मध्यप्रदेश की नदियों से रेत की खुदाई को लेकर मुख्यमंत्री ने सोमवार को जिन फैसलों का ऐलान किया है, उन पर तरह-तरह की प्रतिक्रियाएं आ रही हैं। जैसाकि अमूमन होता है, फैसले पर सवाल भी उठाए जा रहे हैं और उसके अमल पर संदेह भी जताया जा रहा है। चूंकि रेत के कारोबार से कई तरह के दूसरे काम धंधे जैसे निर्माण गतिविधियां, परिवहन तंत्र, खुदाई एवं ढुलाई तंत्र से लेकर हजारों की संख्या में मजदूर भी जुड़े हुए हैं इसलिए सभी क्षेत्र सरकार के फैसले पर अपने अपने हिसाब से गणित बैठाने में लग गए हैं।
खुद सरकार की ओर से इस मामले में तीन आधिकारिक सूचनाएं जारी की गईं। एक सूचना में बताया गया कि सरकार ने नर्मदा नदी की रेत खदानों पर अगले आदेश तक पूरी तरह रोक लगा दी है। दूसरी सूचना रेत की खुदाई और मार्केटिंग की सुचारू व्यवस्था बनाने के लिए समिति बनाने के बारे में है। तीसरी सूचनानदियों से रेत की खुदाई में मशीनों के उपयोग पर प्रतिबंध लगाने के बारे में है।
इस तीसरी सूचना में मुझे बहुत ही दिलचस्प बात नजर आई। इसके मुताबिक ‘’भारत सरकार के वन पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की व्यवस्था अनुसार रेत खदान संचालन के लिये स्टेट एनवायरमेंट इम्पेक्ट असेसमेंट अथारिटी (सिया) अथवा डिस्ट्रक्टि एनवायरमेंट इम्पेक्ट असेसमेंट अथारिटी (डिया) द्वारा दी जाने वाली पर्यावरणीय अनुमति में शर्त होती है कि रेत खनन मानव श्रम से किया जाये। इसमें मशीनों से रेत उत्खनन पर पूर्णत: प्रतिबंध है। राज्य शासन ने समस्त जिला कलेक्टर को निर्णय का पालन सुनिश्चित करने के निर्देश दिये हैं।‘’
यानी केंद्र व राज्य की एजेंसियों द्वारा रेत खदानों को दी जाने वाली पर्यावरणीय स्वीकृति में यह व्यवस्था पहले से ही है कि इसमें मशीनों से खुदाई नहीं की जा सकती। मतलब जो घोषणा की गई है वह पहले से ही नियमों में है। और इसके बावजूद धड़ल्ले से मशीनों द्वारा खुदाई का काम बरसों से जारी था। ऐसे में सवाल उठता है कि पर्यावरण अनुमति के नियमों का उल्लंघन करने वाली खुदाई चलने कैसे दी जा रही थी? कोई ‘वजह’ जरूर रही होगी और वह ‘वजह’ क्या रही होगी, उसका अनुमान लगाने के लिए किसी रॉकेट सांइस को जानने की जरूरत नहीं है।
नदियों की दुर्दशा, उनमें बढ़ता प्रदूषण और बिगड़ता पर्यावरण जो आज चिंता का विषय बनाया और बताया जा रहा है, उसकी चिंता ही दरअसल कभी नहीं की गई। लक्ष्य केवल प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुध दोहन और कमाई का ही रहा। यकीन न आए तो जरा मध्यप्रदेश की रेत खनन नीति पर नजर डाल लीजिए। मार्च 2015 यानी करीब दो साल पुराना यह दस्तावेज रेत और नदियों के रिश्ते और सरकार की मंशा के बारे में बहुत कुछ कहता है।
रेत खनन का यह नीति दस्तावेज कुल 13 पन्नों का है। और आपको जानकर आश्यर्च होगा कि इसमें रेत खुदाई और पर्यावरण के रिश्तों को लेकर सिर्फ दो चार लाइनें ही कही गई हैं। बाकी सारा मामला ठेके देने और वसूली करने की प्रक्रिया से जुड़ा है। इस नीति की प्रस्तावना में ही कहा गया है- ‘’विगत कई वर्षों से यह आवश्यकता महसूस की जा रही थी कि रेत खनिज की आपूर्ति जन सामान्य को तर्कसंगत मूल्यों पर हो सके। इस संबंध में यह विचार में लिया गया कि प्रदेश में अधिक से अधिक रेत खदानों का चिह्नांकन/संचालन हो, जिससे रेत खनिज की आपूर्ति सुगमता से हो सके। रेत खनिज के संबंध में पर्यावरण एवं वन मंत्रालय भारत सरकार द्वारा कई प्रतिबंधात्मक प्रावधान किए गए हैं। इन प्रावधानों का पालन पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से आवश्यक है। इन समस्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए रेत खनन नीति प्रस्तुत की जा रही है।‘’
नीति आगे स्पष्ट रूप से कहती है- ‘’प्रदेश में अधिक से अधिक संभावित रेत उत्खनन स्थल चिह्नित किए जाएंगे।‘’ इसके अलावा यह भी कहा गया है कि‘’ग्रामीण जनों को स्वयं के निर्माण कार्य में रेत खनिज की उपलब्धता निकटस्थ संचालित खदान क्षेत्र से निशुल्क की जाएगी। इस प्रकार की आवश्यकता सुनिश्चित किए जाने का दायित्व संबंधित ग्राम पंचायत का होगा।‘’
यानी जिस रेत खनन नीति का मुख्य उद्देश्य ही ज्यादा से ज्यादा खदानें देकर धन कमाने का या मुफ्त में रेत देकर राजनीतिक वाहवाही लूटने का रहा हो,उससे पर्यावरण हिफाजत की उम्मीद ही कैसे की जा सकती है?
लेकिन देर आए दुरुस्त आए की तर्ज पर अब भी यदि सरकार इस दिशा में कुछ करना चाहती है तो विशेषज्ञ समिति को सबसे बड़ा काम ही यह दिया जाए कि वह प्राथमिकता में पर्यावरण और नदियों की हिफाजत को रखे और बाद में रेत से होने वाली कमाई को। रिपोर्ट के आधार पर नई रेत खनन नीति घोषित हो और उस पर राजनीतिक/आर्थिक लाभहानि को परे रखकर सख्ती से अमल करवाया जाए।
वरना यही माना जाएगा कि चंद महीनों का यह प्रतिबंध उन लोगों को करोड़ों रुपए की कमाई करवाने के लिए लगाया गया है जिन्होंने वैध/अवैध रेत के भंडार जमा कर रखे हैं। रेत की कालाबाजारी रोकने के लिए सरकार ऐसे अवैध भंडारों की रेत को राजसात कर उसके वितरण की व्यवस्था खुद भी कर सकती है। और भविष्य में रेत के ठेकों का काम निजी तौर पर दिए जाने के बजाय सहकारी समितियों को देने पर विचार किया जा सकता है।