सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को एक ऐतिहासिक फैसले में मरणासन्न व्यक्ति द्वारा इच्छा मृत्यु के लिए लिखी गई वसीयत (लिविंग विल) को कुछ दिशानिर्देशों के साथ कानूनी मान्यता दे दी है। कोर्ट ने कहा कि मरणासन्न व्यक्ति को यह अधिकार होगा कि कब वह आखिरी सांस ले। लोगों को ‘सम्मान से मरने’ का पूरा हक है।
‘लिविंग विल’ दरअसल एक लिखित दस्तावेज होता है जिसमें कोई मरीज पहले से ही यह निर्देश दे देता है कि मरणासन्न स्थिति में पहुंचने या रजामंदी नहीं दे पाने की स्थिति में उसे किस तरह का इलाज दिया जाए। कानूनी भाषा में ‘पैसिव यूथेनेशिया’ (इच्छा मृत्यु) वह स्थिति है जब किसी मरणासन्न व्यक्ति को मौत की तरफ बढ़ाने की मंशा से उसका इलाज बंद कर दिया जाता है।
सुप्रीम कोर्ट में यह मामला लंबे समय से चल रहा था। चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच जजों की पीठ ने पिछले साल 11 अक्टूबर को इससे जुड़ी याचिका पर अपना फैसला सुरक्षित रखा था। ताजा फैसले के मुताबिक अब कोई मरणासन्न शख्स पहले से ही यह निर्देश दे सकता है कि उसके जीवन को वेंटिलेटर या आर्टिफिशल सपोर्ट सिस्टम पर लगाकर लम्बा नहीं किया जाए।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जीवन और मृत्यु को अलग नहीं किया जा सकता। हर क्षण हमारे शरीर में बदलाव होता है। बदलाव एक नियम है। जीवन और मौत अलग नहीं हैं, बल्कि मृत्यु जीने की प्रक्रिया का ही हिस्सा है। ‘पैसिव यूथेनेशिया’ और लिविंग विल को मान्यता देते हुए कोर्ट ने कहा कि ये ‘राइट टू लाइफ’ का पार्ट है।
गौरतलब है कि स्वयंसेवी संगठन ‘कॉमन कॉज’ ने इस मामले को लेकर दायर याचिका में कहा था कि संविधान के आर्टिकल 21 के तहत जैसे नागरिकों को जीने का अधिकार है, उसी तरह उन्हें मरने का भी अधिकार है। लेकिन केंद्र सरकार का मत था कि इच्छा मृत्यु की वसीयत (लिविंग विल) लिखने की अनुमति नहीं दी जा सकती, हां मेडिकल बोर्ड के निर्देश पर मरणासन्न व्यक्ति का सपोर्ट सिस्टम हटाया जा सकता है।
कोर्ट ने अपने फैसले में जो सबसे बड़ी बात कही है वो जीवन और मृत्यु के संबंधों और उनकी व्याख्या से जुड़ी है। अदालत ने जीवन की तुलना ‘दिव्य ज्योति’ से करते हुए इसके सम्मान की बात की और मृत्यु को जीने की प्रक्रिया का हिस्सा बताया। न्यायाधीशों ने इस संबंध में स्वामी विवेकानंद के कथनों सहित कई मशहूर कवियों की कविताओं का भी जिक्र किया। उन्होंने कहा कि ‘स्वाभिमान के साथ जीना हमारे जीवन जीने के अधिकार का अभिन्न अंग है।‘
सुप्रीम कोर्ट में जब यह मामला चल रहा था उन्हीं दिनों सरकार लिविंग विल आदि को लेकर कानून बनाने की प्रक्रिया में लगी थी। उसने संबंधित कानून के मसौदे में एक महत्वपूर्ण प्रावधान यह जोड़ा था कि पैसिव यूथनेशिया (निष्क्रिय इच्छामृत्यु) के मामले में गलत जानकारी दिए जाने पर दस साल की सजा और एक करोड़ रुपए का जुर्माना किया जा सकता है।
