हमारे भोपाल में शनिवार को फिर वही हुआ जिसके बारे में मैंने 4 जुलाई को लिखा था। 12 दिन पुराने उस कॉलम में मैंने कहा था कि ‘’सोशल मीडिया पर लोकतंत्र को भीड़ तंत्र में बदला जा रहा है। अब वहां से फतवे जारी होते हैं और देखते ही देखते लोग नोच लिए जाते हैं।‘’ यह नोच खसोट केवल शब्दों से ही नहीं बल्कि शारीरिक रूप से होने लगी है।
मेरा कहना था- ‘’चिंताजनक बात यह है कि अब पुलिस या अदालतें किसी को आरोपी या दोषी बाद में बताती हैं, उससे पहले ही यह काम सोशल मीडिया के ट्रोलर्स या वहां पनप रही अराजक भीड़ कर डालती है। यह भीड़ पुलिस भी है और अदालत भी… और अब तो बिना किसी अपराध के मौत की सजा देकर यह जल्लाद का काम भी अंजाम दे रही है।‘’
कुछ ही घंटे बीते हैं उस घटना को जब भोपाल के एक इलाके में एक सिरफिरे आशिक ने एक लड़की को कमरे में बंद कर लिया था। उस लड़की पर हमला करने के बाद उसने मोबाइल फोन पर खूनी ड्रामा खेला और पुलिस को पूरे 12 घंटे तक छकाया। चूंकि लड़की उसके कब्जे में थी इसलिए पुलिस असहाय सी, उसकी हरकतों को बस देखती रही।
मामला तभी सुलट पाया जब एसपी ने दमकल गाड़ी की हाइड्रोलिक क्रेन पर चढ़कर उससे बात की और भरोसा दिलाया कि बंधक बनाई गई जिस लड़की से वह शादी करना चाहता है उससे उसकी शादी करवा दी जाएगी। इस आश्वासन के बाद उस सिरफिरे ने दरवाजा खोला और पुलिस ने उसे हिरासत में लिया।
जिस दिन उसे पकड़ा गया उस दिन भी उस बिल्डिंग के बाहर मौजूद भीड़ ने उस पर अपना गुस्सा उतारने की कोशिश की थी। लेकिन जो उस दिन नहीं हो पाया वह शनिवार को हुआ जब पुलिस ने उस युवक का जुलूस निकाला। पुलिस जब उस युवक को लेकर निकली तो भीड़ ने उस पर चप्पलें बरसाईं और उसके साथ मारपीट की।
इस घटना का जो वीडियो सोशल मीडिया पर आया है उसमें साफ दिख रहा है कि पुलिस वाले उस युवक को पकड़े हुए हैं और पुलिस के संरक्षण में रहते हुए कुछ महिलाएं उसे चप्पलों से पीट रही हैं। एक पुलिस वाले के हलके से अपना हाथ आगे बढ़ाने भर के अलावा वीडियो में साफ नजर आता है कि पुलिस लोगों को उस सिरफिरे पर हाथ साफ करने का पूरा मौका दे रही है।
युवक के मुंह पर कई सारी चप्पलें पड़ जाने के बाद पुलिस वाले चलो बस हो गया ना… के अंदाज में आरोपी को दूर ले जाते नजर आते हैं। वीडियो बहुत छोटा-सा है पर माहौल देखकर अंदाज लगाया जा सकता है कि पुलिस ने युवक की सार्वजनिक पिटाई के लिए लोगों को उकसाया भले न हो, लेकिन उन्होंने बलपूर्वक उन लोगों को रोकने की कोशिश भी नहीं की जो आरोपी पर हमला कर रहे हैं।
इसी के समानांतर भीड़ का ही एक और वीडियो मुझे इंदौर के एक वाट्सएप ग्रुप पर देखने को मिला। उसमें भीड़ कुछ पुलिसवालों को पहले घेरती नजर आ रही है और उसके बाद अचानक लोग उन पर हमला कर देते हैं। हक्के-बक्के पुलिस वाले पहले तो लोगों को दूर धकाते हैं, लेकिन भीड़ के उग्र होते जाने की स्थिति को भांपते हुए बाद में अपनी जान बचाने के लिए वहां से दौड़ लगा देते हैं।
