नासमझ तो ठीक हैं पर पढ़े लिखों को क्‍या हुआ?

लखनऊ के पासपोर्ट कार्यालय में पिछले दिनों हुए तन्‍वी सेठ कांड को लेकर मैंने लिखा था- ‘’दरअसल हमने, जिसमें सबसे ज्यादा मीडिया शामिल है, देश में ऐसा माहौल बना दिया है कि जब सीधी तरह से या मनमुताबिक बात न बने तो मामले को या तो हिन्दू मुस्लिम बना दो या फिर सवर्ण और दलित…।‘’

‘’राजनीति तो यह काम कर ही रही है, उसकी पूर्णाहुति की सुपारी मीडिया ने उठा ली है। आंखें चढ़ाकर या होठ बिचका कर कैमरे के सामने मटकने वाले एंकर बैठाए ही इसलिए गए हैं कि कब कोई चिंदी हाथ लगे और कब वे उसे थान में बदल दें। उनके हाथ में तथ्यों का कागज नहीं बल्कि मिर्च मसाले का डिब्बा होता है जिसे वह हर वाक्य पर छिड़कते चलते हैं।‘’

अकसर मीडिया ट्रायल की बात उठती है। कहा जाता है कि मीडिया किसी मुद्दे को यदि कोई खास रंग दे दे तो जांच एजेंसियों से लेकर अदालतें तक उससे प्रभावित होने लगती हैं। खुद कई अफसरों और न्‍यायाधीशों ने अनौपचारिक बातचीत में ऐसे दबाव की बात मंजूर की है।

लेकिन नई परिस्थिति में मीडिया खुद ही इस तरह के ट्रायल का शिकार होता नजर आ रहा है। मुख्‍य मीडिया पर इस तरह का दबाव सोशल मीडिया के जरिए बनवाया जाने लगा है। अब कोई घटना या मुद्दा जैसे ही सोशल मीडिया पर चर्चित हुआ या कोई व्‍यक्ति ट्रोल किया जाने लगा तो वह आंख मूंदकर मुख्‍य मीडिया का विषय बना लिया जाता है।

पिछले दिनों हुई तीन घटनाओं को उदाहरण के रूप में लें। पहली घटना कठुआ की है जहां एक बच्‍ची के साथ गैंगरेप की वारदात हुई। यह विशुद्ध रूप से घिनौना और बर्बर अपराध था जिसे हिन्‍दू मुस्लिम एंगल दे दिया गया। वहां आरोपियों के पक्ष और विपक्ष में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिशें हुईं और मूल मुद्दा किनारे हो गया।

उसके बाद झारखंड के खूंटी में एक नुक्‍कड़ नाटक मंडली के साथ गैंग रेप की घटना हुई जिसके आरोपियों में एक पादरी का भी नाम आया और उसके बाद यह चर्चा चल पड़ी कि किस तरह ईसाई मिशनरी के लोग बलात्‍कार जैसे अपराधों को अंजाम देने लगे हैं। इस मामले को भी धर्म के नजरिये से देखा गया।

और अब मंदसौर की घटना को लेकर ऐसे ही सवाल उठाए जा रहे हैं। पूछा जा रहा है कि आरोपी एक विशिष्‍ट समुदाय से हैं क्‍या इसलिए उनके बारे में मीडिया और राजनीतिक बिरादरी इतनी चुप है। जो लोग कठुआ की घटना को लेकर आसमान सिर पर उठाए हुए थे अब वे कहां हैं, अब क्‍यों उनके ट्वीट की बौछार नहीं हो रही, अब क्‍यों दिल्‍ली में मोमबत्तियां नहीं जल रहीं…???

सबसे बड़ा सवाल यह है कि हम किसी अपराधी को सिर्फ अपराधी की तरह देखकर उसे कानूनन सजा दिलवाने की बात क्‍यों नहीं कर रहे। क्‍या अब किसी भी अपराध की सजा अपराधी के हिन्‍दू, मुस्लिम या ईसाई होने के आधार पर तय होगी या उसके द्वारा किए गए अपराध की गंभीरता पर…? हमारा मकसद किसी अपराधी को सजा दिलाना है या फिर किसी हिन्‍दू या मुसलमान को…

