दिग्विजयसिंह सिर्फ कांग्रेस में ही नहीं देश की राजनीति में ऐसे नेता हैं जिनके बारे में आंख मूंदकर यह कहा जा सकता है कि उन्हें चर्चा में बने रहना आता है। उनकी इस फितरत के आपको अनेक उदाहरण मिल जाएंगे। चाहे उनके विरोधी हों या उनके समर्थक, दिग्विजय के बयानों से, उनकी राय से या उनके कदमों से आप सहमत हों या न हों, लेकिन एक बात की गारंटी हमेशा होती है कि वे कोई भी कदम यूं ही जाया करने के लिए नहीं उठाते।
देश का और कोई राजनेता होता तो दस साल तक राजनीति से सन्यास लेने और उसे पूरा करने के बाद सियासी सीन से कभी का गायब हो चुका होता, लेकिन दिग्विजय उस मिट्टी के बने ही नहीं हैं जो यूं गायब हो जाएं। वे फीनिक्स की तरह हर बार राख में से उठ खड़े होते हैं और अपने विरोधियों को चौंका देते हैं। उनका नाम कांग्रेस के उन गिने चुने नेताओं में शुमार है जो मीडिया में सबसे अधिक विवाद का विषय रहे हैं।
आप सोच रहे होंगे कि ये अचानक मुझे क्या हो गया है। मैं आज कहीं बहक तो नहीं गया हूं। तो यकीन जानिए ऐसा कुछ नहीं है। चूंकि मेरी आज की बात का पूरा तानाबाना ही दिग्विजयसिंह के आसपास बुना जाना है इसलिए सोचा कि उनके बारे में पाठकों को थोड़ा बहुत बताना तो बनता है। ताकि सदन तो रहे, भले ही वो वक्त पर काम न आए… दरअसल सोमवार को यह खबर ‘सुबह सवेरे’ ने ही दी है कि भोपाल से लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के उम्मीदवार बनाए गए दिग्विजयसिंह, अपने भावी संसदीय क्षेत्र के विकास के लिए अलग से घोषणा पत्र तैयार कर रहे हैं।
जैसे ही मेरे संज्ञान में यह बात आई मुझे लगा कि भोपाल संसदीय क्षेत्र का निवासी और मतदाता होने के नाते मेरा फर्ज बनता है कि घोषणा पत्र बनाए जाने की इस प्रक्रिया में मैं अपनी ओर से भी योगदान करूं और कुछ बातें दिग्विजयसिंह जी की जानकारी में ला दूं। इन बातों को जानकारी में लाने का मकसद सिर्फ इतना है कि राजनीति के बड़े-बड़े आइवरी टॉवर्स में ऐसी छोटी-छोटी बातों की ओर अकसर ध्यान नहीं जाता।
स्थानीय मुद्दों को जानने के लिहाज से अखबारों के सिटी पेज पर छपी खबरों से बेहतर कोई जरिया नहीं हो सकता। इन खबरों में उठाए जाने वाले मुद्दों और उन मुद्दों के पीछे के इरादों को लेकर बहस की जा सकती है, तर्क वितर्क भी हो सकते हैं लेकिन इन्हें पूरी तरह खारिज नहीं किया जा सकता। इस लिहाज से मैंने दिग्विजयसिंह के निर्माणाधीन भोपाल विकास घोषणा पत्र के संभावित मुद्दे भोपाल के एक अप्रैल के अखबारों में तलाशे। (तारीख को लेकर कोई और अर्थ लगाने की जरूरत नहीं है, इसे आप सिर्फ संयोग भर मानें)
