देश के चुनावी माहौल में इन दिनों राजनीति के साथ-साथ बराबरी से ‘धर्म’ की भी चर्चा हो रही है। मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल के संसदीय क्षेत्र से भारतीय जनता पार्टी की प्रत्याशी बनाई गईं प्रज्ञा ठाकुर ने तो कांग्रेस के उम्मीदवार और प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजयसिंह से अपने मुकाबले को ‘धर्मयुद्ध’की ही संज्ञा दी है।
कहना बड़ा मुश्किल है कि ‘धर्मयुद्ध’ की तर्ज पर ही क्या कोई ‘अधर्मयुद्ध’ भी होता है? युद्ध में लड़ने वाला हर पक्ष, खुद को धर्म के पाले में ही तो खड़ा मानता है। वह जिस बात के लिए लड़ रहा है, वही उसका धर्म है और उसका प्रतिद्वंद्वी जिस बात के लिए युद्धक्षेत्र में है वह उसका धर्म। ऐसे में धर्म की परिभाषा तय करना भी बहुत कठिन होता है, क्योंकि हरेक धर्म के ही पक्ष में खड़ा होने की बात करता है और उसके ही लिए युद्ध करने का दावा भी।
युद्ध में स्वयं के ‘कारण’ को धर्म और प्रतिद्वंद्वी के कारण को ‘अधर्म’ कहने की परिपाटी सत्ता की राजनीति में बहुत पुरानी है। यह तो हम कहते या मानते आ रहे हैं कि पांडव धर्म के लिए लड़े और कौरव जो कर रहे थे वह अधर्म था। लेकिन कौरव पक्ष से सोचें तो क्या आप इस तर्क को गले उतार सकते हैं कि वे भी यही मानते रहे होंगे कि वे ‘अधर्म’ की रक्षा अथवा अधर्म की स्थापना के लिए लड़ रहे हैं? नहीं, वे जिस बात के लिए लड़ रहे थे, वो उनके लिए उनका धर्म था।
धर्म के मूल में क्या है? यदि एक शब्द में समझना हो तो मोटे तौर पर हम कह सकते हैं- ‘लोक कल्याण’… और राजनीति या सत्ता के लिए लड़ा जाने वाला युद्ध भी यदि ‘धर्मयुद्ध’ है तो उसका भी अंतिम लक्ष्य है ‘लोक कल्याण’। और इस लक्ष्य को पाने का जो मार्ग है वह सत्य, न्याय, शांति, सद्भाव, सौहार्द,अहिंसा, अभय जैसे अनेक मील के पत्थरों को पार करता हुआ आगे जाता है। पर क्या आज राजनीति में लक्ष्य को पाने का मार्ग इन मील के पत्थरों की तरफ देखता भी है?
खैर… चलिए ये तो यूं ही मन में आया तो लिख दिया। वैसे मन में यह बात आने का ताजा कारण मंगलवार को खजुराहो में भारतीय जनता पार्टी अध्यक्ष अमित शाह द्वारा दिया गया एक बयान है। उन्होंने वहां चुनावी रैली को संबोधित करते हुए भोपाल चुनाव के संदर्भ में कहा-‘’साध्वी प्रज्ञा को उम्मीदवार बनाया जाना, हिंदू आतंकवाद की झूठी कहानी गढ़ कर पूरे विश्व में हिंदुओं का अपमान करने वाले कांग्रेस के दिग्विजय सिंह के सामने हमारा सत्याग्रह है। भोपाल की जनता इस अपमान का बदला लेने के लिए तैयार है।‘’
अमित शाह के इस बयान पर बात होनी चाहिए। बात इसलिए कि ‘सत्याग्रह’ मूलत: भारतीय जनता पार्टी की शब्दावली का शब्द नहीं है। यह गांधीजी के आंदोलन की शब्दावली का हिस्सा था। दरअसल गांधीजी ने दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के साथ होने वाले भेदभाव के खिलाफ आंदोलन के लिए लोगों से अच्छा-सा शब्द मांगा था। इसके लिए उन्होंने अपने अखबार ‘इंडियन ओपीनियन’ में एक प्रतियोगिता आयोजित की थी।
उस प्रतियोगिता में गांधीजी के ही परिवार के एक सदस्य मगनलाल गांधी (हालांकि उन्होंने उस समय प्रतियोगिता की पुरस्कार राशि लेने और अपना नाम उजागर करने से मना किया था) ने शब्द दिया ‘सदाग्रह’। इस शब्द को चुन लिया गया। लेकिन बाद में गांधीजी ने इसमें छोटा सा संशोधन करते हुए नया नाम दिया ‘सत्याग्रह’।
