इधर जानें जा रही हैं और उधर कानून लटका पड़ा है

भोपाल में रविवार की रात हुई एक दहला देने वाली दुर्घटना ने एक बार फिर सड़क पर होने वाली असामयिक मौतों की ओर समाज का ध्‍यान खींचा है। इस दुर्घटना में एक साथ 6युवकों की जान चली गई, ये सभी युवक 30 साल से कम उम्र के थे।

मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक राजधानी के एक युवक का जन्‍मदिन मनाने ये सभी छह युवक मिलकर कोलार बांध इलाके में गए थे। लौटते समय उनकी कार अनियंत्रित होकर बांध की नहर में जा गिरी और सभी युवकों की कार के अंदर ही मौत हो गई।

सड़क दुर्घटनाओं में होने वाली मौतों की खबरें नई नहीं हैं। शायद ही कोई दिन ऐसा जाता हो जब ऐसी दुर्घटना में किसी न किसी के मरने की खबर न आती हो। जैसे जैसे वाहन और रफ्तार के खेल का विस्‍तार होता जा रहा है दुर्घटनाओं में भी उसी अनुपात में इजाफा हो रहा है।

सड़क पर होने वाली मौतें, ऐसी मौतें हैं जिन्‍हें थोड़ी सी सावधानी या प्रशिक्षण से टाला जा सकता है। यदि ड्राइविंग करने वाला व्‍यक्ति एहतियात बरते तो न सिर्फ खुद उसकी बल्कि उसकी सावधानी से बाकी कई लोगों की जान बच सकती है।

यह संयोग ही है कि जिस दिन भोपाल में इस दिल दहला देने वाली दुर्घटना की खबर छपी है उसी दिन अखबारों में यह खबर भी नुमायां हुई है कि संसद का उच्‍च सदन यानी राज्‍यसभा, केंद्र सरकार द्वारा लाए गए नए सड़क सुरक्षा कानून पर विचार कर रहा है।

मोटर वाहन (संशोधन) विधेयक 2017 को लोकसभा अप्रैल 2017 में ही पारित कर चुकी है, लेकिन राज्यसभा ने उस समय इसे पारित करने के बजाय सिलेक्ट कमेटी के पास भेज दिया था। सोमवार को जब यह बिल वहां चर्चा के लिए आया तो विपक्षी दलों ने इसके कुछ प्रावधानों पर आपत्ति करते हुए कहा कि इसमें कॉरपोरेट को फायदा पहुंचाने की बू आ रही है।

फिर मंगलवार को खबर आई कि विपक्ष के दबाव के चलते इस विधेयक को एक बार फिर टाल दिया गया है। विपक्ष को जिस प्रावधान पर सबसे ज्‍यादा आपत्ति है वह डीलरों को वाहन रजिस्ट्रेशन के अधिकार देना है। विपक्षी सदस्‍यों का कहना है कि ऐसा करके प्राइवेट कंपनियों को फायदा पहुंचाया जा रहा है।

जबकि सरकार का मत है कि इससे वाहन खरीददारों को ही फायदा होगा और लोगों को वाहन खरीदकर रजिस्ट्रेशन के लिए ट्रांसपॉर्ट अथॉरिटी जाने की जरूरत नहीं होगी। इससे सरकारी दफ्तरों में होने वाले भ्रष्‍टाचार पर रोक लगेगी। विपक्ष की दलील है कि सरकारी अथॉरिटी की तुलना में निजी ऑपरेटर रजिस्‍ट्रेशन की मनमानी दरें वसूल सकते हैं।

दूसरा मामला नैशनल ट्रांसपोर्ट पॉलिसी का है जिसमें अंतर्राज्‍यीय मार्गों पर चलने वाली बसों के रूट के नियम बनाने की बात है। विपक्ष मानता है कि यह राज्‍यों के अधिकार का मामला है और इसमें केंद्र को हस्‍तक्षेप नहीं करना चाहिए। जबकि केंद्र सरकार का कहना है कि रूट वहीं तय होंगे जहां राज्‍य सरकारें सहमत होंगी।

