नरेन्द्र चंचल: उन्होंने भजन गायकी का व्याकरण बदल डाला!

अजय बो‍किल

जाने-माने भजन गायक नरेन्द्र चंचल मां वैष्णो देवी की जिस पुकार ‘चलो बुलावा आया है, माता ने बुलाया है’ को अपने संगीत कार्यक्रमों में अक्सर दोहराते थे, उसी माता ने मानो इस अपने इस लाडले भक्त को हमेशा के लिए अपने पास बुला लिया। यूं नरेन्द्र चंचल ने बॉलीवुड की हिंदी फिल्मों में कुछ गैर भजनी गीत भी गाए, लेकिन भजन गायकी ही उनकी आत्मा थी। नरेन्द्र चंचल को इस बात का श्रेय देना पड़ेगा कि सत्तर के दशक में उन्होंने भजनों के पारंपरिक व्याकरण और तेवर को बदल कर रख दिया।

चंचल के पहले तक हमें या तो पारंपरिक भजन सुनने को मिलते थे या फिर फिल्मी भजन। लेकिन भजनों के लाइव कंसर्ट का ज्यादा चलन न था। या यूं कहें कि भजनों की दुनिया अमूमन मंदिरों, पूजाघरों या धार्मिक समारोहों तक महदूद थी। नरेन्द्र चंचल ने भजनों को इस दायरे से बाहर निकालकर सार्वजनिक मंच पर एक धार्मिक इवेंट की तरह स्थापित किया। जिसमें भक्ति भाव के साथ साथ ग्लैमर भी अंतर्निहित था। इस मायने में भजन गायकी में चंचल की लोकप्रियता को शायद ही कोई लांघ पाया है।

यूं बहुत से गायकों ने भजन गाए हैं, बहुत अच्छे भी गाए हैं। लेकिन भजन गायकी में एक अलग तरह के समर्पण और भक्ति रस में डूब जाने की दरकार होती है। क्योंकि एक सफल भजन गायक अपने सुर और भाव से भक्तों को भगवान की देहरी तक ले जाता है। इस भक्ति भाव से भगवान कितने प्रसन्न होते हैं, पता नहीं, लेकिन भक्त जरूर निहाल हो जाते हैं।

पंजाब के अमृतसर में जन्मे नरेन्द्र चंचल का असल नाम नरेन्द्र खरबंदा था। धार्मिक वातावरण उन्हें विरासत में मिला था। सो, भजन गायकी में रमना और लोगों को भी इसमें शामिल करना उन्हें सहजता से हासिल हुआ था। चंचल ने अपनी आत्मकथा ‘मिडनाइट सिंगर’ के नाम से लिखी थी। अपने पहले फिल्मी गीत ‘बेशक मंदिर मजिस्द तोड़ो’ पर उन्हें फिल्मफेयर अवॉर्ड भी मिला। चंचल मां वैष्णो देवी के परम भक्त थे। वो हर साल माता के दर्शन के लिए जाते थे और भजन भी गाते थे। उन्हें सबसे अमीर भजन गायक भी माना जाता था।

अपने देश में नवरात्रि पर देवी आराधना के भी अलग अलग आंचलिक प्रकार और भक्ति शैलियां हैं। नवरात्रि और खासकर शारदीय नवरात्रि में जहां बंगाल और पूर्वोत्तर भारत में दुर्गा की आराधना मुख्‍यत: धार्मिक अनुष्ठान का हिस्सा है तो गुजरात में देवी का अंबा रूप ज्यादा लोकप्रिय है। यहां उसकी आराधना गरबा नृत्य के रूप में की जाती है। हालांकि वहां भी ये आजकल मेगा इंवेट में बदल गया है। लेकिन पहले इसका स्वरूप मुख्य रूप से धार्मिक ही था। दक्षिण भारत में भी नवरात्रि धार्मिक कर्मकांड ही ज्यादा है। लेकिन उत्तर-पश्चिम भारत और खासकर पंजाब में नवरात्रि देवी जागरण के रूप में बेहद लोकप्रिय है। नरेन्द्र चंचल ने देवी आराधना की इसी शैली को समूचे देश और विदेशों में भी लोकप्रिय बनाया।

इसका मुख्य कारण था, उनकी अलग तरह की आवाज। जिसमें कंपन के साथ सप्तक को छूने की कूवत थी। इस हिसाब से नरेन्द्र चंचल की आवाज मोहम्मद रफी और तलत महमूद की आवाज का भक्तिरसी मिश्रण लगती है। मुझे याद है कि पचास साल पहले ग्रामोफोन के जमाने में देवी भजनों के नाम पर हमें ज्यादातर कुछ परंपरागत आरतियां और कुछ फिल्मी भक्ति गीत बार-बार सुनने को मिलते थे। पहली बार नरेन्द्र चंचल के जागरण गीतों में देवी आराधना की एक बुलंद गायकी और समर्पित स्वर सुनने को मिला।