उसी दौरान 19 दिसंबर 2017 को मैंने इसी कॉलम में केंद्र सरकार के इस कदम का स्वागत करते हुए लिखा था कि ‘’भारत जैसे देश में इच्छामृत्यु का मामला बहुत संवेदनशील है। यहां के सामाजिक और आर्थिक हालात इस विषय को और अधिक जटिल बनाते हैं। यह बात ठीक है कि कई बार परिजन अपने प्रियजन की असाध्य बीमारी के मामले में असहाय से, उसे बस मरता हुआ या असहनीय कष्ट पाता हुआ देखते रहते हैं। इलाज महंगा होने के कारण कई बार उस पर होने वाला खर्च परिवार की कई पीढि़यों को कर्ज में डुबो देता है।‘’
‘’उधर मरीज के लिहाज से देखें तो वह भी लाचार सा बिस्तर पर पड़ा हुआ अपने दिन गिनता और मौत के आने का इंतजार करता रहता है। लेकिन मानवीय संवेदनाओं और भावनाओं के धागे इतने गहरे जुड़े होते हैं कि ऐसी परिस्थति में भी परिजन उसके बच जाने की उम्मीद पालते हुए उसे बचा लेने की भरसक कोशिश करते हैं।‘’
मैंने लिखा था- ‘’ऐसे मामलों में सबसे बड़ा खतरा सक्रिय या निष्क्रिय इच्छामृत्यु का विकल्प चुने जाने को लेकर है। इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि ऐसे प्रावधानों का जमकर दुरुपयोग हो सकता है। इसलिए ऐसी कोई भी व्यवस्था करते समय यह देखना जरूरी है कि उसका दुरुपयोग रोकने के क्या उपाय किए गए हैं।‘’
संतोष का विषय है कि फैसला सुनाते समय सुप्रीम कोर्ट ने इन सभी आशंकाओं को ध्यान में रखते हुए कुछ दिशानिर्देश भी दिए हैं। यह फैसला सुनाने के साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने अपने पुराने फैसलों को भी पलटा है। दरअसल 1994 में पी. रथीनाम बनाम भारत संघ के मामले में कोर्ट ने कहा था कि मरने का अधिकार जीवन जीने के अधिकार में शामिल है। इसके कारण आत्महत्या को अपराध बताने वाली भारतीय दंड संहिता की धारा 309 स्वत: असंवैधानिक हो गई थी।
लेकिन 1996 में ज्ञान कौर बनाम पंजाब राज्य के प्रकरण में कोर्ट ने अपने ही निर्णय को उलटते हुए कह दिया था कि जीने के अधिकार में मरने का अधिकार शामिल नहीं है। अब ताजा फैसले में एक बार फिर कोर्ट ने अपने रुख को बदलते हुए जीवन और मृत्यु के अधिकार और उनके आपसी रिश्तों की नए सिरे से व्याख्या की है।
निश्चित रूप से कोर्ट का यह फैसला भारतीय समाज के लिए दूरगामी होगा। बस हमेशा की तरह मेरे कुछ सवाल है जो मुझे मथने लगे हैं। पहला सवाल तो यही है कि क्या हम इस बात पर संतोष कर सकते हैं कि जिस समाज में लाखों लोगों को ‘सम्मान’ से जीने का हक नहीं मिल पा रहा वहां अब लोग कम से कम ‘सम्मान’ के साथ मर तो सकते हैं।
मैं यह भी जानना चाहूंगा कि देश में हर साल खेती खराब होने या कर्ज में फंसे होने के कारण जो सैकड़ों किसान अपनी जान देते हैं, कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि आगे चलकर उनकी मौत को भी यह समाज ‘सम्मान मृत्यु’ मानने लगे।
मरणासन्न स्थिति रोग के कारण ही आती हो ऐसा नहीं है, गरीब तो मरणासन्न स्थितियों में ही जीता है, ऐसे में यदि वह बगैर ‘लिविंग विल’ के जान दे दे, तो क्या हम उसे उसकी ‘इच्छा’ मानते हुए सहर्ष स्वीकार करेंगे?