राकेश अचल
भारत में जल स्रोतों के साथ कैसा दुर्व्यवहार किया जाता है अगर ये देखना है तो आपको मध्यप्रदेश के ग्वालियर शहर आना चाहिए। हजारों साल का इतिहास साथ लेकर चलने वाले इस ऐतिहासिक शहर में युगों से एक नदी बहती थी, इसका नाम था स्वर्णरेखा। किसी नदी का नाम कैसे रखा जाता है इसकी कोई विधि या विधा हो तो मुझे नहीं मालूम, लेकिन हर नदी के नामकरण के पीछे कोई न कोई कहानी या किंवदंती जरूर प्रचलित होती है। स्वर्णरेखा के साथ भी एक किंवदंती है।
कहते हैं कि ग्वालियर के सिंधिया शासकों का एक हाथी एक बार जंजीर तोड़कर इस अनाम नदी में जा कूदा और जब वो हाथी कोई 18 किमी लम्बी इस नदी से बाहर निकला तो उसके पांवों में पड़ी लोहे की सांकल सोने की हो गई। राजा को जब इस चमत्कार का पता चला तो उसने इस नदी का नाम स्वर्णरेखा रख दिया। राजा कौन था इसका पता किसी को नहीं है। किंवदंती जो ठहरी। बहरहाल इस स्वर्णरेखा को अब नदी नहीं नाला कहा जाता है। अब यही नाला सरकार और जनसेवकों के लिए कामधेनु बन चुका है।
स्वर्णरेखा नाला किसकी सम्पत्ति है, कोई नहीं जानत। कभी सिंचाई विभाग इसे अपना बताता है तो कभी नगर निगम। कभी लोकस्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग इसका स्वामी बन जाता है तो कभी स्मार्ट सिटी परियोजना। कभी सिंधिया इसके स्वामी होते हैं तो कभी नरेंद्र सिंह तोमर। यानी स्वर्णरेखा न हुई बेचारी पांचाली बन गयी। जब जिसका मन आया तब वह इसका उद्धारकर्ता बन गया।
वर्षों पहले जल संसाधन मंत्री बने स्थानीय भाजपा नेता अनूप मिश्रा ने इस स्वर्णरेखा को सीमेंट से पक्का करा दिया, उनका सपना इसमें नौकायन कराने का था। इससे पहले के एक भाजपा नेता शीतला सहाय इसे टेम्स की तरह रौनक देना चाहते थे। उनका सपना तो सपना ही रहा लेकिन अनूप मिश्रा का सपना साकार हो गया। उनके मामाश्री अटल बिहारी बाजपेयी प्रधानमंत्री बने तो वे केंद्र से इस नाले के लिए छह सौ करोड़ की एक परियोजना स्वीकृत करा लाए। इस योजना से नाले का उद्धार तो नहीं हुआ लेकिन सिंचाई विभाग के चपरासी से लेकर मंत्री तक तर गए।
दिन बदले तो लोकस्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग ने इस स्वर्णरेखा नाले में अपनी सीवर लाइन बिछा दी और ऐसा करते हुए अनूप मिश्रा के समय खर्च किया गया पैसा इसी नाले में बह गया। पैसा सकारी होता है इसलिए किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। नगर निगम को मौक़ा मिला तो उसने इसी नाले में कई जगह पक्की सड़कें बना डालीं। कोई रोकने वाला ही नहीं था। नाले के एक हिस्से में कुछ दिन सीवर का गंदा पानी रोककर नौकायन भी कराया गया लेकिन बाद में नाला केवल नाला ही रह गया। स्वर्ण रेखा के मुहाने नेताओं के अतिक्रमण के शिकार हो गए, जिसने जहाँ चाहा, अपना काम्प्लेक्स बना लिया।
स्वर्णरेखा नाले का रिश्ता पहले स्वतंत्रता संग्राम की अमर सेनानी झांसी की रानी लक्ष्मी बाई से भी रहा है। कहा जाता है कि इसी नाले में फंस कर रानी का नया घोड़ा जख्मी हो गया था और इसी कारण रानी को अंग्रेजों की गोली का शिकार होना पड़ा था। नाले के एक किनारे पर रानी की समाधि बनी हुई है। सुभद्रा कुमारी चौहान ने लिखा भी-
तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार,
किंतु सामने नाला आया, था वो संकट विषम अपार,
घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गये सवार,
रानी एक, शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार-पर-वार,
घायल होकर गिरी सिंहनी, उसे वीर गति पानी थी…
स्वर्णरेखा नाले पर पिछले दिनों स्मार्ट सिटी परियोजना प्रशासकों की नजर पड़ी तो उन्होंने इसके लिए एक योजना अलग से बनाकर टेंडर प्रक्रिया शुरू कर दी। स्मार्ट सिटी वाले इस नाले के किनारे एक सड़क बनाना चाहते हैं। अमृत योजना वालों को ये नाला सीवर लाइन डालने के लिए चाहिए और राज्यसभा सदस्य ज्योतिरादित्य सिंधिया इस नाले पर एक एलीवेटेड रोड बनवाना चाहते हैं। कोई इस स्वर्णरेखा से नहीं पूछता की वो क्या चाहती है?
दुनिया का कोई और शहर होता तो मुमकिन है कि स्वर्णरेखा सचमुच स्वर्ण रेखा बनी रहती, लेकिन ग्वालियर वालों ने उसे पांचाली बना दिया है। मैंने कुछ वर्ष पहले अमेरिका के टेनिसी में एक ऐसा ही नाला कलकल करते देखा था, लेकिन स्वर्णरेखा तो भारत में है, जहाँ गंगा-जमुना तक महफूज नहीं हैं फिर स्वर्ण रेखा नाले की क्या बिसात? आने वाले दिनों में स्वर्णरेखा का क्या होगा भगवान ही जाने। क्योंकि यहां की जनता मूक और नेता बहरे हैं।