मप्र उपचुनाव: गुर्जर बनाम अन्य में फंसी है मुरैना की चुनावी कहानी

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मुरैना उपचुनाव

डॉ. अजय खेमरिया

पीले सोने (सरसों) के क्षेत्र मुरैना को आप मप्र में बसपा की उर्वरा भूमि भी कह सकते है। 1990 से यहां हार जीत का निर्धारण बसपा के प्रदर्शन पर ही निर्भर रहा है। सुमावली में जहां गुर्जर बनाम सिकरवार का ट्रेंड स्थापित हो गया है, वहीं जिला मुख्यालय की यह सीट भी गुर्जर बनाम सवर्ण, दलित ध्रुवीकरण का केंद्र बन गई है। ऐतिहासिक रूप से यह क्षेत्र जनसंघ बीजेपी का गढ़ है लेकिन 90 के दशक से यहां बसपा ने दलित बिरादरी के जरिये अपनी पैठ जबरदस्त ढंग से निर्मित की।

यूपी में मायावती के ब्राह्मण कार्ड का प्रभाव यहां भी फलीभूत हो चुका है। 2008 में बसपा के टिकट पर परशुराम मुदगल यहां से विधायक चुने गए थे। 2013 में भी बसपा के ब्राह्मण कैंडिडेट रामप्रकाश राजौरिया से बीजेपी के रुस्तम सिंह हार के किनारे पर आकर बमुश्किल 1704 वोट से जीत पाए थे। गौर करने वाली बात यह है कि रुस्तम सिंह को मुरैना शहर के लगभग सभी बूथों पर करारी हार झेलनी पड़ी थी। तब के कांग्रेस कैंडिडेट दिनेश गुर्जर की, वोटिंग पूर्व समर्पण की रणनीतिक जातीय गोलबंदी के चलते ही रुस्तम सिंह जीत पाए थे।

इस सीट पर ब्राह्मण, वैश्य, गुर्जर, दलित, ठाकुर कमोबेश बराबर की संख्यात्मक ताकत रखने वाली बिरादरी हैं। गुर्जर जाति ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में है। दलित और गुर्जर का सामाजिक साम्य यहां कभी नहीं रहता है, इसीलिए बसपा के नॉन दलित उम्मीदवार हर बार मुकाबले में आते है या बीजेपी कांग्रेस की जीत हार तय करते रहे है। वैसे यहां जाति का तत्व इस कदर हावी है कि ब्राह्मण, ठाकुर, वैश्य भी आपस में किसी भी मुद्दे पर समवेत नहीं रहते हैं।

मुरैना में शहरी और ग्रामीण वोटर लगभग बराबर है लेकिन वोटिंग बिहेवियर में कोई बड़ा अंतर नही है जैसा कि अन्य क्षेत्रों में देखा जाता है। उपचुनाव की बात करें तो यहां से बीजेपी के संभावित उम्मीदवार रघुराज कंषाना (गुर्जर) की छवि परम्परागत गुर्जर नेताओं के उलट एक भले व्यापारी नेता की है और 2018 में कांग्रेस टिकट से उनकी जीत में यह भी एक फैक्टर था।

लेकिन यहां कांग्रेस की जीत का सबसे बड़ा फैक्टर रुस्तम सिंह भी थे। यह तथ्य है कि बीजेपी यहां गलत प्रत्याशी चयन के कारण ही पराजित हुई थी। डीआईजी से सीधे विधायक बनने वाले रुस्तम सिंह कभी भी एक नेता के रूप में बीजेपी में स्वीकार्यता हासिल नहीं कर सके। वे चार बार यहां से लड़े और दो बार मंत्री रहते परास्त हुए। 2003 में उमा भारती की आंधी को छोड़कर शेष तीनों चुनावों में रुस्तम सिंह कभी भी बीजेपी कैडर और परम्परागत समर्थक वर्ग की स्वीकार्यता प्राप्त नहीं कर सके।

