अजय बोकिल
कांग्रेस सांसद रेणुका चौधरी और जानी-मानी कोरियोग्राफर सरोज खान की तारीफ इसलिए की जानी चाहिए कि उन्होंने कास्टिंग काउच (हिंदी में कहें तो यौन अड़ीबाजी) के रूप में समाज की एक गलीज सचाई को हिम्मत के साथ उजागर करने के साथ-साथ स्वीकार भी किया। सरोज खान तो अपने बयान के लिए सोशल मीडिया में ट्रोल भी हुईं। उन्होंने कहा था कि फिल्म इंडस्ट्री में लड़कियों का कास्टिंग काउच का शिकार होना आम बात है। लेकिन फिल्मी दुनिया और बाकी क्षेत्रों में फर्क इतना है कि यहां लड़कियों को शरीर सौंपने के बदले काम और पैसा मिलता है, जबकि अन्य क्षेत्रों में पीडि़ताओं को या तो दुत्कार दिया जाता है या फिर मार कर फेंक दिया जाता है।
सरोज खान के शब्द चयन में त्रुटि हो सकती है, लेकिन उनके कहने का भाव यही था कि फिल्म इंडस्ट्री में तुलनात्मक रूप से कुछ तो नैतिकता बाकी है, बजाए अन्य इदारों के। इसी बहस में आगे कांग्रेस सांसद और वरिष्ठ राजनेता रेणुका चौधरी का सनसनीखेज बयान आया कि कास्टिंग काउच से संसद भी अछूती नहीं है। अर्थात राजनीति में आगे बढ़ने और जनप्रतिनिधि बनने के लिए भी महिलाओं को जिस्म का सौदा प्रभावशाली लोगों के साथ करना पड़ता है।
‘कास्टिंग काउच’ अंग्रेजी शब्द है। यह शब्द भी फिल्म इंडस्ट्री से ही आया है। इसके मूल में फिल्मों के कास्टिंग डायरेक्टरों (किरदार के लिए कलाकारों का चयन करने वाले निदेशक) का रवैया है। ये कास्टिंग डायरेक्टर गर्जमंद कलाकारों और खासकर महिलाओं को काम दिलाने के बदले उनके शरीर सुख की डिमांड करते हैं। यह बुराई दुनिया की लगभग सभी फिल्म इंडस्ट्रियों में है। हॉलीवुड से लेकर बॉलीवुड तक।
चूंकि फिल्म का धंधा ग्लैमर, चकाचौंध और पैसे का है, इसलिए ज्यादातर लड़कियां काम के बदले अपने बॉस के साथ हम बिस्तर होने के लिए मजबूरी में या स्वेच्छा से राजी हो जाती हैं। हालांकि इसे पोर्न फिल्म इंडस्ट्री से जोड़कर देखना गलत होगा। वहां जो होता है, वह सब कैमरे के सामने ही होता है।
वैसे कास्टिंग काउच शब्द सबसे पहले अमेरिका में 1910 में वजूद में आया, जब वहां फिल्म निर्माण के लिए स्टूडियो कल्चर पनपने लगा। इस नए मनोरंजन उद्योग की तरफ कई महिलाएं आकर्षित हुईं और यह चर्चा भी होने लगी कि ऐसी महत्वाकांक्षी महिलाओं को काम देने के बदले उनका यौन शोषण किया जा रहा है। एक अमेरिकी अभिनेत्री मौरिन ओ हारा ने इसकी पुष्टि 1945 में अपना अनुभव शेयर कर के की। उसने कहा कि मैंने कभी भी अपने प्रोड्यूसर और डायरेक्टर को सुबह मेरा चुंबन लेने की इजाजत नहीं दी।
हॉलीवुड के ही एक निर्माता क्रिस हेनले ने तो साफ कहा कि तकरीबन हर बड़ी अभिनेत्री कास्टिंग काउच का शिकार हुई है। ये सभी अभिनेत्रियां महत्वाकांक्षी रही हैं। हमारी फिल्म इंडस्ट्री की स्थिति भी कमोबेश वैसी ही है। सोशल मीडिया में इन दिनों चल रहे ‘मी टू’ अभियान में कई महिलाओं ने अपने इन अनुभवों को शेयर किया है। खास बात यह है कास्टिंग काउच का शिकार न केवल महिलाए बल्कि पुरुष भी होते रहे हैं।