इसी तलाश में मैंने पाया कि दैनिक भास्कर ने अपने सिटी फ्रंट पेज पर एक खबर छापी है जिसका शीर्षक है- ‘’हर हफ्ते दो दिन दरवाजे पर हाट बाजार… 600 परिवार खुद के घर में बंधक’’ दरअसल यह भोपाल के अनेक इलाकों की स्थायी समस्या हो गई है। सड़कों को लोगों ने अपने बाप का माल समझ लिया है। भोपाल का शुमार देश के उन शहरों में बहुत ऊपर होगा जहां सड़कों पर अंधाधुंध अतिक्रमण हो रहे हैं और व्यवस्था देखने वाले शासन प्रशासन के लोग या तो आंख मूंद कर बैठे हैं या फिर उनके हाथ बांध दिए गए हैं। शहर की सड़कें या तो वाहनों की पार्किंग से अटी पड़ी हैं या फिर ठेले वालों, गुमटी वालों, रेहड़ी वालों और मनचाहा कारोबार करने वालों से। सड़कों पर चलना दिन पर दिन दूभर होता जा रहा है।
और सड़कें ही क्यों तमाम दिखावटी उठापटक के बावजूद भोपाल के सबसे पुराने बाजारों में से एक न्यू मार्केट में अब खुद स्थायी दुकानदार ही अतिक्रमण करने वालों के बंधक बनकर रह गए हैं। एमपी नगर जैसे इलाके के हाल तो पूछिए ही मत। उस पर कोढ़ में खाज ये कि नगरीय प्रशासन हो या जिला प्रशासन चौतरफा झुग्गियों और गुमटियों को बढ़ावा दे रहा है। प्लानिंग नामकी कोई चीज ही नहीं है।
शहर में ऐसे अनेक चौराहे या तिराहे हैं जिन्हें यातायात के लिहाज से कम से कम सौ- दो सौ मीटर तक खाली रहना चाहिए पर ऐन ट्रैफिक सिग्नल के पास या टर्निंग पर दुकानों को इजाजत दे दी गई है। कोलार तिराहे पर तो कमाल ही हो गया, इस सबसे व्यस्ततम मार्ग पर ऐन तिराहे पर भांग का ठेका दे दिया गया है। वहीं पान गुटके की गुमटियां हैं। और ये सारे भंगेड़ी और गुटकेबाज ट्रैफिक की ऐसी-तैसी करते रहते हैं। जब सारे कर्ताधर्ता ही भांग खाकर बैठे हों तो कौन किससे कहे भी क्या?
इसी कॉलम में मैंने पिछले दिनों शहर की सड़कों पर आवारा पशुओं खासकर आवारा कुत्तों की समस्या को उठाया था। मैंने नई सरकार के आकाओं से अपील की थी कि–‘’टाइम मिले तो इन कुत्तों की तरफ भी ध्यान देना..’’ लेकिन ऐसा लगता है कि पूरी व्यवस्था में ही ‘कुत्ता संस्कृति’ व्याप्त हो गई है। पिछले एक साल में लगभग एक दर्जन लोग कुत्तों के काटने या सड़कों पर उनकी धमाचौकड़ी के चलते दुर्घटना का शिकार होकर जान गंवा बैठे हैं, पर किसी को कोई चिंता नहीं है। बरसों से यह बात सुनते आ रहे हैं कि शहर में चलने वाली डेरियों और मवेशीगाहों को शहर से बाहर किया जाएगा लेकिन आज भी मवेशी बदस्तूर सड़कों पर आराम से चहलकदमी करते नजर आते हैं।
एक और समस्या ऐन चौराहों या सड़कों पर बने धार्मिक चबूतरों की है। अब तक तो लोगों का ध्यान राजनीतिक या गैर राजनीतिक कारणों से सिर्फ इस या उस पंथ के निर्माण पर ही जाता था। लेकिन पिछले कुछ सालों में पार्षद से लेकर विधायक स्तर तक के जनप्रतिनिधियों ने या तो अपनी पार्षद अथवा विधायक निधि से या फिर नेताओं की शह पर उनके शोहदों द्वारा और किसी ‘मद’ से चौराहों या चलती सड़कों पर चबूतरों का निर्माण कर लिया गया है। यहां साल में एक बार गणेश जी और एक बार दुर्गाजी विराजती हैं, बाकी दिनों में यहां रात को क्या–क्या होता है कोई जरा घूमकर देखे तो सही। ऐसे कई चबूतरे पर नेताओं के पट्ठों की या उनके भी छर्रों की दुकानदारी धड़ल्ले से चल रही है। कहीं पानी पतासे का स्टॉल है तो कहीं पान की दुकान ठुकी पड़ी है…