‘कोरोना’: मारता ही नहीं, कुछ को तारता भी है!

अजय बोकिल

जी हां, नाम में बहुत कुछ रखा है, फिर चाहे ‘कोरोना’ ही क्यों न हो। आज सारा देश इस बेरहम वायरस से बचाव की वैक्सीन आ जाने और उसे लगवाने के महाभियान में डूबा है। लेकिन कई लोग आज भी ‘कोरोना’ शब्द के उच्चारण से भी इसलिए डरते हैं कि कहीं वो संक्रमित न हो जाएं। पर इसका एक पहलू और है कि ‘कोरोना’ जिन्हें फलता है तो ऐसे फलता है जैसे अहमदाबाद की फार्मा कंप‍नी ‘कोरोना रेमे‍डीज’ को फला। कोरोना नाम होने के कारण दहशत के इस दौर में भी मशहूर हुई इस कंपनी का टर्नओवर 100 करोड़ रुपये बढ़ गया।

हालांकि 16 साल पुरानी इस कंपनी ने अपना नाम ‘कोरोना’ उगते सूर्य का पर्याय होने के कारण रखा था न कि कोविड 19 वायरस के कारण। क्योंकि तब तो इस वायरस के बारे में किसी को कुछ पता नहीं था। लेकिन कहते हैं न कि कभी कयामत भी बरकत का बायस बन जाती है। इस कंपनी के साथ ऐसा ही हुआ। कुछ ऐसा ही बरसों पहले ‘झंडू बाम’ बनाने वाली कंपनी इमामी और ‘फेविकोल’ बनाने वाली पिडीलाइट इंडस्ट्रीज के साथ भी हुआ था।

जहां तक किसी व्यक्ति, कंपनी या संस्था के नामकरण की बात आती है तो अक्सर सकारात्मक भाव लिए शब्दों का ही चयन किया जाता है। हालांकि जिस बच्चे का जो नाम रखा जाता है, उसे पता नहीं होता कि उसका नाम ऐसा क्यों और किसलिए रखा गया है। लेकिन नाम जो भी हो, धीरे-धीरे वह उसी में अपनी पहचान न सिर्फ खोज लेता है ‍बल्कि उससे एकाकार भी हो जाता है। दुनिया में कम ही लोग होते हैं, जो अपना मूल नाम पसंद नहीं करते और उसे बदलना चाहते हैं। ऐसा करते भी हैं तो उसके पीछे कुछ दूसरे कारण हो सकते हैं, स्वेच्छा कम।

बहरहाल बात कोरोना कंपनी की। इन दिनों पूरी दुनिया में कोरोना एक डरावना और नकारात्मक शब्द बन गया है। क्योंकि 21 वीं सदी में खोजे गए इस ‘मुकुटाकार’ जानलेवा वायरस का नामकरण वैज्ञानिकों ने कोरोना क्या कर दिया, कोरोना शब्द की मानो तासीर ही बदल गई। इसी माहौल में एक खबर यह आई कि कोरोना मारता ही नहीं, तारता भी है।

गुजरात में अहमदाबाद की कोरोना रेमेडीज प्राइवेट लिमिटेड कंपनी हृदय और स्त्री रोगों की दवा बनाती है। कंपनी के संस्थापक नीरव मेहता ने एक इंटरव्यू में बताया कि वे अपनी दादी सूरज बेन के नाम पर कंपनी खड़ी करना चाहते थे। लेकिन अंग्रेजी में ‘सन फार्मा’ नाम की कंपनी पहले से मौजूद थी। फिर हमने अंग्रेजी में सूरज के पर्यायवाची ढूंढे तो कोरोना शब्द मिला। इसका शाब्दिक अर्थ है ‘सूर्य का प्रभामंडल।‘ इसका एक अर्थ मुकुट भी होता है।

बकौल नीरव, कंपनी के नाम में ‘कोरोना’ होने से हमारा कारोबार काफी बढ़ा। 2019 में हमारा टर्नओवर 609 करोड़ रुपये का था, जो इस साल 700 करोड़ के पार जाने की उम्मीद है। महामारी ही नहीं, फिल्मी गानों में डाले गए उत्पादों के नाम भी किसी प्रॉडक्ट की तगड़ी ब्रांडिग कैसे कर सकते हैं, यह हमने 2010 में आई फिल्म ‘दंबग’ में देखा। इस फिल्म के बेहद लोकप्रिय गाने ‘मुन्नी बदनाम हुई, ‍डार्लिंग तेरे लिए, मैं झंडू बाम हुई डार्लिंग तेरे लिए’ पर झंडू बाम बनाने वाली इमामी लिमिटेड ने कानूनी आपत्ति ली थी।

बाद में मामला सुलझ गया और कंपनी द्वारा फिल्म में इस गाने पर डांस करने वाली अभिनेत्री मलाइका अरोरा को ब्रांड एम्बेसेडर बनाने की बात भी चली। समझौते के पीछे असली कारण यही था कि गाने में झंडू बाम आने से झंडू बाम की बिक्री काफी बढ़ गई। कंपनी के नेट प्रॉफिट में 69.5 फीसदी की वृद्धि हुई। गौरतलब है कि झंडू बाम करीब सौ साल से ज्यादा पुरानी एक दर्द निवारक आयुर्वेदिक दवा है। पहले इसे झंडू फार्मास्युटिकल वर्क्स कंपनी बनाती थी। 2008 में उसे इमामी लि. ने खरीद लिया।

