महामारी अब विधानसभा पर भी भारी

राकेश अचल 

जनता की आकांक्षाओं की प्रतीक विधानसभा भी अब नेताओं की मरजी से संचालित होने लगी है। विधानसभा संचालन के प्रावधानों की अनदेखी करते हुए मध्यप्रदेश विधानसभा का मानसून सत्र एक बार फिर स्थगित कर दिया गया है। कोरोना वायरस के चलते मध्य प्रदेश विधानसभा का मानसून सत्र स्थगित हुआ है। यह फैसला प्रोटेम स्पीकर रामेश्वर शर्मा की तरफ से बुलाई गई सर्वदलीय बैठक में लिया गया। प्रोटेम स्पीकर ने कहा कि विधानसभा में 219 सदस्यों के बैठने का पर्याप्त इंतजाम नहीं है। साथ ही सेंट्रल एसी होने के चलते कोरोना संक्रमण फैलने का खतरा ज्यादा है।

आपको जानकार हैरानी होगी की जो सरकार और सत्तारूढ़ दल अपनी चुनावी रैलियों में हजारों लोगों के बैठने की व्यवस्था आनन-फानन में कर लेते हैं वे ही अब 219 विधायकों के बैठने की वैकल्पिक व्यवस्था न कर पाने का बहाना बना कर विधानसभा का मानसून सत्र स्थगित करने में कामयाब हो गए। इससे पहले मार्च 2020 में विधानसभा का बजट सत्र भी राजनीति की भेंट चढ़ चुका है। सवाल ये है कि एक राजनीति को छोड़कर सरकारें कोरोना की आड़ में सब कुछ यानि सब कुछ क्यों स्थगित करने पर आमादा हैं?

मार्च में कोरोना का प्रसार होने के बाद जैसे ही लॉकडाउन  घोषित हुआ वैसे ही पहले व्यापारिक गतिविधियां ठप हुईं, फिर शैक्षणिक, प्रशासनिक, न्यायिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक गतिविधियों पर ब्रेक लगा दिया गया। जैसे तैसे सौ दिन के लॉकडाउन के बाद अनलॉक की प्रक्रिया शुरू की गयी तो राजनीतिक गतिविधियों को छोड़ अन्य सभी गतिविधियों को सीमित कर दिया गया। आज चार माह बाद भी न कोरोना नियंत्रित हुआ है और न जनजीवन मामूल पर आया है। और अब सरकारें विधानसभाओं को भी ठप करने लगी हैं। इन सबके पीछे कोरोना सिर्फ ढाल है, असल मकसद सियासत है।

कोरोना की आड़ में विधानसभा का मानसून सत्र स्थगित करने का फैसला सरकार का अकेले का होता तो अलग बात थी, इस फैसले में समूचा विपक्ष भी शामिल है। सरकार और विपक्ष को 26 विधानसभा उपचुनावों के लिए काम में लगना है। किसी के पास इतना समय नहीं है कि वो विधानसभा में जाने की तैयारी करे। सरकार अपनी कुर्सी बचाने में व्यस्त है और विपक्ष अपनी खोई हुई कुर्सी वापस पाने की जुगत में है। यानि सारा खेल कुर्सी का है। ये मध्यप्रदेश का दुर्भाग्य है कि यहां कुर्सी के खेल के चलते इस साल न बजट सत्र हो पाया और न अब मानसून सत्र हो पायेगा।

सर्वदलीय बैठक में प्रोटेम स्पीकर ने बड़ी मासूमियत के साथ कहा कि सदन के प्रत्येक सदस्य की सुरक्षा बहुत जरूरी है, इसलिए मानसून सत्र स्थगित किया जा रहा है। पिछले 10-12 दिनों में कोरोना संक्रमितों की संख्या राज्य में बढ़ी है। अब सवाल ये है कि क्या कोरोना के चलते विधायक अपने क्षेत्रों में कोरोना वारियर का काम कर रहे हैं या उनके पास समुचित सुरक्षा प्रबबंध नहीं हैं? हकीकत ये है कि यदि विधानसभा का बजट सत्र होता है तो सरकार की परेशानी बढ़ सकती है। सरकार के तमाम मंत्री सदन के सदस्य न होने के बावजूद यदि सदन में जायेंगे तो विपक्ष का शिकार बनेंगे। इन सदस्यों को अपने उपचुनाव की तैयारी करना है, जनता के सवालों से इनका कोई लेना देना नहीं है।

