‘नानी के घर’ जाने का मजाक उड़ाना ठीक नहीं

अजय बोकिल

जो लोग कांग्रेस सांसद राहुल गांधी के ‘नानी के घर’ जाने का मजाक उड़ा रहे हैं, वो दरसअल भारतीय संस्कृति विरोधी हैं। ऐसे लोग नहीं चाहते कि कोई गुजरे जमाने की तरह अपने नाना, नानी या मामा के घर छुट्टियां मनाए। राहुल अगर दुनिया जहान की चिंताएं दरकिनार कर अपनी नानी को देखने गए हैं, यह उनका विशुद्ध ननिहाल प्रेम है और नानी के घर से आने वाली ‘प्यार की पुकार’ है। बीते कुछ सालों में हमारे देश में राजनीति का स्तर इतना गिर गया है कि कोई नानी के घर भी जाए तो लोग उसमें दूसरे तत्व सूंघने लगते हैं।

ऐसे ही फालतू सवाल तब भी उठाए जाते थे, जब हमारे लोकप्रिय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी आए दिन विदेश यात्रा पर जाया करते थे और विदेश में रह रहे भारतीयों को भाषण दिया करते थे। पीएम तो सरकारी काम से जाते थे और परदेस में रह रहे लोगों को अपना बनाकर लौट आते थे। लेकिन उन यात्राओं में भी नामुराद लोग ‘मार्केटिंग’ के तत्व ढूंढने की गुस्ताखी किया करते थे। भला हो कोविड 19 का कि उसकी वजह से प्रधानमंत्री देश की समस्याओं पर अब पूरा ध्यान केन्द्रित कर पा रहे हैं।

राहुल गांधी के पास मोदीजी के मुकाबले दसवां हिस्सा भी जिम्मेदारियां न हो, लेकिन उनकी वैश्विक चिंताओं में कहीं कोई कमी नहीं है। इस साल की शुरुआत में जब दिल्ली में सीएए कानून के विरोध में दंगे हो रहे थे, उस वक्त भी राहुल किसी जरूरी काम से परदेस में थे। तब उनके करीबियों ने बताया था कि स्वदेश लौटते ही वो देश की राजनीति पर ध्यान केन्द्रित करेंगे। उन्होंने किया भी। इस साल तो कोरोना काल में विदेश जाने वाली फ्लाइटें बंद ही थीं। ऐसे में कई जरूरी विदेश यात्राएं अटकी पड़ी होंगी। अब कांग्रेस पार्टी का स्थापना दिवस भी ऐसे ही मौके पर पड़े तो कोई क्या करे।

उधर देश में क‍ोविड 19 का ग्राफ भी उतार पर है। इधर राहुल भी इटली रवाना हो गए। किसी ने दबी जबान से कहा कि वो अपनी नानी पाओला माइनो से मिलने मिलान गए हैं। वो 95 वर्ष की हैं। ऐसे में राहुल क्या, कोई भी नाती अपनी नानी की कुशल क्षेम पूछने जाएगा ही। क्योंकि जो ममता ननिहाल में मिलती है, वैसी ददिहाल में मिले, जरूरी नहीं है। वैसे राहुल की विदेश यात्राओं की जानकारी के मामले में राहुल विरोधियों का खुफिया तंत्र बेहद कमजोर है।

राहुल का विमान भारतीय वायु सीमा से परे चला जाता है, तब विरोधियों को इसकी खबर लगती है। इस बार भी वैसा ही हुआ। कांग्रेस के स्‍थापना दिवस पर ज्यादातर कांग्रेसियों को ज्ञात हुआ कि ‘भैया’ तो नानी घर चल दिए। कब लौटेंगे, किसी को नहीं मालूम। पर आएंगे जरूर। उधर दिल्ली बॉर्डर पर कृषि कानूनों के खिलाफ धरने पर बैठे किसानों में से कुछ को मुगालता रहा ‍कि जब राहुलजी ने दो करोड़ किसान भाइयों के दस्तखत वाला ज्ञापन राष्ट्रपति को सौंपा है तो दो-चार दिन तो वो किसानों के साथ गुजारेंगे ही।

अच्छा रहा कि विदेश जाने से पहले राहुल मोदी सरकार को सख्त चेतावनी देते गए कि वो तीनों कृषि कानून वापस ले। राहुल बुनियादी तौर पर एक सरल और ईमानदारी नेता हैं। हर भारतीय के मन में उनके बारे में एक सहज जिज्ञासा हमेशा रहती है कि राहुल बार-बार विदेश जाते क्यों हैं? क्या इधर कांग्रेस में ज्यादा कुछ काम नहीं बचा है या फिर विदेशों का कुछ काम भी अपने को ही देखना पड़ता है? अगर वो मानसिक तनाव से मुक्त होने के लिए विदेश में हॉलीडे मनाने जाते हैं तो लौटने के बाद और ज्यादा तनाव में क्यों महसूस होते हैं?

