हफ्ते पहले तक यह मुख्य रूप से यह उन किसान संगठनों का आंदोलन था, जो तीनों कृषि कानूनों की वापसी की मांग पर अड़े थे, साथ ही बातचीत (भले ही वह बेनतीजा रही हो) भी कर रहे थे। गैर भाजपाई राजनीतिक दल पर्दे के पीछे से किसान आंदोलन को हवा और दिशा दे रहे थे। लेकिन अब ये राजनीतिक दल भी खुलकर किसान आंदोलन के समर्थन में आ गए हैं और किसानों की लड़ाई को मोदी सरकार के खिलाफ लड़ाई में तब्दील किया जा रहा है। खासकर के उन राज्यों में जहां, इसी साल या अगले साल विधानसभा चुनाव होने से किसान असंतोष को सियासी दृष्टि से भुनाने की कोशिशें शुरू हो गई हैं।
दूसरी तरफ केन्द्र सरकार किसान आंदोलन मामले में असहाय सी नजर आ रही है। सत्तारूढ़ भाजपा के कुछ नेताओं के किसान आंदोलन को लेकर विवादित बयान और सोशल मीडिया पर चल रहे किसान विरोधी अभियान के अलावा ज्यादा कुछ उपाय नजर नहीं आ रहा है। किसान आंदोलन को देशविरोधी, खालिस्तानी, फर्जी किसानों का आंदोलन साबित करने की तमाम कोशिशों का भी कोई खास नतीजा नहीं निकला है। उलटे इस आंदोलन को विदेशी समर्थन भी बढ़ता जा रहा है। इसे हमारे आंतरिक मामले में दखलंदाजी मानें तो भी इससे यह संदेश तो जा ही रहा है कि सरकार विदेशों में भी इस मुद्दे को ठीक से ‘मैनेज’ नहीं कर पा रही है।
दिल्ली की तीन सरहदों पर बाड़ाबंदी की पुलिस की कार्रवाई प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के उस जुमले कि किसानों से बातचीत के बीच बस एक फोन कॉल का फासला है, के ठीक विपरीत है। इससे तो सरकार और किसानों के बीच फासला एक फोन कॉल तो दूर, मीलों लंबा हो जाएगा। दरअसल किसान आंदोलन को लेकर जारी गतिरोध टूटने की संभावना तब बनी थी, जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सर्वदलीय बैठक में कहा था कि उनकी सरकार (कृषि मंत्री) किसानों से बस एक ‘फोन कॉल’ दूर है और इस मसले का हल बातचीत के जरिए ही निकाला जा सकता है। लेकिन बातचीत में भी दोनों पक्ष अपनी-अपनी बात पर अडिग हैं, इसलिए बातचीत भले चलती रहे, किसी ठोस समाधान की संभावनाएं क्षीण हैं।
किसान आंदोलन के दूसरे चरण में यह मामला और जटिल इसलिए हो गया है कि आंदोलन की मुख्य धुरी खुद टिकैत बन गए हैं। बाकी किसान नेता परदे की आड़ में चले गए हैं। 26 जनवरी को तिरंगे के अपमान और दिल्ली में हिंसा से क्षुब्ध कुछ किसान संगठनों ने अपना बोरिया-बिस्तर समेट लिया था। कई आंदोलनकारी किसान घरों को लौटने भी लगे थे। लेकिन उसके दूसरे दिन टिकैत ने जो सहानुभूति बटोरने का दांव चला (या जिसने भी उनको ऐसा करने की सलाह दी होगी) उससे यकीनन बाजी पलट गई। भावुक किसान अपने नेता की आन की रक्षा के लिए फिर आंदोलन में लौटने लगे। चूंकि टिकैत भी जाट हैं, इसलिए उनकी मीडिया से उस भावुक बातचीत का बड़ा संदेश उन जाट किसानों के बीच गया, जो इस आंदोलन के बहाने अपनी एकजुटता का प्रदर्शन करना चाहते हैं। इसमें हिंदू, सिख और कुछ मुस्लिम जाट भी शामिल हैं।
किसानों की मांगें अपनी जगह हैं, लेकिन इस नए जाट जागरण के पीछे मोदी युग में जाटों का राजनीतिक दृष्टि से हाशिए पर जाना भी बड़ा कारण है। हरियाणा, जहां जाट चाहे किसी पार्टी में हों, सत्ता की धुरी रहते आए हैं, वहां उन्हें 6 साल से सियासी ‘खुरचन’ पर ही संतोष करना पड़ रहा है। लिहाजा टिकैत के बहाने जाट-शक्ति का प्रदर्शन इस आंदोलन का अघोषित मुद्दा बनता दिखता है। यही वजह है कि भाजपा को छोड़ दें तो अन्य दलों के जाट नेताओं ने तुरंत टिकैत के आंदोलन को खुला समर्थन दे दिया है।