विपक्ष की दूसरी आपत्ति नैशनल ट्रांसपॉर्ट पॉलिसी पर है, जिसमें इंटर-स्टेट रूटों पर चलने वाली बसों के रूटों को लेकर नियम बनेंगे। विपक्ष का कहना है कि यह राज्यों के अधिकार का मामला है। नए प्रावधान के जरिये केंद्र, राज्यों के अधिकारों पर हमला कर रहा है। जबकि केंद्र सरकार का कहना है कि इस पॉलिसी में भी जहां राज्य तैयार होंगे, वहीं बस रूटों का फैसला लिया जाएगा।

एक अन्‍य आपत्ति डिजिटल पेमेंट और नेशनल तथा स्‍टेट परमिट नीति को लेकर है। विपक्ष कह रहा है कि डिजिटल पेमेंट के चलते राज्‍यों को उनके हक का पैसा पूरा नहीं मिल पाएगा जबकि केंद्र का तर्क है कि इससे लोगों को टैक्‍स आदि भरने में आसानी होगी।

असहमति का पेंच फंस जाने के कारण अब इस मामले को परिवहन मंत्री नितिन गडकरी खुद देखेंगे। वे बिल पर आपत्ति करने वाले विपक्षी दलों के नेताओं से बात करके या तो उन्‍हें राजी करेंगे या फिर सरकार कुछ प्रावधानों में बदलाव कर विपक्ष को मनाएगी।

यानी हजारों लाखों लोगों की जिंदगी से जुड़े इस मामले में भी एक बार फिर राजनीति आड़े आई है। इस बिल का हश्र भी जीएसटी जैसा होता नजर आ रहा है, जहां विपक्ष ने पहले टैक्‍स की दरों व स्‍लैब को लेकर आपत्ति की थी और बड़ी मुश्किल से वह बिल पास हो सका था। अब सारा देश देख रहा है कि टुकड़ों टुकड़ों में जीएसटी की दरों में भी लगातार संशोधन हो रहे हैं।

ऐसा लगता है कि देश और समाज से जुड़ी गंभीर समस्‍याओं के मामले में भी न तो सरकार विपक्षी दलों को पूरी तरह विश्‍वास में ले पा रही है और न ही विपक्षी दल राजनीतिक हितलाभ को परे रखकर देशहित में कोई बात सोच पा रहे हैं।

देश में अभी जो मोटर वाहन कानून काम कर रहा है वह 1988 का यानी 30 साल पुराना है। इस अवधि में सड़क परिवहन और मोटरयान उद्योग का पूरा परिदृश्‍य ही बदल गया है। सड़कों पर लाखों की संख्‍या में वाहन उतर आए हैं और उनके कारण होने वाले जानमाल के नुकसान से पैदा होने वाली मुसीबतें भी लोग आए दिन झेल रहे हैं।

बदली हुई परिस्थितियों ने करीब करीब सारे शहरों में ट्रैफिक जाम, पार्किंग आदि समस्‍याओं को तो पैदा किया ही है, उसके साथ साथ प्रदूषण और सड़क दुर्घटनाओं का दायरा भी लगातार बढ़ता जा रहा है। ऐसे में जरूरी है कि इस मामले पर राजनीतिक सहमति बनाई जाए और नया कानून जल्‍द से जल्‍द लागू हो।

जिस कानून को लोकसभा अप्रैल 2017 यानी करीब सवा साल पहले पारित कर चुकी हो उसका राज्‍यसभा में पारित न होकर अभी तक लटके रहना किसी भी सूरत में ठीक नहीं कहा जा सकता। जिस उद्योग का पूरा ढांचा बदल गया हो और जिस वजह से देश के लाखों लोगों की जान पर आए दिन संकट बढ़ रहा हो उस वजह को राजनीति के चक्रव्‍यूह में फंसाकर यूं टालते जाना समाज के कतई हित में नहीं है।

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