हालांकि हिंदी दर्शकों और श्रोताओं की चंचल के बुलंद सुर से मुलाकात मशहूर फिल्म बॉबी के उस सूफी गीत से हुई, जिसमें वो ‘प्यार भरा दिल कभी न तोड़ो..’ का मार्मिक आह्वान करते हैं। उनका फिल्म ‘रोटी कपड़ा और मकान’ में गाया गीत ‘बाकी कुछ बचा तो महंगाई मार गई..’ आज भी प्रासंगिक है। लेकिन नरेन्द्र चंचल की असल पहचान उनके भक्ति गीतों से ही है। देवी जागरण से है। चंचल जब देवी के भक्ति गीत गाते हैं तो लगता है मानो माता रानी खुद अपनी स्तु‍ति का रसपान कर रही हों। भक्ति रस में पगी चंचल की आवाज दिवाली के रॉकेट की माफिक एकदम चढ़ती हुई उस चरम को छू लेती है, जहां भक्त और भगवान का एक अमूर्त फ्यूजन-सा होने लगता है।

चंचल के स्वर का स्थायी भाव उसकी आर्तता है। यह आर्त भाव मां के बुलाने या मां के पास जाने की व्याकुलता में और मुखर हो उठता है। चंचल की सफलता यही थी कि अपनी इस व्याकुलता में वो भक्तों को पूरी शिद्दत से शामिल कर लेते थे। भजन और फिल्मी गीतों की गायकी में चंचल का मुकाम इसलिए भी अलग है, क्योंकि उन्हें उस दौर में बॉलीवुड में गाने का मौका मिला था, जब हिंदी फिल्म संगीत का आकाश रफी, मुकेश, किशोर, मन्ना डे जैसे महान गायकों से आच्छादित था। उसमें अपनी अलग आवाज से अलग पहचान बनाना वाकई माता रानी के चरणों में स्थान पाने जैसा ही था।

पारंपरिक देवी जगरातों से बॉलीवुड में चंचल की एंट्री जिस वक्त हुई, वह ऑडियो कैसेट की शुरुआत का दौर था। धार्मिक आयोजन धीरे धीरे सार्वजनिक इवेंट में तब्दील हो रहे थे। हालांकि तब भी आज जैसा धर्म और राजनीति का कॉकटेल तैयार नहीं हुआ था। लेकिन भक्ति रस का विस्तार एक ग्लैमर के साथ होना शुरू हो गया था। चंचल के मंचीय जगरातों ने उसे नए मुकाम तक पहुंचाया। चंचल जब देवी के भजन गाते थे तो लगता था कि उनकी आवाज मानो इसी के लिए बनी है।

ऐहिक दृष्टि से देखा जाए तो ‘चलो बुलावा आया है..’ और ‘बेशक मंदिर मस्जिद तोड़ो’ दो अलग मनोभावों और आग्रहों के गीत हैं। लेकिन चंचल उसे उसी अचंचल भाव से गाते हैं। गाते ही नहीं, उसमें गहरे तक डूब जाते हैं। ये गीत शाब्दिक दृष्टि से अलग अलग नजर आते हों, लेकिन आध्यात्मिक संदेश एक ही है। वो है निश्छल और निष्काम प्रेमासक्ति का। देवी के रूप में माता रानी का यह प्रेम मां बेटे का पवित्र रिश्ता है तो आशिक का दिल न तोड़ने की मार्मिक अरज भी इसी भाव से जन्मी है कि प्रेम निर्मल, निराकार और निर्हेतुक होता है। फिर चाहे वह मां की कृपा के रूप में हो या फिर ‘दो दिल-एक जान’ हो जाने के संकल्प के रूप में हो।

इस देश में बहुत आला दर्जे के भजन गायक हुए हैं। पंडित भीमसेन जोशी जैसे महान गायकों ने भजनों को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया। लेकिन नरेन्द्र चंचल जैसे सुगम गायकों ने पंजाबी रंग में रंगी भजन और खासकर देवी भजन गायकी में समूचे देश को रंग डाला। वो रंग जिसमें भक्ति, मस्ती और समर्पण एकाकार हो जाते हैं। बहरहाल, उम्र भी कोई चीज होती है और परलोक का मार्ग अचंचल होता है। नरेन्द्र चंचल ने अपना आखिरी गीत ‘कित्थो आया कोरोना’ गाया था। फिर वो दिल्ली के अस्पताल में भर्ती रहे। वहीं उन्होंने अंतिम सांस ली।

अगर कोई पूछे कि भजन और आरती में अंतर क्या है, तो जवाब देना कठिन ही है। कह सकते हैं कि आरती में केवल आराध्य की बहुविध स्तुति होती है। यानी वह ईश्वर के साथ अपनी सेल्फी लेने की कोशिश जैसा कुछ है, जबकि भजन में स्तुतिगान मनुष्य की मु‍क्ति की कामना के आध्यात्मिक भाव में लिपटा रहता है। हालांकि दोनों का उद्देश्य एक ही है, ऐहिक प्रपंचों से मुक्ति। चंचल अपने जगरातों में श्रोताओं को अपनी स्वर साधना से उस बिंदु तक ले जाते थे, जहां लगता था कि ‘मैया अब जंगल के राजा पर सवार होकर खुद भक्तों के बीच आ बैठने ही वाली है।‘

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