इस एकजुटता का पहला राजनीतिक असर हरियाणा पर हो सकता है, जहां जाट कुल आबादी का 25 फीसदी हैं और राज्य में मुख्यमंत्री पद खोने से मन ही मन रुष्ट हैं। दरअसल हरियाणा में जाट समुदाय राज्य के मुख्यमंत्री पद पर अपना नैसर्गिक हक उसी तरह मानता है, जैसे कि महाराष्ट्र में मराठा समुदाय। यूं कहने को राज्य की गठबंधन सरकार में जाट नेता दुष्यंत चौटाला उपमुख्यमंत्री हैं, लेकिन उससे बात बनती नहीं। अगर दुष्यंत पर अपने समुदाय का दबाव बढ़ा तो वो सत्ता से बाहर निकल सकते हैं। ऐसे में खट्टर सरकार का सत्ता में बने रहना असंभव हो जाएगा।
भीतर ही भीतर सुलग रही इस जाट एकता का दूसरा असर उत्तर प्रदेश की राजनीति पर भी पड़ सकता है। वर्तमान यूपी को तोड़कर अलग जाट लैंड (हरित प्रदेश) बनाने की मांग लंबे समय से की जाती रही है। लेकिन किसी सरकार ने इसे ज्यादा तवज्जो नहीं दी। यूपी में जाट मुख्य रूप से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बसते हैं, जहां उनकी संख्या करीब 17 फीसदी बताई जाती है। ये राज्य की 10 लोकसभा और 70 विधानसभा सीटों को खासा प्रभावित करते हैं।
उत्तर प्रदेश में अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं। अगर जाट भाजपा से दूर चले गए तो योगी सरकार की सत्ता में वापसी पर गंभीर सवालिया निशान लग सकता है। इस जाट एकता का असर राजस्थान में भी दिख सकता है, जहां जाटों की संख्या करीब दस फीसदी है। यही स्थिति पंजाब में भी हो सकती है, जहां जाटों की आबादी 20 से 25 फीसदी है और वो कांग्रेस और अकाली दल दोनों दलों में असरदार हैं।
अगर जाट नेताओं की अंदरूनी प्रतिस्पर्द्धा हावी नहीं हुई तो हो सकता है कि टिकैत यूपी में अगले विधानसभा चुनाव में किसी राजनीतिक दल के बैनर तले अपनी किस्मत आजमाते दिखें। इसकी वजह उनकी भाषा में बढ़ता राजनीतिक पुट है। टिकैत ने पहले कहा था कि किसान आंदोलन 2024 तक चल सकता है। यानी अगले लोकसभा चुनाव तक। अब वो कह रहे हैं कि यह आंदोलन धीमा नहीं होगा। इसके नेता किसान ही हैं। जींद में बुधवार को हुई किसानों की महापंचायत में उन्होंने ऐलान किया कि इस आंदोलन को कोई दबा नहीं सकता। हमारी लड़ाई जमीन बचाने की है। हम तिजोरी में अनाज बंद नहीं होने देंगे।
अगर किसान आंदोलन का कोई हल नहीं निकलता है और इसके समांतर जाट समुदाय की एकता मजबूत होती जाती है तो सबसे ज्यादा राजनीतिक नुकसान भाजपा को ही होगा। क्योंकि यूपी में धुर मुस्लिम विरोध के चलते भाजपा ने जाटों में अपनी जो पैठ बनाई थी, वह किसान आंदोलन के कारण हाथ से फिसल सकती है। कहने को भाजपा में भी कुछ बड़े जाट नेता जैसे संजीव बालियान, सत्यपालसिंह आदि हैं, लेकिन अपने ही समाज के विरोध के बाद ये भी कितने टिक पाएंगे?
एक सवाल यह भी उठ रहा है कि क्या किसान नेता राकेश सिंह टिकैत किसान आंदोलन से हटकर अपने एजेंडे पर चल पड़े हैं, जिसका मकसद कृषि कानूनों की वापसी के साथ-साथ अपना राजनीतिक वर्चस्व कायम करना भी है। किसान महापंचायतों के आयोजन से यह संदेश भी जा रहा है। ऐसे में किसान आंदोलन के राजी-खुशी से खत्म होने के बजाए और भड़कने के आसार ज्यादा दिख रहे हैं। विवादित कृषि कानूनों की वापसी की मांग राजनीतिक आंकाक्षाओं में तब्दील होती जा रही है। जाट ही क्यों, अन्य राज्यों में कृषि कानूनों की वापसी के समर्थन में प्रभावशाली कृषक जातियां भी एकजुट होने लगीं तो इसका सबसे ज्यादा राजनीतिक खमियाजा भाजपा को ही भुगतना पड़ेगा। यह तय है। मोदी सरकार इस खतरे से किस तरह से ‘डील’ करती है, इस पर सबकी निगाहें हैं।