लोकसभा चुनाव में प्रचंड जीत और उसके बाद नई सरकार के बहुत धूमधाम से हुए शपथग्रहण समारोह के अगले ही दिन जो खबर आई वह न सिर्फ देश की जनता बल्कि नीति नियोजकों के लिए भी चिंता का विषय होना चाहिए। 31 मई को श्रम मंत्रालय की ओर से जारी आंकड़े बताते हैं कि देश में बेरोजगारी की दर पिछले 45 सालों में सबसे ज्यादा है।
सरकार की ओर से जारी आंकड़ों के मुताबिक वित्त वर्ष 2017-18 के दौरान देश में बेरोजगारी की दर 6.1 फीसदी रही। चौंकाने वाली बात यह भी है कि महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों में बेरोजगारी की दर अधिक है। यदि पुरुषों और महिलाओं की अलग-अलग बेरोजगारी दर देखें तो पुरुषों की दर 6.2 फीसदी है, जबकि महिलाओं की 5.7 फीसदी।
श्रम मंत्रालय के इन आंकड़ों ने एक और भ्रम पर नए सिरे से सोचने को मजबूर किया है। आमतौर पर माना जाता रहा है कि गांव के लोग रोजगार की तलाश में शहरों की ओर पलायन करते हैं। लेकिन ताजा आंकड़े बता रहे हैं कि शहरों की हालत गांवों से भी खराब है। शहरों की बेरोजगारी दर गांवों की तुलना में ढाई फीसदी ज्यादा है। गांवों में यदि 5.3 फीसदी युवा बेरोजगार हैं तो शहरों में 7.8 फीसदी।
लेकिन इसका अर्थ यह नहीं माना जाना चाहिए कि युवाओं को गांवों में रोजगार मिल रहा है। वास्तव में ये आंकड़े स्थिति को और जटिल बनाते हैं। हो यह रहा है कि गांवों में रोजगार की संभावनाएं कम होने के कारण युवा शहरों की ओर पलायन जरूर कर रहे हैं लेकिन शहरों में भी उन्हें रोजगार नहीं मिल रहा। यही वजह है कि रोजगार चाहने वालों के गांवों से पलायन कर जाने के कारण वहां बेरोजगारी की दर कम दिख रही है और शहरों में रोजगार चाहने वालों की संख्या बढ़ जाने के कारण अधिक।
इसका असर युवाओं के भविष्य पर तो पड़ ही रहा है, शहरों के नियोजन और वहां की व्यवस्थाओं पर दबाव बढ़ने से वहां भी स्थितियां खराब हो रही हैं। इनमें कानून व्यवस्था से लेकर गैरकानूनी बसाहट जैसी तमाम बातें शामिल हैं। एक और बात है जिस पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि गांव से रोजगार की तलाश में शहर आ जाने वाला युवा खुद को एक ऐसी प्रतिस्पर्धा में डाल रहा है जिसकी उसने बुनियादी तैयारी की ही नहीं है।
स्थिति यह है कि एक ओर शहर में रहने वाला, वहीं पला-बढ़ा और पढ़ा-लिखा युवा रोजगार की लाइन में खड़ा है और उसी लाइन में आकर गांव का युवा भी लग गया है। ऐसे में जाहिर है यदि प्रतिस्पर्धात्मक तौर पर अवसर बनेंगे भी तो उनका अधिकांश हिस्सा शहरी युवाओं के खाते में ही जाएगा और पहले से ही बेरोजगारी के शिकार ग्रामीण युवाओं में निराशा की भावना ज्यादा घर करेगी। इसके सामाजिक और आर्थिक दोनों ही परिणाम घातक होंगे।
इस मामले का दूसरा पहलू राजनीतिक है। दरअसल लोकसभा चुनाव के दौरान विपक्ष ने 45 सालों में सर्वाधिक बेरोजगारी दर को मुद्दा बना सरकार पर लगातार हमले किए थे। बेरोजगारी के आंकड़ों वाली यह रिपोर्ट तब तक अंतिम रूप से जारी नहीं हुई थी, लेकिन इसके कुछ हिस्से फरवरी में ही लीक हो गए थे। उन्हीं को आधार बनाकर विपक्ष ने सरकार पर हमला किया था और सरकार ने विपक्ष की बात को हवा-हवाई करार दिया था।