पहला चुनाव वह उमा भारती की हवा और डीआईजी की कुर्सी त्याग पर जीते और 2013 में वह कांग्रेस प्रत्याशी की रणनीतिक युगलबंदी के चलते जीत पाए। जाहिर है मुरैना में बीजेपी अगर शिकस्त खा रही है तो रुस्तम और संगठन का खुला अलगाव इसकी वजह है। ब्राह्मण, वैश्य, ठाकुर तीन बड़ी जातियां यहां रुस्तम सिंह के खुले विरोध में हैं इसी का फायदा कांग्रेस के सॉफ्ट चेहरे रघुराज कंषाना को 2018 में मिला।

उपचुनाव में रघुराज के सामने कांग्रेस अगर किसी गुर्जर को उम्मीदवार बनाती है तो तीसरी ताकत को कोई भी नजरअंदाज नहीं कर सकेगा। यह बसपा भी हो सकती है या अन्य कोई नॉन गुर्जर निर्दलीय भी।

कांग्रेस के पास जिलाध्यक्ष राकेश मावई रिंकू, प्रबल मावई दो सशक्त दावेदार हैु। एक नाम राकेश रुस्तम सिंह का भी यहां चर्चाओं में है। संभव है रुस्तम सिंह के बेटे राकेश अपने पिता की सीट से यहां चुनाव लड़ने के लिए कांग्रेस का दामन थाम लें। मुरैना सीट पर गुर्जर जाति के अंदरूनी गणित को भी समझना होगा। यहां मावई, कंषाना, हर्षाना, राणा, घुरैया आदि उपनाम वाले गुर्जरों के गांवों में बंटी यह जाति आपस में भी गहरे मतभेदों में फंसी रहती है।

रघुराज कंषाना मूलतः सुमावली के हैं और वे ऐदल सिंह की तरह जातिगत नेता नहीं है। रुस्तम सिंह की खिलाफत, 2 अप्रैल के सवर्ण दलित संघर्ष, कर्जमाफी और माई के लाल जैसे फैक्टर रघुराज की जीत के आधार थे। उपचुनाव में अगर राकेश या रिंकू मावई उम्मीदवार होंगे तो बीजेपी के रघुराज का जातीय गणित बुरी तरह फेल हो जाएगा। तब केवल बीजेपी के परम्परागत वोट उन्हें कितना मुकाबले में लायेंगे यह आसानी से समझा जा सकता है।

बसपा अगर रामप्रकाश राजौरिया, परशराम मुदगल या किसी वैश्य पर इस स्थिति में दांव लगा दे तो मुकाबला बसपा के इर्दगिर्द ही सिमट जाएगा। इस सीट पर करीब 25 हजार वैश्य वोटर हैं। सेवाराम गुप्ता यहां से बीजेपी के टिकट पर 1990 और 1998 में एमएलए रह चुके है। वर्तमान में के.एस.ऑयल के मालिक रमेश गर्ग इस बड़े वैश्य वर्ग के निर्विवाद नेता हैं। उनकी भूमिका हर चुनाव में खासा महत्व रखती है। फिलहाल वे किसकी तरफ हैं यह कहा नहीं जा सकता है।

केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया तीनों से रमेश गर्ग के नजदीकी रिश्ते हैं। जाहिर है रमेश गर्ग के समर्थन के बिना यहां रघुराज कंषाना की स्थिति सुधरेगी नहीं। करीब 15 हजार किरार, 10 हजार राठौर, 15 हजार ठाकुर और भोई, नाई, धोबी, कोली, कुशवाहा जैसी जातियों के समर्थन पर ही बीजेपी की संभावना यहां बनेगी। लेकिन इसके लिए तीनों बड़े नेताओं को अपना सब कुछ यहां दांव पर लगाना होगा।

मुरैना का वोटर बहुत ही वोकल माना जाता है और उसकी राजनीतिक समझ को समझना कोई कठिन नहीं है क्योंकि यहां जाति का आग्रह अंततः सब पर भारी पड़ता है। बीजेपी का प्रभाव यहां सामान्य रूप से स्वयंसिद्ध है क्योंकि 1991 से यहां लगातार बीजेपी का सांसद ही निर्वाचित होता आया है। यह भी समानन्तर रूप से तथ्य है कि लोकसभा और विधानसभा में यह ट्रेंड बिल्कुल बदलकर जातियों पर आ टिकता है।

