अजय बोकिल
देश में कोरोना वैक्सीनेशन का महाभियान प्रारंभ हो चुका है। सरकारी आंकड़ों को सही मानें तो पहले ही दिन पूरे देश में 1 लाख 90 हजार लोगों को कोविड टीके लगाए गए। पहले चरण में मुख्य रूप से मेडिकल स्टाफ को वैक्सीन लगाई जा रही है। राहत भरी हवाओं में एक खबर यह भी आई कि कई लोग मैसेज भेजने के बाद भी टीका लगवाने नहीं आए। कारण यह कि कुछ लोगों के मन में भारत में बनी वैक्सीनों के कारगर होने को लेकर अभी भी कहीं संदेह है।
दूसरी तरफ मीडिया में इस कोरोना टीकाकरण महाभियान को कुछ इस तरह से पेश करने की कोशिश की गई कि वैक्सीन क्या आई, कोरोना देश छोड़कर भाग गया। यह अच्छी और गौरवपूर्ण उपलब्धि का अतिरेक है। हमें ध्यान रखना चाहिए कि वैक्सीन कोरोना से बचने के लिए प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाती है। लेकिन वह कोरोना की दवा नहीं है। टीके और दवा का फर्क हमें समझना होगा।
यह सही है कि बीती एक सदी में किसी महामारी की वैक्सीन तैयार होने को लेकर जैसी और जितने बड़े पैमाने पर बेताबी और जिज्ञासा इस बार रही है, वैसी पहले शायद ही देखने में आई हो। वरना दवा वैज्ञानिक विभिन्न रोगों की वैक्सीन तैयार करते ही हैं। लेकिन उनकी मेहनत, धैर्य और कार्यनिष्ठा की हम तक जानकारी कम ही पहुंचती है। लेकिन कोरोना वैक्सीन के विकास को पूरी दुनिया एक बाल सुलभ जिज्ञासा और व्याकुलता के साथ देख रही थी कि कौन सी वैक्सीन पहले आती है, कितनी कारगर होती है और हमें कब लगती है।
बेशक, वो दिन आ गया है। देश में करीब 30 करोड़ से ज्यादा लोगों को वैक्सीन लगनी है। इसे पूरा होने में 3 साल तक लग सकते हैं। अच्छी बात यह है कि अधिकांश डॉक्टर व पैरा मेडिकल स्टाफ ये वैक्सीन लगवा रहा है, बावजूद इस सचाई के कि सरकार द्वारा स्वीकृत कोवैक्सीन और कोविशील्ड का तीसरे चरण का ट्रायल अभी चल रहा है। इस ट्रायल की सफलता के बाद ही इन दोनों वैक्सीनों की कारगरता तय होगी। फिर भी लोग वैक्सीन लगवा रहे हैं तो इस भरोसे के साथ कि अंतत: ये वैक्सीन उन्हें कोरोना के शिकंजे से बचा लेगी।
सरकार ने भरोसा दिया है तो वैक्सीन लगवाने में कोई नुकसान नहीं है। ये वैक्सीन भारतीय दवा वैज्ञानिकों ने विकसित की है, इसलिए उसमें ‘चीनी माल’ टाइप धोखा होने की संभावना नहीं है। जहां तक इन वैक्सीनों के तीसरे चरण के ट्रायल का प्रश्न है तो यह चरण किसी भी वैक्सीन विकास प्रक्रिया की पूर्णाहुति समान होता है। मनुष्यों पर किए गए तीसरे चरण के परीक्षण के डाटा से तय होता है कि बनाई जा रही वैक्सीन कितनी उपयोगी है, कितनी कारगर है। चूंकि थर्ड फेज का डाटा अभी सामने नहीं आया है, इसलिए कई लोगों ने स्वीकृत दोनों वैक्सीनो की वैज्ञानिक प्रामाणिकता पर सवाल उठाए हैं। दिल्ली में कुछ रेजीडेंट डॉक्टरों ने भी फिलहाल टीका लगवाने से इंकार किया है।
उधर कोरोना वैक्सीन का तीसरा चरण राजनीति का मुद्दा भी बन गया है। कांग्रेस ने कोविड 19 टीके को सरकार द्वारा जल्दबाजी में मंजूरी दिए जाने पर सवाल उठाए हैं। कहने का आशय ये कि भई, इतनी जल्दी क्या थी? जब इतनी देर हुई ही है तो चार महीने और रुक जाते…! हालांकि राजनीति के पैंतरे सियासी लाभ-हानि के चौघडि़ए से तय होते हैं। मान लीजिए कि मोदी सरकार इन दो वैक्सीनों को लगाने की मंजूरी नहीं देती तो विपक्ष के पास यह आरोप तैयार था कि सरकार देश में कोरोना वैक्सीन तैयार करने के लिए कुछ नहीं कर रही है। उसका सारा ध्यान केवल चुनाव जीतने में लगा रहता है। कोरोना वायरस को हराने में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं है। अब सरकार ने इसे दो चरण के परीक्षणों के बाद ही मंजूरी दे दी है तो राजनीतिक सवाल यही बनता है कि इतनी जल्दी मंजूरी क्यों दे दी?
