दो दिन पहले मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल से सटे हुए जिले रायसेन से एक अखबार में खबर छपी जिसका शीर्षक था- ‘’पांच दिन से डॉक्टर नहीं, नवजात की मौत, सिविल सर्जन बोले- क्या डॉक्टर बनाकर ले आऊं’’
खबर के मुताबिक रायसेन जिला अस्पताल की सिक न्यूबोर्न केयर यूनिट (एसएनसीयू) में पांच दिन से डॉक्टर न होने पर एक बच्चे की मौत हो गई। वहां पांच बच्चों की हालत गंभीर होने पर उन्हें भोपाल रेफर किया गया है।
बताया गया कि एसएनसीयू में जो एकमात्र डॉक्टर तैनात था उसका भी 4 जुलाई को तबादला कर दिया गया और अब रायसेन जिला अस्पताल में इस यूनिट को देखने वाला कोई विशेषज्ञ डॉक्टर नहीं है। सारी व्यवस्था नर्सों के भरोसे चल रही है।
अखबार ने यह भी रिपोर्ट किया है कि- ‘’इस बीच अस्पताल प्रबंधन के जिम्मेदार अफसर डॉ. बीबी गुप्ता की एक नवजात के पिता पुष्पेंद्र से मोबाइल पर बहस भी हुई और उन्होंने कहा ‘क्या डॉक्टर बनाकर ले आऊं।‘’
इस घटना को लेकर स्वास्थ्य और चिकित्सा व्यवस्था पर कई सवाल उठाए गए हैं और अस्पताल के जिम्मेदार अधिकारियों के कथित गैर जिम्मेदाराना रवैये की आलोचना की गई है। निश्चित रूप से यह गंभीर मामला है और इस दिशा में तत्काल कार्रवाई होनी चाहिए।
लेकिन ऐसा नहीं है कि यह सब सिर्फ रायसेन के जिला अस्पताल में ही हो रहा हो। मध्यप्रदेश के करीब करीब सभी सरकारी अस्पतालों की यही दुर्दशा है। अव्वल तो वहां पर्याप्त मात्रा में डॉक्टर नहीं हैं, डॉक्टर हैं तो दवाएं नहीं है और दवाएं हैं तो अन्य सुविधाएं बेहाल हैं…
मेरे हिसाब से इस समस्या के दो पहलू हैं और हमें समान रूप से दोनों पर ही ध्यान देना होगा। फौरी तौर पर जब भी ऐसे मामले आते हैं ड्यूटी पर मौजूद डॉक्टर या अस्पताल के सीनियर अधिकारी गुस्से का शिकार बनते हैं। मैं यह नहीं कहता कि अस्पतालों में डॉक्टरों का रवैया हर समय सहयोगपूर्ण और मानवीय ही होता है…
लेकिन जब भी हम अस्पतालों में मौजूद डॉक्टरों के व्यवहार और उनकी कार्यप्रणाली को लेकर सवाल उठाते हैं तो दूसरा बहुत बड़ा पक्ष है जिसे नजरअंदाज कर दिया जाता है। ड्यूटी पर तैनात डॉक्टर चूंकि सामने होता है इसलिए सारा नजला उसी पर गिर जाता है।
जिस खबर का मैंने जिक्र किया उसमें अस्पताल की प्रशासनिक व्यवस्था के लिए जिम्मेदार डॉक्टर का वह कथन बहुत ध्यान देने योग्य है कि ‘’क्या मैं डॉक्टर बनाकर ले आऊं?’’ खबर के लिहाज से उसका यह बयान उत्तेजना पैदा कर सकता है, लेकिन उसमें छिपी हकीकत और पीड़ा को समझना भी जरूरी है।
मैं समझता हूं उस डॉक्टर ने यह बयान देकर प्रदेश की समूची स्वास्थ्य व्यवस्था की मूल समस्या की ओर इंगित किया है। सचमुच हमारे अस्पतालों में डॉक्टरों की भारी कमी है और जो भी लोग काम कर रहे हैं वे जैसे तैसे अस्पतालों की व्यवस्था को कामचलाऊ तौर पर संभाल भर रहे हैं।
हमें याद रखना होगा कि डॉक्टर कोई सामान नहीं है जो बाजार से खरीद कर ले आया जाए। वह एक अत्यंत कुशल मानव संसाधन है जिसे जुटाना सरकारों का काम है और कड़वी सचाई यह है कि हमारी सरकार तमाम लोक लुभावन घोषणाओं के बावजूद अस्पतालों के लिए सबसे जरूरी इस मानव संसाधन को जुटाने में नाकाम रही हैं।
सोमवार को ही भोपाल के एक अन्य अखबार में पहले पन्ने पर प्रमुखता से छपी खबर कहती है कि मध्यप्रदेश में पिछले नौ सालों के दौरान डॉक्टरों की कमी के कारण ही 72 हजार नवजात शिशुओं की मौत हो गई। और इस अवधि में दम तोड़ने वाले बच्चों की संख्या कमोबेश हर साल बढ़ी ही है।
आंकड़ों पर नजर डालें तो 2010-11 में एसएनसीयू में 3281 बच्चों की मौत हुई थी, जबकि 11-12 में 5600,12-13 में 7499, 13-14 में 9785, 14-15 में 9683, 15-16 में 11481, 16-17 में 12963 और 17-18 में 11978 बच्चे अस्पताल में इलाज के दौरान चल बसे।
याद रखें ये वो बच्चे हैं जो अस्पताल में खासतौर से गंभीर रूप से बीमार बच्चों के इलाज के लिए बनाई गई विशेष यूनिट में भरती थे। यानी विशेष यूनिट में भी बच्चों को समुचित इलाज नहीं मिल पा रहा है या उनकी देखभाल नहीं हो पा रही तो फिर ऐसे ढांचे खड़े करने का अर्थ क्या है?
एक बार फिर रायसेन का ही उदाहरण लीजिए। खबर खुद कहती है कि वहां एसएनसीयू को देखने वाला सिर्फ एक डॉक्टर था और उसका भी चार जुलाई को तबादला कर दिया गया। आखिर ये कौनसा प्रशासनिक प्रबंधन है जहां सिर्फ एकमात्र मौजूद डॉक्टर को भी वहां से हटा दिया जाता है।
कहा जाएगा कि तबादला एक प्रशासनिक प्रक्रिया है। मुझे नहीं मालूम कि रायसेन में एसएनसीयू के उस प्रभारी डॉक्टर को किन हालात में वहां से हटाने की जरूरत पड़ी, लेकिन क्या उसे हटाने से पहले यह तक नहीं सोचा गया कि उसके हटने से इस अस्पताल में बच्चों का इलाज कौन करेगा?
और चलिए आपने किसी कारण से हटा दिया तो आपको उसकी वैकल्पिक व्यवस्था करनी चाहिए थी। अरे,आंख पर पट्टी बांधकर चलने वाला भी इतनी मामूली सी बात का अंदाजा लगा सकता है, लेकिन लगता है कि जो लोग शासन और प्रशासन चला रहे हैं, उनकी आंख पर ही नहीं दिमाग पर भी पट्टियां बंधी हुई हैं…
ऐसी ‘दृष्टिहीन गवर्नेंस’ का नतीजा यह हो रहा है कि एक तरफ अस्पतालों में काम कर रहे गिने चुने डॉक्टर भी गालियां खा रहे हैं और दूसरी तरफ इलाज से महरूम बच्चे दम तोड़ रहे हैं। और ये हालात तब हैं जब मध्यप्रदेश कई सालों से शिशु मृत्यु दर में देश में अव्वल बना हुआ है… (जारी)