गूंगे रहोगे गुड़ मिलेगा, सिर गायब, टोपा सिलेगा…!

किसी भी वैचारिक, बौद्धिक या अकादमिक विमर्श की बदनसीबी यही होती है कि वह बंद कमरों तक ही सीमित होकर रह जाता है। बंद कमरों में बात हुई, चंद लोगों ने कही, चंद लोगों ने सुनी और चल दिए। यही कारण है कि ऐसे विमर्शों का कोई नतीजा नहीं निकलता। वे एक बौद्धिक (?) शगल बनकर रह जाते हैं।

आप भी पूछ सकते हैं कि तीन दिन तक ओरछा में जो हुआ और चार दिन से मैं जिस पर कॉलम पेले जा रहा हूं उसका नतीजा क्‍या निकला? तो सबसे पहले विमर्श की आयोजक संस्‍था विकास संवाद के प्रमुख सचिन जैनका वह वक्‍तव्‍य सुन लीजिए जो उन्‍होंने तीसरे दिन तमाम सारे वक्‍ताओं और प्रतिभागियों की बातें सुनने के बाद दिया।

उन्‍होंने कहा, ‘’बड़ा सवाल यह है कि विमर्श की इस एप्रोच को आगे कैसे ले जाया जाए। यह पहल इसलिए जरूरी है कि मीडिया में समाज के मुद्दे कम हो रहे हैं। गैर मुद्दों को मुद्दा बनाया जा रहा है। मुद्दे केवल राजनीतिक ही नहीं हैं। वे बच्‍चों के, आदिवासियों के, किसानों के, विस्‍थपितों के, गैर बराबरी का शिकार होने वालों के भी हैं।‘’

‘’मीडिया अगर आज के बाजार में उत्‍पाद है, तो भी वह अलग तरह का उत्‍पाद है। साबुन, तेल या क्रीम से उसकी तुलना नहीं की जा सकती। क्‍योंकि वह समाज के चरित्र को बदलने का काम करता है। हम उस पर बाजार हो जाने का आरोप लगाकर अपना पल्‍ला झाड़ लेते हैं। जबकि पत्रकारों को समाज के साथ ले जाने का काम होना चाहिए।‘’

‘’दूसरी बात पक्षधरता की है। हमारा नजरिया साफ है। हम अपने आपको किसी राजनीतिक विचारधारा से जोड़कर नहीं देखते। हमने खुद को समाज के साथ जोड़ा है। हां, उस लिहाज से हम पक्षधर हैं। हम समाज के,वंचितों के पक्ष में हैं। हम मानते हैं कि समाज का वह तबका जिसे अपने हाल पर छोड़ दिया गया है, वह बलिदान के लिए नहीं है।‘’

‘’हम विकास के विरोधी नहीं है, लेकिन हम उनकी बात जरूर उठाते हैं जो विकास की प्रक्रिया का शिकार हो रहे हैं। विमर्श की यह प्रक्रिया संस्‍थागत बनकर न रह जाए इसलिए हम सारे मुद्दों पर, सबके सामने, खुले मंच पर बात करते हैं। हम चाहते हैं कि लोग इस विचार प्रक्रिया में सहभागी बनें।‘’

सचिन की बात से सहमत होते हुए मेरा सुझाव है कि ऐसे विमर्श और ज्‍यादा व्‍यापक बनाए जाने चाहिए। मेरा अनुभव रहा है कि जब भी ऐसे आयोजन होते हैं वे एकपक्षीय या दूसरे को खारिज करने पर केंद्रित हो जाते हैं। यह तो संवाद की अवधारणा नहीं है। यदि किसी विषय पर वक्‍ताओं को बुलाया जा रहा है, तो उसमें सभी पक्ष आमंत्रित होने चाहिए। ताकि हरेक को जानने का मौका मिले कि दूसरे उनके बारे में क्‍या सोच रहे हैं और दूसरों को भी पता चल सके कि जिसकी वे आलोचना कर रहे हैं उसकी रीति नीतियों का आधार और लक्ष्‍य क्‍या है?

मेरा यह भी मानना है कि निश्चित रूप से हमारा एक पक्ष होता है जिसे हम सोच समझकर तय करते हैं। मीडिया पर भी यह बात लागू होती है या होनी चाहिए। अपने लिए रोटी की मांग करते हुए भूखों के समूह पर पुलिस यदि लाठी चलाए तो हम किसके साथ खड़े होंगे? मजलूम के साथ खड़े होना गुनाह नहीं है। ऐसा करना निष्‍पक्षता की किसी भी अवधारणा पर ग्रहण नहीं लगाता। हमें पक्षधरता और पक्षपात में अंतर करना आना ही चाहिए। हम पक्षपाती न हों बस… वाजिब वजहों के साथ पक्षधरता तो होनी ही चाहिए।

निश्चित ही यह बाजार के प्रभाव का जमाना है और मीडिया पर भी यह प्रभाव साफ दिखता है। कई बार यहां सच क्‍या है और किसका है, यह निर्णय करना मुश्किल हो जाता है। सरकारों के अपने अपने सच (?) होते हैं। यूपीए सरकार के सच अलग थे, एनडीए के अलग हैं। सच की यही विडंबना हो गई है। कृष्‍णबिहारी नूर का एक शेर है-

घटे या बढ़े तो सच सच न रहे

झूठ की कोई इंतहा नहीं होती

और जैसाकि मैंने पहले भी कहा पोस्‍ट ट्रुथ के इस दौर में मीडिया के भीतर भी यह प्रीपेड और पोस्‍ट पेड ट्रुथका जमाना है।

कोई भी बहस या विमर्श करते समय यह भी नहीं भूलना होगा कि बदलाव अंतत: जायज तरीकों से ही लाया जा सकता है। और ये तरीके हमारे कानून और संविधान के दायरे में ही होने चाहिए। लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था में वैचारिक विरोध के लिए जगह हमेशा बनी रहनी चाहिए लेकिन आइडियोलॉजिकल लिंचिंग भी मंजूर नहीं की जा सकती।

कोई भी बदलाव न गाली से हो सकता है और न गोली से वह तो बैलेट से ही होगा, इसलिए जोर लोकमानस को जागरूक करने पर हो न कि उसे उत्‍तेजित करने या बरगलाने पर। इस देश में यदि राजनीतिक बदलाव हुआ है तो वह यहां की जनता ने लोकतांत्रिक तरीके से किया है। और यदि भविष्‍य में बदलाव होना भी है तो वह भी इसी तरीके से होगा या होना चाहिए। लेकिन हां, इसके लिए हमें आवाज हमेशा उठाते रहना होगा,सवाल हमेशा खड़े करने होंगे। गूंगा बनने से काम नहीं चलने वाला।

आखिर में मैं आपको विमर्श के अंतिम सत्र में कश्‍मीर उप्‍पल जी द्वारा सुनाई गई लोककवि बाबा नागार्जुन की इन पंक्तियों के साथ छोड़े जा रहा हूं, शायद इससे उम्‍दा निचोड़ ओरछा विमर्श का कुछ नहीं हो सकता-

गूंगा रहोगे/ गुड़ मिलेगा

रुत हँसेगी/ दिल खिलेगा

पैसे झरेंगे/ पेड़ हिलेगा

सिर गायब/ टोपा सिलेगा

गूंगा रहोगे/ गुड़ मिलेगा !!

 

 

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