यह भी अजब संयोग है कि इधर देश में राजनीतिक आंदोलनों और समस्याओं का तापमान बढ़ता है, उधर राहुलजी का फारेन टूर प्लान भी चाकआउट हो जाता है। दोनों समांतर चलते रहते हैं। एक दृष्टि से यह ठीक भी है। नेताओं को कभी इस मुगालते में नहीं रहना चाहिए कि कोई भी जन आंदोलन उनकी वजह से चलता है। यह जनता है, जो आंदोलन चलाती रहती है। उधर सरकार है जो आंदोलन से अपने तरीके से निपटती रहती है। इसमें किसी तीसरे का क्या काम?  जिसको जो करना है, वो वह कर ही रहा है। लोकतांत्रिक ईमान भी यही कहता है कि सबको अपना काम करने दें। अपन अपना काम करें।

इस सात्विक सोच के बावजूद जनमानस में न जाने क्यों, यह कौतुहल सदा रहा है कि विदेश में ऐसा क्या है, जो यहां नहीं है? पूरी दुनिया को ‘एक गांव’ मान लेने के वैश्विक दृष्टिकोण के बाद भी ‍अधिकांश भारतीय राजनेता बार-बार विदेश जाने का वक्त निकाल नहीं पाते। लेकिन राहुल हर छोटे बड़े प्रसंग को ‘इंटरनेशनल’ रूप देने में कामयाब रहते हैं। इस मायने में राहुल का बीते 5 साल का रिकॉर्ड सचमुच वैश्विक एंगल लिए हुए है। पिछले साल दिसंबर में केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने संसद में लिखित जवाब में बताया था कि 2015 से दिसंबर 2019 तक राहुल गांधी ने कुल 247 बार विदेश यात्राएं कीं। इसकी सूचना उनकी सुरक्षा में लगी एसपीजी को भी नहीं दी गई।

इस साल के शुरू में जब सीएए के खिलाफ प्रदर्शन हो रहे थे, राहुल गांधी दक्षिण कोरिया किसी जरूरी काम से गए हुए थे। इस बार भी पार्टी देश भर में तिरंगा यात्राएं निकाल रही है तो वे नानी के घर चल दिए हैं। भाजपाई तो मानो ऐसे मौके की तलाश में ही रहते हैं। मप्र के मुख्यमंत्री‍ शिवराजसिंह चौहान ने तंज किया कि इधर कांग्रेस का 136 वां स्थापना दिवस है, उधर राहुल फिर 9-2-11 हैं। एक और भाजपा नेत्री डीके अरुणा ने कटाक्ष किया कि राहुल तो ‘टूरिस्ट पॉलिटीशियन’ हैं। अब राहुल गांधी किस काम से विदेश जाते हैं, वहां जाकर क्या करते हैं, यह उनका निजी मामला है। इसमें किसी को दखल देने का हक नहीं है। लेकिन खुद कांग्रेसी भी इन यात्राओं के बारे में अलग-अलग जानकारियां रखते और देश को बताते रहते हैं। इस दफा भी उनकी परदेश यात्रा की, प्रभु लीला की तरह अलग-अलग व्याख्याएं हैं।

कांग्रेस महासचिव वेणुगोपाल ने बीजेपी पर आरोप लगाया कि वह ‘घटिया दर्जे की राजनीति’ में लिप्त है। कोई अगर अपनी नानी के घर गया है तो इसमें गलत क्या है? दूसरी तरफ राहुल के करीबी कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने बताया कि राहुलजी एक ‘संक्षिप्त निजी यात्रा’ पर विदेश गए हैं। जल्द ही लौट आएंगे। वरिष्ठ कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद ने कहा कि कांग्रेस के स्‍थापना दिवस समारोह में कोई रहे न रहे, इससे क्या फर्क पड़ता है? लेकिन अत्यंत गोपनीय जानकारी मप्र के कांग्रेस नेता कांतिलाल भूरिया ने दी। भूरिया ने बताया‍ कि राहुलजी तो पार्टी के काम से इटली गए हैं। इससे एक अंडरग्राउंड मैसेज यह गया ‍कि शायद कांग्रेस के लिए अब वहां संभावनाएं बन रही हैं।

दरअसल राहुल गांधी के आलोचक यह बात कभी नहीं समझ पाएंगे कि उनका विदेश में हर काम कितना जरूरी होता है। जिन लोगों की जिंदगी देश में चप्पलें घिसते बीती, जिन्होंने जिंदाबाद-मुर्दाबाद से आगे कुछ नहीं सोचा, जो राजनीतिक आंदोलनों को ही अपना टिफिन बॉक्‍स मानते आए हैं, उनके पल्ले यह बात कभी नहीं पड़ेगी कि पारिवारिक चिंताएं क्या होती हैं, कौटुंबिक रिश्ते क्या होते हैं, उनका कायम रहना कितना जरूरी है? ऐसे में जब कांग्रेस नेता वेणुगोपाल ने ‘खुलासा’ किया कि राहुल तो ‘नानी के घर’ गए हैं तो जानकर मन को असीम संतोष हुआ कि तमाम बुराइयों के बाद भी सियासत में ‘ननिहाल का पवित्र रिश्ता’ बचा हुआ है। वरना देश की नई पीढ़ी इस मामले में अत्यंत दुर्भाग्यशाली है, जिनके पास नाना/मामा के घर जाने और वहां लंबी छुट्टियां बिंदास तरीके से बिताने के अवसर ही नहीं हैं।

एक तो अधिकांश नानाओं/मामाओं ने अब गांव में रहना ही छोड़ दिया है। शहरों के संकरे फ्लैटों में न तो आम की डाल से लटके झूलों में झूलने का आनंद मिल सकता है और न ही किसी कुएं या नदी में नहाने की खुशी मिल सकती है। गुजरे जमाने में वक्त बचपन के आड़े नहीं आता था, अब तो वक्त ही बचपन की हदें पार करने लगा है। अच्‍छी बात यह है कि राहुल उम्र की आधी सदी पार करने के बाद भी ननिहाल के उस स्वर्गिक सुख को नहीं भूले हैं और मौका लगते ही अपनी नानी का हाल पूछ आते हैं। वरना भारत में तो आजकल नाना-नानी ही नाती-नातिनों के आने की राह देखते बुढ़ाते जाते हैं। उधर नाती-नातिन बेचारे कोचिंग क्लास, क्रिएटिव क्लास या फिर मोबाइल गेम इत्यादि से ही बाहर नहीं निकल पाते। ‍ननिहाल क्या खाक जाएंगे?

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