यहां सवाल उठता है कि लोग ऐसे क्षेत्रों में क्यों जाना चाहते हैं, जहां कास्टिंग काउच आम बात है? दूसरे कास्टिंग काउच होता क्यों है? तीसरे, क्या इस पर रोक संभव है? पहले सवाल का जवाब तो यह है कि कास्टिंग काउच करने वाले ज्यादातर वो पुरुष बॉस होते हैं जो महिलाओं को काम या अवसर देने के लिए उनसे शरीर सुख की मांग करते हैं। दरअसल यह ‘गिव एंड टेक’ का निकृष्ट नमूना है, जहां नैतिकता को ताक पर रखकर महिलाओं को (कभी-कभी पुरुषों को भी) विवशताजनित समझौता करना पड़ता है।
इसके पीछे जल्दी आगे बढ़ने अथवा किसी भी तरह काम हासिल करने की मजबूरी भी हो सकती है। इसका नाजायज फायदा वो लोग उठाने में नहीं चूकते, जो कुछ ‘देने’ की स्थिति में होते हैं। आज तो कास्टिंग काउच तकरीबन हर क्षेत्र में अलग अलग रूपों में ‘मान्य’ हो चुका है। ऐसे मामले कभी कभार उजागर भी होते हैं। लेकिन उससे कास्टिंग काउचों का हौसला कम नहीं होता। क्योंकि ज्यादातर ऐसे मामले आपसी ‘अंडरस्टैंडिंग’ से ही निपटा लिए जाते हैं। जब इनका इस्तेमाल ब्लैकमेसलिंग के लिए किया जाता है, तब जरूर मामला पुलिस, अदालत और समाज के कानों तक पहुंचता है।
इसका एक अर्थ यह है कि कास्टिंग काउच समाज में अब एक ‘अनिवार्य बुराई’ बन चुका है और संस्कारों के पाखंड की सतह के नीचे एक गंदे नाले के रूप में बह रहा है। कोरियोग्राफर सरोज खान ने सांगली में जो कहा, वह इसी बात की स्वीकारोक्ति है। आज फिल्म इंडस्ट्री में उंगलियों पर गिनने लायक महिला कलाकार होंगी, जिन्हें कास्टिंग काउच की यातना से गुजरना नहीं पड़ा होगा। बल्कि कई तो इस काम में मदद भी करती हैं।
दरअसल सरोज खान बॉलीवुड में कास्टिंग काउच को केवल इस आधार पर जस्टिफाय करती हैं कि वहां इसके ‘शिकार’ को उसकी किस्मत पर नहीं छोड़ा जाता। वह रेप के बदले रोटी भी देती है। यानी इंडस्ट्री इतनी अहसान फरामोश भी नहीं है। जबकि सरोज के मुताबिक कास्टिंग काउच करने वाले तो सरकारी अफसर और कर्मचारी भी होते हैं, लेकिन वह इसे अपना अधिकार मानते हैं। उन्हें इससे कोई मतलब नहीं होता कि जिस महिला का रेप उन्होंने किया है, उसे कोई सहारा मिला भी है या नहीं।
सरोज खान की बात को ही रेणुका चौधरी भी आगे बढ़ाती हैं। रेणुका ने कहा कि राजनीति में महिलाओं के लिए तकरीबन वही हालात हैं। यहां भी उनका आगे बढ़ना इतना सहज नहीं है। कई महिलाओं को इसकी कीमत यौन अड़ीबाजी से चुकानी पड़ती है। कमोबेश यही स्थिति कला, खेल, कारपोरेट, पत्रकारिता, सुरक्षा बलों और शिक्षा के क्षेत्र में भी है।
अब प्रश्न यह है कि क्या इसे रोकना संभव है? या फिर यह एक ‘अनिवार्य समझौता’ है? इस बारे में राधिका आप्टे जैसी बेबाक अभिनेत्री का कहना है कि इसके लिए महिलाएं ज्यादा जिम्मेदार हैं अगर आप अपने उसूलों पर अडिग हैं तो कौन आपको हाथ लगा सकता है। महिलाओं को इस पर खुल कर बात कर करनी चाहिए।
सरोज खान और रेणुका चौधरी इसी कुरूप सच को सार्वजनिक कर रही हैं। लेकिन क्या इससे कास्टिंग काउच रूकेगी, उस पर काबू पाया जा सकेगा, यह कहना मुश्किल है। क्योंकि जो जीवन शैली और दर्शन हमने अपनाया हुआ है, वह मूलत: मानवीय रिश्तों को ही खारिज करता है। कास्टिंग काउच उसी का नकारात्मक परिणाम है।
(सुबह सवेरे से साभार)