इस वीडियो क्लिपिंग के साथ घटना का ब्योरा देते हुए जो संदेश आया वह कहता है कि ‘’इंदौर जिले के गौतमपुरा थाना क्षेत्र के सिरोज्या गांव के ग्रामीणों ने कल स्थानीय पुलिसकर्मियों को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा… ग्रामीणों में आक्रोश स्थानीय तहसीलदार द्वारा पुलिस की मदद से एक मजदूर का झोपडा हटाये जाने के दौरान, मजदूर द्वारा जहरीला पदार्थ खाने से उपजा था…’’
‘’मजदूर की उपचार के दौरान इंदौर के एमवायएच में मौत हो गई… मजदूर का शव सड़क पर रख तहसीलदार और टीआई को हटाए जाने की मांग कर रहे ग्रामीणों को समझाइश देने पहुँचे टीआई अनिल वर्मा और अन्य पुलिसकर्मियों पर ग्रामीण बिफर गये… भागते-दौड़ते टीआई और अन्य पुलिसकर्मियों को एक पत्रकार ने किसी घर में शरण दिलवाकर बचाया…’’
पिछले दिनों देश में बच्चा चोर गिरोह से जुड़े होने के संदेह में देश के विभिन्न भागों में ऐसी ही हिंसक भीड़ ने 16 लोगों की पीट पीटकर हत्या कर दी थी। रविवार को खबर आई कि दो दिन पहले कर्नाटक के एक कस्बे में एक इंजीनियर को भीड़ ने इसी आशंका के चलते मार डाला, जब कतर से आया यह युवक बच्चों को विदेशी चॉकलेट दे रहा था।
दरअसल यह बहुत खतरनाक ट्रेंड है जिसे जितनी जल्दी रोका जाए उतना ही अच्छा होगा। यहां पुलिस की उस भूमिका पर भी चर्चा होनी चाहिये जिसमें वह खुले आम हिंसक भीड़ को या तो उकसाती या फिर उसकी मौन समर्थक बनी नजर आती है।
जब भीड़ किसी भी घटना के आरोपियों का सड़क पर ही हिसाब किताब साफ करने लगती है तो कानून के न्याय का क्या मतलब रह जाता है? खुद पुलिस के आला अधिकारियों को इस मामले का संज्ञान लेना चाहिए। क्या वे कानून से न्याय दिलाने के बजाय आरोपियों को भीड़ के हाथों सड़क पर ही निपटवा देने में भरोसा करने लगे हैं?
भीड़ के इस कथित ‘इंसाफ’ को लेकर कई फिल्मों में ऐसे दृश्य फिल्माए गए हैं। लेकिन फिल्मों की बात अलग है, बड़ा सवाल यह है कि क्या हम जीते जागते समाज में ऐसे बर्बर फैसलों को मंजूरी या मान्यता दे सकते हैं? भीड़ के हाथों में जब खून लग जाता है तो वह पुलिस या अपराधी में फर्क नहीं देखती यह इंदौर जिले की ही उस दूसरी घटना से समझा जा सकता है जिसका जिक्र मैंने ऊपर किया।
जब आप भीड़ को किसी अपराधी को मारने की मौन स्वीकृति देते हैं, तब वह आप पर यानी पुलिस पर भी हाथ उठाने से नहीं चूकती। ये हालात घोर अराजकता की निशानी हैं। चाहे बच्चा चोरों का मामला हो या किसी सिरफिरे आशिक का या फिर कानून का पालन करवाने गई पुलिस का… भीड़ को यह इजाजत कैसे दी जा सकती है कि वह अपने स्तर पर सड़क पर ही सारा फैसला कर दे… ऐसा फैसला जिसमें सजा-ए-मौत तक शामिल है…!!!