आज के राजनीतिक और चुनावी संदर्भों में यह शब्द कितना सार्थक है या कितना फिट बैठता है इस पर मैं कोई टिप्पणी नहीं करना चाहूंगा, लेकिन गांधी का‘सत्याग्रह’ से आशय क्या था, यह जरूर बताना चाहता हूं। गांधी के ‘सत्याग्रह’ का मूल अर्थ है सत्य के प्रति आग्रह (सत्य+आग्रह), सत्य पर टिके रहना और इसके साथ अहिंसा को मानना।
गांधी के विरोध या आंदोलन का मुख्य कारण था रंगभेद या भारतीयों के प्रति किया जाने वाला अन्याय/भेदभाव। और उन्होंने इसके प्रतिकार के लिए जो रास्ता अपनाया उसका मूल तत्व था अन्याय का विरोध करते हुए भी अन्यायी के प्रति वैरभाव न रखना। वे कहते थे, हम सत्य का पालन करते हुए निर्भयतापूर्वक मृत्य का वरण करें और मरते मरते भी, जिसके विरुद्ध सत्याग्रह कर रहे हैं, उसके प्रति हमारे मन में वैरभाव या क्रोध न हो।
‘सत्याग्रह’ में अपने विरोधी के प्रति हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं है। चूंकि गांधी अहिंसावादी थे, इसलिए उनका मानना था कि धैर्य एवं सहानुभूति से विरोधी को उसकी गलती से मुक्त करना चाहिए, क्योंकि जो एक को सत्य प्रतीत होता है, वही दूसरे को गलत दिखाई दे सकता है। धैर्य का तात्पर्य है कष्ट सहना। इसलिए सत्याग्रह का अर्थ हुआ ‘’विरोधी को कष्ट अथवा पीड़ा देकर नहीं, बल्कि स्वयं कष्ट उठाकर सत्य की रक्षा करना।‘’
गांधी ने कहा था कि सत्याग्रह में ‘प्रेम’ का तत्व स्वाभाविक या नैसर्गिक तौर पर समाहित है। सत्याग्रह यानी सत्य के लिए प्रेमपूर्वक आग्रह। लार्ड इंटर के सामने सत्याग्रह की व्याख्या करते हुए वे कहते हैं- ‘’यह ऐसा आंदोलन है जो पूरी तरह सच्चाई पर कायम है और हिंसा के उपायों के एवज में चलाया जा रहा है।‘’
अहिंसा, सत्याग्रह-दर्शन का सबसे महत्वपूर्ण तत्व है, क्योंकि सत्य तक पहुँचने और उस पर टिके रहने का एकमात्र उपाय अहिंसा ही है। और गांधी जी के ही शब्दों में ‘’अहिंसा किसी को चोट न पहुँचाने की नकारात्मक वृत्तिमात्र नहीं है, बल्कि वह सक्रिय प्रेम की विधायक वृत्ति है।‘’
लेकिन गांधी जब सत्याग्रह शब्द के साथ साथ उसकी विचार एवं कर्म प्रक्रिया को गढ़ रहे थे, उस समय भारत में स्वराज या स्व-लोकतंत्र की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। लोकतंत्र में सत्याग्रह क्या और कैसा हो, इसका जवाब विनोबा जी देते हैं। वे कहते हैं- ‘’वास्तव में सामूहिक सत्याग्रह की आवश्यकता उस तंत्र में नहीं होगी, जिसमें निर्णय बहुमत से नहीं, सर्वसम्मति से होगा। लोकतंत्र में जब विचारस्वातंत्र्य और विचारप्राधान्य के लिए पूरा अवसर है, तो सत्याग्रह को किसी प्रकार के ‘दबाव, घेराव अथवा बंद’ का रूप ग्रहण नहीं करना चाहिए। ऐसा हुआ तो सत्याग्रह की सौम्यता भी नष्ट होगी और सत्याग्रही अपने धर्म से च्युत हो जाएगा।‘’
कृष्ण ने महाभारत को ‘धर्मयुद्ध’ कहा था और गांधी ने अपने आंदोलन को ‘सत्याग्रह’ नाम दिया। संयोग से ये दोनों ही शब्द भोपाल लोकसभा के चुनाव में आ उतरे हैं। अब आप स्वयं ही तय करें कि आज के संदर्भों में इन शब्दों का भाव और प्रभाव क्या है…