कुछ घटनाएं ऐसी होती हैं जो अपने घट जाने के साथ-साथ समाज के लिए सोचने विचारने को बहुत कुछ छोड़ जाती हैं। जैसे निर्भया कांड ने देश को दुष्कर्म के मामले में नए सिरे से सोचने को मजबूर किया और इतना अधिक दबाव बना कि सरकार को उस घटना से सबक लेकर, ऐसे अपराधियों को सजा दिलाने के लिए नए प्रावधान वाला कानून लेकर आना पड़ा।
ऐसे ही छोटे बच्चों के साथ होने वाली इसी किस्म की बर्बर घटनाओं के बाद समाज से आवाज उठी और सरकारों को सोचने पर विवश होना पड़ा। संयोग है कि मध्यप्रदेश ऐसा पहला राज्य बना जिसने नाबालिगों के साथ दुष्कर्म तथा सामूहिक दुष्कर्म की घटनाओं को अंजाम देने वाले अपराधियों को फांसी की सजा देने वाला कानून बनाया। देश के कई राज्यों ने ऐसे मामले निपटाने के लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट स्थापित किए।
उत्तरप्रदेश के बरेली जिले के विधायक राजेश मिश्रा की बेटी साक्षी मिश्रा का मामला भी मुझे लगता है, आने वाले दिनों में नई बहस का आधार बनेगा। मनमर्जी से विवाह या अंतरजातीय विवाह समाज में सदियों से होते आए हैं। और ऐसा तमाम पारिवारिक एवं सामाजिक विरोध के बावजूद हुआ है। इसलिये यह तो कतई नहीं है कि साक्षी मिश्रा का प्रकरण अंतरजातीय विवाह का पहला या अंतिम प्रकरण है और उनके पिता का विरोध किसी भी परिवार द्वारा उठाया गया पहला या अंतिम कदम।
जैसे जैसे समाज की स्थितियां बदल रही हैं, संचार के साधन बढ़ रहे हैं और सोशल मीडिया के प्लेटफार्म उपलब्ध हो रहे हैं, युवाओं में मेलजोल उसी गति से बढ़ रहा है। अब ऐसी मेल मुलाकातों के लिए पहले की तरह प्रत्यक्ष मिलने की जरूरत भी नहीं रही, संचार के संसाधन परोक्ष संपर्क को ही प्रत्यक्ष संपर्क के रूप में साकार कर देने की क्षमता रखते हैं।
लेकिन जैसे जैसे संचार की सुविधाएं और मेलजोल के मंच बढ़ रहे हैं समाज में कई तरह की जटिलताएं भी देखने को मिल रही हैं। ऐसे संसाधनों ने मित्रता और धोखाधड़ी दोनों को सुगम बनाया है। अब यह व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह इस जाल में फंसने से पहले अपने विवेक से यह तय करे कि उसका निर्णय सही राह पर ले जाने वाला है या गलत राह पर।
दरअसल इन संसाधनों का आकर्षण ऐसा मायावी संसार रचता है कि उसके इंद्रजाल के आगे सही और गलत का अंतर समझ ही नहीं आता। ऐसे मौकों पर व्यक्ति के मित्र और परिवारजन ही काम आते हैं। समाज ने, परिवार और परिजनों या मित्रों को, अघोषित रूप से यह जिम्मेदारी दे रखी है कि वे अपने से जुड़े लोगों के हित अहित पर नजर रखते रहें और यदि भटकाव जैसी कोई स्थिति बन रही है, तो व्यक्ति को उस राह पर जाने से रोकें।