ध्यान दीजिए, पिछले दो सालों से ये खबरें लगातार सुर्खियों में हैं कि सरकार के नोटबंदी और जीएसटी जैसे कदमों से उद्योग और व्यापार पर विपरीत असर पड़ा है और इनके कारण बड़ी संख्या में लोगों को रोजगार गंवाना पड़ा है। फरवरी में बेरोजगारी पर नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (एनएसएसओ) की रिपोर्ट के लीक हुए हिस्सों को लेकर विवाद बढ़ने पर सरकार ने सफाई दी थी कि रिपोर्ट अंतिम नहीं है, सर्वे अभी पूरा नहीं हुआ है।
उस समय पीरियाडिक लेबर फोर्स सर्वे (पीएलएफएस) के हवाले से बताया गया था कि देश में बेरोजगारी की दर 1972-73 के बाद सबसे ऊंची है। 2011-12 में यह दर 2.2 प्रतिशत थी। इन्हीं आंकड़ों का जिक्र करते हुए कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने, सरकार के प्रतिवर्ष दो करोड़ लोगों को रोजगार देने के वायदे पर भी सवाल उठाए थे। एसोसिएशन फॉर डोमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) के 2018 की अंतिम तिमाही में किए गए सर्वे में भी यह बात सामने आई थी कि लोगों के बीच बेरोजगारी एक प्रमुख मुद्दा है।
लेकिन सरकार ने हर बार ऐसी किसी भी रिपोर्ट को और विपक्ष के बयानों को नकारा था। चुनाव के दौरान ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक इंटरव्यू में कहा था कि बेरोजगारी की बात कहने वालों के पास आंकड़े नहीं हैं, वह बहाने ढूंढ रहे हैं। उनसे पूछा गया था कि लोग बेरोजगारी की बात करते हैं और आप राष्ट्रवाद को आगे कर रहे हैं। तो प्रधानमंत्री का जवाब था- ‘’हर रिपोर्ट में सामने आया है कि रोजगार बढ़ा है, हर जगह विकास हो रहा है तो रोजगार बढ़ना स्वाभाविक है।‘’
बेरोजगारी के मुद्दे को लेकर प्रधानमंत्री का एक और बयान बहुत चर्चित हुआ था कि किसी दफ्तर के नीचे यदि कोई आदमी पकौड़े तलकर आजीविका पा रहा है तो यह भी तो रोजगार ही है। लोकसभा चुनाव के दौरान दिए गए एक इंटरव्यू में उन्होंने दोहराया था कि ‘’सीआईआई और नैसकॉम की रिपोर्ट भी कहती है कि रोजगार पहले से कई गुना बढ़ा है। ईपीएफओ में हर वर्ष करीब सवा करोड़ लोग जुड़े हैं। मुद्रा योजना से लगभग साढ़े चार करोड़ लोगों ने पहली बार लोन लिया है और वो लोग भी तो और लोगों को रोजगार देते होंगे।‘’
लेकिन अब खुद श्रम मंत्रालय की रिपोर्ट ने ही सरकार को कठघरे में खड़ा कर दिया है। हालांकि सरकारी प्रवक्ता ने सफाई देते हुए कहा है कि सैंपलिंग प्रक्रिया में बदलाव के कारण ऐसे आंकड़े दिख रहे हैं और इनकी तुलना पुराने आंकड़ों से नहीं की जानी चाहिए। पर सरकार ऐसी खोखली सफाई देकर सचाई से मुंह नहीं मोड़ सकती।
कुल मिलाकर यह सरकार की साख का सवाल है। चुनावी या राजनीतिक फायदों के लिए सामाजिक और आर्थिक मसलों की सचाइयों को दबाना या उनकी रिपोर्ट्स को जारी करने में देरी करना बहुत खतरनाक ट्रेंड है। इससे ऐसा लगता है कि आप देश को अंधेरे में रखकर सत्ता चलाना चाहते हैं। और यदि ऐसा नहीं है तो बेहतर होगा या तो सरकार बेरोजगारी के मसले पर देश के सामने श्वेत पत्र लेकर आए या फिर संसद के आगामी सत्र में इस पर विशेष चर्चा कराए ताकि असलियत सामने आ सके।