वसंत आ गया
और मुझे पता नहीं चला
नया-नया पिता का बुढ़ापा था
बच्चों की भूख
और
माँ की खांसी से छत हिलती थी,
यौवन हर क्षण
सूझे पत्तों-सा झड़ता था
हिम्मत कहाँ तक साथ देती
रोज मैं सपनों के खरल में
गिलोय और त्रिफला रगड़ता था जाने कब
आँगन में खड़ा हुआ एक वृक्ष
फूला और फला
मुझे पता नहीं चला…
मेरी टेबल पर फाइलें बहुत थीं
मेरे दफ्तर में
विगत और आगत के बीच
एक युद्ध चल रहा था
शांति के प्रयत्न विफल होने के बाद
मैं
शब्दों की कालकोठरी में पड़ा था
भेरी संज्ञा में सड़क रुंध गई थी
मेरी आँखों में नगर जल रहा था
मैंने बार-बार
घड़ी को निहारा
और आँखों को मला
मुझे पता नहीं चला।
मैंने बाज़ार से रसोई तक
जरा सी चढ़ाई पार करने में
आयु को खपा दिया
रोज बीस कदम रखे-
एक पग बढ़ा।
मेरे आसपास शाम ढल आई।
मेरी साँस फूलने लगी
मुझे उस भविष्य तक पहुँचने से पहले ही रुकना पड़ा
लगा मुझे
केवल आदर्शों ने मारा
सिर्फ सत्यों ने छला
मुझे पता नहीं चला
– दुष्यंत कुमार