मैं यह नहीं कहता कि इस तरह की रोक टोक में ज्यादती नहीं होती। बेटियों के प्रति रवैया यदि अमानवीय नहीं होता, तो हमें समाज में ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ जैसे अभियान चलाने ही नहीं पड़ते। हमें महिला पुरुष आबादी में बढ़ रहे गंभीर अंतर को पाटने के लिए योजनाएं नहीं बनानी पड़तीं। यदि हमने ऐसा किया है, तो निश्चित ही इसके ठोस कारण रहे हैं। मैं आज यह भी मानने को तैयार नहीं हूं कि बेटियों के प्रति समाज का मानस पूरी तरह बदल गया है।
इसके बावजूद यदि समाज में थोड़ा बहुत बदलाव हो रहा है, जो कि वास्तव में हो रहा है, तो हमारी कोशिश होनी चाहिए कि हम उसे कितने सकारात्मक रूप से और आगे बढ़ा सकें। घटनाओं को तो सामने लाना ही चाहिए, क्योंकि ये घटनाएं ही हैं जो हमारी आंखें खोलती हैं और हमें समस्या का निदान खोजने की तरफ प्रेरित भी करती हैं। पर यह नहीं होना चाहिए कि हम निदान खोजने चलें और समस्या को और अधिक उलझा दें।
मैंने माता-पिता को खलनायक न बनाने वाली बात इसलिए कही क्योंकि मुझे लगता है कि बेटी के बालिग होने तक वे ही होते हैं जो उसे पालने पोसने के साथ-साथ सही और गलत का मतलब समझाते हैं, उसे संस्कार और अनुशासन की सीख देते हैं। हां, कई जगह ऐसा करने में लड़के-लड़कियों के बीच भेदभाव होता है, पर ऐसा कतई नहीं है कि सही गलत का भेद और संस्कार व अनुशासन की बात लड़कों के मामले में की ही नहीं जाती।
फिर हम क्यों ऐसे मामलों की रिपोर्टिंग करते समय उसे हर बार स्त्री पुरुष के भेदभाव का मामला बताने पर उतारू हो जाते हैं, क्यों हर बार इस दरार को पाटने के बजाय उसे खाई में तब्दील करने के लिए मानवीय रिश्तों पर टिकी समाजिक बुनियाद की निर्ममता से खुदाई करने लग जाते हैं। ऐसा करते समय क्या एक पल को भी हमारे मन में यह बात नहीं आती कि इसका दूरगामी परिणाम घातक भी हो सकता है।
साक्षी मिश्रा प्रकरण में एक पक्ष वह खुद है तो दूसरा पक्ष उसके पिता या उसका मायका है। घटना को जिस तरह रिपोर्ट किया गया उससे ऐसा लगा मानो दूसरे पक्ष का अस्तित्व ही नहीं है। मैं यह बात व्यापक परिप्रेक्ष्य में कह रहा हूं कि 18 साल का हो जाने या बालिग होने की कानूनी उम्र हासिल कर लेने का मतलब यह कतई नहीं हो जाता कि आपको तमाम दुनियादारी का ज्ञान हो गया है।
12 साल पहले रामगोपाल वर्मा की एक फिल्म आई थी ‘निशब्द’। मेरा मानना है कि वह हमें जरूर देखनी चाहिए। इंसानी जजबात और रिश्तों की बुनावट कितनी जटिल होती है वह फिल्म इस बात को बहुत प्रभावी अंदाज में प्रस्तुत करती है। उस फिल्म का एक संवाद है जिसमें 18 साल की बच्ची से प्रेम की बात कबूलने वाले 60 साल के विवाहित बुजुर्ग से उसके ही परिजन सवाल करते हैं- ‘’क्या तुम सोचते हो कि एक 18 साल की लड़की में इतनी समझ होती है… क्या तुम मानते हो कि वह अपने लिए सही फैसला कर रही है…’’
याद रखिये, हर मां बाप के सिर पर, हर परिवार के सिर पर, समाज का यह सवाल चौबीस घंटे लटका रहता है। और कुछ अनहोनी हो जाने पर जब समाज तेजाबी बौछार के रूप में यह सवाल फेंकता है, तब उस परिवार को बचाने कोई अंजना, कोई रुबिका, कोई अर्णव या कोई अमीश नहीं आता…