उधर दुनिया में कुछ और देशों की तकलीफ यह है कि हम कोरोना वैक्सीन मामले में इतने कामयाब क्यों हो गए हैं? देश में विपक्ष की आशंकाओं को अलग रखें तो भारत में विकसित दोनो वैक्सीनों की मांग दुनिया के कई देशों ने की है। और तो और पाकिस्तान ने भी मजबूरी में ही सही, भारत में विकसित कोविशील्ड वैक्सीन को आपात मंजूरी दे दी है। जबकि चीनी वैक्सीन उन्हें आसानी मिल रही थी। मिल भी क्या रही थी, उसे पाकिस्तान पर थोपा जा रहा था। क्या ऐसे देशों को नहीं पता कि इन वैक्सीनो के तृतीय चरण का परीक्षण अभी चल रहा है? उसकी कारगरता की पूर्ण पुष्टि अभी होनी है। और वैक्सीन विकास में यह नहीं हो सकता कि तीसरा चरण ही गायब कर दिया जाए।
हमारे यहां भी कई डॉक्टरों को स्वदेशी कोवैक्सीन से ज्यादा विदेशी कंपनी के सहयोग से विकसित कोविशील्ड वैक्सीन पर ज्यादा भरोसा है। दिल्ली के राम मनोहर लोहिया अस्पताल के रेजीडेंट डॉक्टरों ने कहा कि वो कोवैक्सीन की जगह कोविशील्ड का टीका लगवाना पसंद करेंगे। हालांकि वैक्सीन निर्माता कंपनियों ने कहा कि है कि क्लीनिकल ट्रायल के दौरान कोई दुष्प्रभाव दिखता है तो कंपनी उसका मुआवजा देगी।
ध्यान देने की बात यह है कि कई लोग वैक्सीन को ही कोरोना का रामबाण इलाज मान बैठे हैं। इसे प्रचारित भी कुछ इसी तरह किया जा रहा है। लेकिन यह टीका है, दवा नहीं। टीका आपके शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ा देता है। ताकि आप उस रोग से बचे रह सके। जबकि दवा रोग को खत्म या उसे नियंत्रित करती है। वैसे दुनिया में इस तरह की पहली वैक्सीन बनाने का श्रेय इंग्लैंड के डॉ. एडवर्ड जेनर को जाता है, जिन्होंने पहली बार पता लगाया कि दूध बेचनेवालियां एक ऐसे रोग का शिकार होती हैं, जो गो वायरस के कारण फैलता है।
उन्होंने इसे काउपॉक्स कहा। जिसे हिंदी में छोटी माता या गोशीतला भी कहा जाता है। उन्होंने इस शब्द का प्रयोग एक विशेषण के तौर पर 1798 में किया था। एडवर्ड जेनर की शुरुआती वैक्सीन के बाद पीढ़ी दर पीढ़ी इसमें काफी सुधार हुआ है। बीसवीं सदी में डिप्थीरिया, मीजल्स और रूबेला जैसे गंभीर रोगों की सफल वैक्सीनें तैयार हुई। आज हमारे देश में तकरीबन हर बालक को डीपीटी का टीका लगाया जाता है। इससे बहुत बड़ी आबादी इन रोगों का शिकार होने से बच जाती है।
लेकिन वैक्सीन का अर्थ यही नहीं कि उसने बीमारी को हमेशा के लिए खत्म कर दिया है। पोलियो वैक्सीन लगाने के बाद भी लोग पोलियो के शिकार होते हैं। अलबत्ता उनकी संख्या पहले की तुलना में काफी कम हुई है। वैसे वैक्सीन कई प्रकार की होती हैं। वैज्ञानिकों ने डीएनए वैक्सीन भी तैयार कर लिया है। यह जीका वायरस के लिए तैयार किया गया। अब तो वैज्ञानिक सिन्थेटिक वैक्सीन तैयार करने में लगे हैं। यह वैक्सीन किसी वायरस की बाह्य संरचना को रिकंस्ट्रक्ट करके तैयार की जा रही है। इससे वायरस की वैक्सीन प्रतिरोधक क्षमता विकसित होने पर रोक लग सकेगी।
बताया जाता है कि ऐसी वैक्सीन का उपयोग उन रोगों के लिए भी किया जा सकेगा, जो गैर संक्रामक मानी जाती हैं, जैसे कि कैंसर या ऑटोइम्यून डिसऑर्डर आदि। ऐसी एक परीक्षणाधीन वैक्सीन से हाई बीपी के इलाज की संभावना के द्वार खुले हैं। फिर भी वैक्सीन के जरिए व्यापक इम्युनाइजेशन का अपना महत्व है। यह विश्व की एक बड़ी आबादी को संक्रामक रोगों के लड़ने की शक्ति देता है। इसलिए वैक्सीन लगवाने में ज्यादा भलाई है, बजाए उससे बचने के।
भाग्यवादी सोच यह कहता है कि जो होना है, सो तो होगा ही। ऐसे में वैक्सीन लगवाने से भी क्या फायदा? लेकिन यह सोच निराशावादी है। वैक्सीन के क्लिनिकल ट्रायल के चरणों के डेटा पर सवाल उठ सकते हैं, लेकिन उस वैक्सीन के पीछे की मंगल भावना को आप खारिज नहीं कर सकते। जिन वैज्ञानिकों ने इसे विकसित किया है, उन्होंने भी इस काम के लिए अपना खून-पसीना एक किया है। बेशक, तकनीकी सवालों के संतोषजनक जवाब मिलने चाहिए, लेकिन इससे कल्याणकारी काम की महत्ता घटनी नहीं चाहिए। विश्वास पर संदेह भारी नहीं पड़ना चाहिए।