अब इस बाम का ‘झंडू’ नाम क्यों है और उस बार डांस गीत में ‘झंडू बाम’ नाम क्योंकर डाला गया? यह भी जानने की बात है। पहला कारण तो यह था कि झंडू बाम घर-घर में जाना पहचाना बाम है, ऐसा बाम जो बदनामी से मिले दर्द का भी कारगर तरीके से निवारण कर सकता है। अगला सवाल ये कि इसका नाम झंडू ही क्यों? इसका अर्थ क्या? इसकी वजह यह बताई जाती है कि दवा निर्माता कंपनी झंडू फार्मा का नाम जिनके नाम पर रखा गया, वो थे झंडू भट्ट। एक सदी पहले वो गुजरात की भावनगर रियासत में प्रख्‍यात वैद्य थे। यह बात अलग है कि कुछ लोग झंडू शब्द को उपहास अथवा लल्लूपन के रूप में लेते हैं, लेकिन उसका इतिहास एक संजीदा हस्ती से जुड़ा है।

कुछ ऐसा ही मामला चिपकाने के काम आने वाले ‘फेविकोल’ के ब्रांड के साथ भी हुआ। इसे कोलकाता की पिडिलाइट इंडस्ट्रीज कंपनी बनाती है। ‘झंडू’ की कामयाबी के बाद ‘फेविकोल’ के प्रचार के लिए कंपनी ने दबंग 2 के निर्माता अरबाज खान के साथ करार किया और गाना तैयार हुआ ‘मैं तो कब से हूं, रेडी तैयार, पटा ले सैंया फेविकोल से।‘ इस पर करीना कपूर ने मादक डांस किया था। हालांकि रसिकों का मानना है कि जो बात ‘झंडू’ वाले मलाइका के डांस में थी, वो करीना के ‘फेविकोल’ वाले में नहीं थी।

वैसे फेविकोल का कारोबार 54 देशों में फैला है और कारपेंटरी के क्षेत्र में तो ‘फेविकोल’ शब्द हिंदी में मजबूत जोड़ का मुहावरा बन गया है। गाने में पटाने के लिए फेविकोल के इस्तेमाल के सुझाव ने इसके बाजार को और विस्तार दे दिया। फेविकोल अटूट रिश्ते का पर्याय माना जाने लगा। इसमें बाजार की चतुराई और व्यावहारिक अनुभव दोनों शामिल हैं।

बात फिर कोरोना की। इससे बचने के लिए हमें अभी भी ‘दो गज की दूरी बनाए रखने’ की सलाह भले मोबाइल रिंग टोन के पहले मिलती हो, लेकिन सभी लोगों ने उससे इस तरह बचने की कोशिश नहीं की है। मसलन कोरोना काल में जन्मे कुछ बच्चों का नामकरण ही ‘कोरोना’ किया गया। राजस्थान के डूंगरपुर में लॉकडाउन में पलायन करने वाले मजदूर दंपती ने नवजात बेटी का नाम ही ‘कोरोना’ रखा। हो सकता है कि बदहवासी के उस दौर को वो इसी रूप में याद रखना चाहते हों।

उसी लॉकडाउन में छत्तीसगढ़ में एक दंपती में अपने जुड़वां बच्चों के नाम क्रमश: कोविड और कोरोना रख दिए। यानी बेटा कोविड और बेटी कोरोना। कोरोना लॉकडाउन में ही बंगाल में टीएमसी सांसद अपरूपा पोद्दार ने भी अपनी नवजात बेटी का नामकरण ‘कोरोना’ किया। ये सभी बच्चे बड़े होकर अपने नाम को किस रूप में लेंगे, देखेंगे, इस बारे में केवल कल्पना ही की जा सकती है।

बहरहाल ‘कोरोना’ जैसा अपशगुनी नामकरण और उससे आने वाली आर्थिक खुशहाली इस मिथक को तो तोड़ती ही है कि नकारात्मक शब्दों को नामकरण के लिए उपयोग नहीं किया जाना चाहिए। दरअसल शब्द अपने आप मासूम ही होते हैं, उनसे जुड़े मानवीय अनुभव और आग्रह ही उन्हें अच्छा या बुरा बनाते हैं। कोरोना भी एक वायरस है, सृष्टि ने ऐसे हजारों वायरस बनाए हैं। उसका नामकरण तो मनुष्य ने किया है।

हमने उसकी तासीर देखकर उस वायरस के प्रति अपनी भावना या दुर्भावना तय की है। इसलिए भी क्योंकि हमारे पास उसका कोई ठोस इलाज या प्रतिकार नहीं है। हम इस भरोसे पे हैं कि हाल में आई वैक्सीन कोरोना पर लगाम लगाएगी। हम डरे हुए इसलिए हैं कि कोरोना के पास मारक शक्ति है। लेकिन ये उसका स्वभाव है। नाम का नतीजा नहीं। वरना ‘कोरोना’ नामधारी किसी दवा कंपनी के दिन यूं नहीं ‍फिरते।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here