यह नजरिया किसी गंभीर विषाणु की तरह हमारे दिमाग में फैलता जा रहा है। इसीका नतीजा है कि आतंकवादी घटनाएं होने पर हिंदू या मुस्लिम आतंकवाद जैसे शब्‍द गढ़े जाते हैं। आतंकवाद का दायरा भी राजनीति धर्म और रंग से तय करने लगी है और इसीलिए कभी या तो हिंदू आतंकवाद जैसा जुमला उछाला जाता है तो कभी भगवा आतंकवाद का…

और इसका परिणाम क्‍या होता है वह भी हमारे सामने है। लखनऊ की घटना में वही हुआ। सरकारों के मानस पर भी इस तरह का दबाव हावी है। जैसे ही एक महिला मीडिया के सामने आकर यह कहती है कि एक मुस्लिम से शादी करने के कारण पासपोर्ट कार्यालय के कर्मचारियों ने उसे प्रताडि़त किया तो मीडिया उसमें छिपे सनसनी तत्‍व को लपकते हुए बात का बतंगड़ बना देता है और विभाग की मंत्री बगैर जांच पड़ताल के उस कर्मचारी के खिलाफ कार्रवाई कर डालती हैं।

घटनाओं के संप्रदायीकरण का नतीजा क्‍या हो रहा है इसे हाल ही में मेरठ जिले में हुई एक घटना से समझिये। वहां के लिसाड़ी गांव में 21 जून को बाइक की टक्कर को लेकर दो पक्षों में विवाद हुआ। इस मामले में पुलिस ने दो लोगों को जेल भेज दिया। उस पक्ष ने आरोप लगाया कि पुलिस ने इस मामले में एकतरफा कार्रवाई की। उसके बाद गांव में उसी पक्ष के कई लोगों ने अपने मकान बेचने के पोस्टर लगा दिए।

जो पोस्‍टर लगे उसकी भाषा पढि़ए, उनमें लिखा था- ‘’यह मकान बिकाऊ है। मैं मुसलमान हूं। मैं अपना मकान बेच रहा हूं। यहां छोटे छोटे विवादों पर भी सम्‍पर्क दाई (इसे सांप्रदायिक पढ़ें) का रूप दे दिया जाता है।‘’

मेरठ के एसपी का कहना है कि दो लोगों के इस झगड़े को साम्प्रदायिक रूप देने की कोशिश की गई। जबकि जिन लोगों ने गलती की थी, उनके ही खिलाफ केस दर्ज किया गया। जब गिरफ्तारी के लिए दबिश दी जाने लगी, तो दबाव बनाने के लिए अपने घरों के दरवाजे पर मकान बेचने के पोस्‍टर लगा दिए गए। दरअसल यह सब आरोपियों को बचाने और पुलिस पर दबाव बनाने के लिए किया जा रहा है।

अब जरा सोचिये, जो लोग सांप्रदायिक शब्‍द तक ठीक से नहीं लिख सकते और उसे ‘संपर्क दाई’ लिखते हैं उनमें इतनी मेधा कहां से आ गई कि वे पुलिस की कार्रवाई से आरोपियों को बचाने के लिए अपने मकानों पर इस तरह के पोस्‍टर लगा लें। निश्चित रूप से इसके पीछे कई शातिर दिमाग काम कर रहे हैं।

चूंकि लोगों को मालूम है कि ऐसे चार चिंदे दरवाजे पर लटका लेने से मीडिया उछलता कूदता चला आएगा और उनके पक्ष में हवा बना देगा इसलिए वे इसे अचूक नुस्‍खे के रूप में इस्‍तेमाल कर रहे हैं। लपकू मीडिया की लार तो ऐसे लड्डू खाने के लिए टपकती ही रहती है।

बड़ी चिंता यह है कि नासमझ, अपढ़ या कम पढ़े लिखे लोग तो इस तरह बहकाये जा सकते हैं पर उन लोगों को क्‍या हुआ जो अच्‍छे खासे पढ़े लिखे हैं, बुद्धिजीवी हैं और सरकार से लेकर निजी कपंनियों में ऊंचे ऊंचे ओहदों पर रहे हैं। जब वे भी मंदसौर जैसी घटनाओं को लेकर ‘मकान बिकाऊ है’ शैली में सोशल मीडिया पर प्रतिक्रियाएं देने लगते हैं तो लगता है घटनाओं, अपराधों और मुद्दों पर सांप्रदायिकता के लेप से कोई भी अछूता नहीं है…  (जारी)

 

 

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