आपको याद होगा कि बजट सत्र न होने के कारण सरकारी जमा-खर्च अध्यादेशों के माध्यम से चल रहा है और आगे भी अनुपूरक बजट के लिए सरकार अध्यादेश का ही सहारा लेगी। विपक्ष को भी इस पर कोई आपत्ति नहीं है, क्योंकि सब विधानसभा का सामना करने से कतरा रहे हैं। न विपक्ष की कोई तैयारी है और न सरकार की। वैसे भी बीते चार महीने में सरकार कुर्सी के खेल में उलझी रही है, उसे जनता के लिए कुछ करने का अवसर मिला ही कहाँ है? बजट सत्र में बजट के अलावा प्रदेश की क़ानून और व्यवस्था, किसानों की बदहाली, आर्थिक दुर्दशा जैसे मुद्दे स्वाभिक रूप से उठाये जाते, लेकिन अब जब विधानसभा बैठेगी ही नहीं तो न ‘रहा बांस और न बजेगी बाँसुरी।’

विधानसभाओं के सत्र स्थगित करने और छोटे करने की बीमारी अकेले मध्यप्रदेश को ही नहीं लगी है। दूसरे राज्य भी कोरोना को ढाल बनाकर ये लोक-अपराध कर रहे हैं। चूंकि इन सब मामलों में जनता के पास कोई अधिकार होता नहीं है इसलिए उसके पास मूकदर्शक बने रहने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं है। कोरोना से अधिक परेशान राज्यों में भी विधानसभाओं के बजट सत्रों को रद्द करने या उन्हें छोटा करने की होड़ लगी है।

श्रीगणेश मध्यप्रदेश कर ही चुका है। मुझे तो आशंका ये है कि ये सब कहीं संसद के मानसूत्र को भी स्थगित करने की पूर्व पीठिका तो नहीं है! बहुत मुमकिन है कि केंद्र सरकार भी कोरोना को ढाल बनाकर संसद का मानसून सत्र स्थगित कर दे, क्योंकि केंद्र सरकार भी देश की अर्थव्यवस्था और सरहदों पर तनाव जैसे ज्वलंत मुद्दों को लेकर घिरी हुई है और संसद में उसकी फजीहत हो सकती है।

सामन्यत: विधानसभाओं और संसद के तीन सत्र तो होते ही हैं, एक बजट सत्र, दूसरा मानसून सत्र और तीसरा शीतकालीन सत्र। इनकी अवधि घटती-बढ़ती रहती है। लेकिन पिछले अनेक वर्षों से ये देखने में आ रहा है कि सरकारों की रुचि इन सदनों की बैठकों को लगातार कम करने में बढ़ी है। सरकार किसी भी दल की हो सबका चरित्र इस मामले में एक जैसा है। दुर्भाग्य ये है कि इस मुद्दे पर न जनता कभी आंदोलित होती है और न कोई इस तरह की पहल ही करता है। सब जन-प्रतिनिधियों और सरकारों की मरजी पर निर्भर है।

इस समय 230 सदस्यों की विधानसभा में सत्तारूढ़ भाजपा के 107, कांग्रेस के 91, निर्दलीय 4, बसपा 2  और सपा का 1  सदस्य है। 26  सीटें विधायकों के इस्तीफों के कारण रिक्त हैं। सदन से इस्तीफा देने वाले अधिकांश सदस्य कांग्रेस के हैं। 22  कांग्रेसी विधायकों ने तो मार्च में एक साथ इस्तीफे दिए थे। 2  ने हाल ही में त्यागपत्र दिए हैं और 2  का निधन हो चुका है। आने वाले दिनों में इन्हीं उपचुनावों के जरिये मौजूदा सरकार का भविष्य तय होगा। और शायद तभी विधानसभा का स्पष्ट चित्र भी उभर कर सामने आये।

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