सेवाराम गुप्ता तक ब्राह्मण, ठाकुर, ओबीसी और कुछ गुर्जर बीजेपी के साथ जाते रहे हैं, लेकिन रुस्तम सिंह के आने के बाद गुर्जरों के विरुद्ध बीजेपी की परम्परागत जातियों में भी अलगाव नजर आने लगा है। इस उपचुनाव में अगर बीजेपी व कांग्रेस दोनों ने गुर्जर उम्मीदवार उतारे तो यह स्पष्ट है कि मुरैना में लड़ाई त्रिकोणीय ही होने जा रही है।

बसपा के प्रभाव को समझने के लिए जरा इन आंकड़ों पर नजर डालिये: 1990 में 22.42 फीसदी, 1993 में 20.68 फीसदी, 1998 में 19.06 फीसदी, 2003 में 20.64 फीसदी, 2008 में 26 फीसदी, 2013 में 41 फीसदी, 2018 में 20 फीसदी वोट बसपा को मिले हैं।

बसपा का कोर वोटर जाटव यहां संख्या में लगभग 30 हजार से अधिक है जो ब्राह्मण उम्मीदवार के साथ हाथी निशान पर 2003 से लगातार साथ में खड़ा रहा है। यानी गुर्जर उम्मीदवार के साथ वह जाने के लिए तैयार नही है। हालांकि 2018 में रघुराज कंषाना को करीब 20 फीसदी वोट पहली बार मिल गया था, क्योंकि उनकी छवि दबंग गुर्जर या पुराने नेता की नहीं थी। साथ ही बसपा टिकट पर भी रामप्रकाश राजोरिया और बलबीर डंडोतिया में विवाद की स्थिति बन गई थी।

मुरैना के ब्राह्मण वर्ग में बीजेपी के प्रति फिलहाल नाराजगी का भाव है क्योंकि जिले की 6 में से किसी सीट पर दो चुनावों से ब्राह्मणों को मौका नहीं दिया गया है। हालांकि इस बार उपचुनाव में दिमनी से गिर्राज डंडोतिया मैदान में होंगे, लेकिन यह इस वर्ग को कितना संतुष्ट कर पायेगा फिलहाल नहीं कहा जा सकता है।

कुल मिलाकर मौजूदा दौर में मुरैना पर मामला बेहद पेचीदा है यह बीजेपी के तीन दिग्गज नरेन्द्र सिंह तोमर, शिवराज सिंह और सिंधिया के प्रभाव की भी अग्निपरीक्षा होगा। बीजेपी अगर अपने कैडर को संतुष्ट कर पाई और सिंधिया समर्थक खुद को ईमानदारी से नई पार्टी में समायोजित कर पाए तभी यहाँ का नतीजा आशानुरूप आ सकता है।

बीजेपी के लिए एक अच्छी बात यह है कि प्रदेशाध्यक्ष वी.डी. शर्मा भी मुरैना के ही हैं, इसलिए वह ब्राह्मणों को अपनी ओर लामबंद कर सकते हैं। कांग्रेस के सामने भी प्रत्याशी चयन का संकट कम नहीं है।

अलर्ट: डॉ. राजेश माहेश्वरी मुरैना के ख्यातिनाम सर्जन हैं, वे भी यहां से कांग्रेस टिकट के प्रबलतम दावेदार हैं। अगर कांग्रेस अपने गुर्जर नेताओं को दरकिनार कर उन्हें उतारने की हिम्मत दिखाएगी तो यहां 2013 का दृश्य निर्मित हो सकता है। तब मुरैना शहर के 160 पोलिंग स्टेशनों पर बीजेपी के रुस्तम सिंह केवल 9500 वोट हासिल कर सके थे। यह एंटी गुर्जर वोटिंग विहेवियर को समझने के लिए बड़ा आधार है। 2008 में जब रुस्तम सिंह परशराम मुदगल से हारे थे तब भी मुरैना, बामौर, रिठौरा के इलाकों में यही नतीजे आये थे।

जाहिर है गुर्जर फैक्टर दोनों दलों के लिए एक सिरदर्द भी है और विनिंग इक्वेशन भी।

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