कर्नाटक में राजनीतिक नाटक खत्म होने के 24 घंटे बीतने से पहले ही कांग्रेस ने एक तरह से पलटवार करते हुए मध्यप्रदेश में भारतीय जनता पार्टी को तगड़ा झटका दिया है। 24 जुलाई को मध्यप्रदेश विधानसभा का बजट सत्र अनिश्चितकाल के लिए स्थगित होने से पहले सदन में जो हुआ, उसने आने वाले दिनों में राज्य में भारी राजनीतिक उठापटक की नींव रख दी है।
दरअसल 15 साल के भाजपा राज के बाद जब से मध्यप्रदेश में कमलनाथ के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बनी है, तब से इस सरकार के बारे में कहा जा रहा है कि वह चंद दिनों की मेहमान है। सरकार की सांसें गिनती की हैं, यह बात प्रदेश भाजपा के तमाम बड़े नेता, जिनमें नेता प्रतिपक्ष गोपाल भार्गव और पूर्व मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान के अलावा केंद्रीय मंत्री नरेंद्र तोमर और पार्टी के राष्ट्रीय महामंत्री कैलाश विजयवर्गीय भी शामिल हैं, खुलेआम सार्वजनिक रूप से कह चुके हैं।
कर्नाटक में कांग्रेस के सहयोग से चलने वाली कुमारस्वामी सरकार के गिरने के पूरे घटनाक्रम के दौरान भाजपा को मिली रणनीतिक जीत (?) के बाद यह बात और जोर से कही जा रही थी कि अब अगला नंबर मध्यप्रदेश और राजस्थान का है। इन दोनों सरकारों को भाजपा बकरे की मां मानकर चल रही थी जिसके पास सिवाय खैर मनाने के और कोई चारा न हो।
लेकिन 24 जुलाई को मध्यप्रदेश विधानसभा में कमलनाथ सरकार ने अपनी व्यूहरचना से न सिर्फ भाजपा की कर्नाटक जीत के जश्न को फीका किया, बल्कि उसे इतना तगड़ा झटका दिया कि भाजपा को लेने के देने पड़ गए। जो भाजपा कांग्रेस के विधायकों को तोड़कर, कमलनाथ सरकार को गिराने चली थी, खुद उसी भाजपा के दो विधायक कांग्रेस ने तोड़कर सदन में बहुमत से कहीं अधिक का संख्याबल साबित कर दिया।
यह पूरा घटनाक्रम राजनीतिक चुनौतियों और प्रति चुनौतियों से भरा रहा। नेता प्रतिपक्ष गोपाल भार्गव ने सुबह कहा कि उनकी पार्टी के नंबर एक और नंबर दो नेता यदि कह दें तो कमलनाथ सरकार 24 घंटे में गिरा दी जाएगी। इस पर सत्ता पक्ष ने भाजपा को चुनौती देते हुए जवाब दिया था कि आप तो आज, अभी अविश्वास प्रस्ताव ले आइए हम उसका सामना करने को तैयार हैं।
वास्तव में कांग्रेस ने अविश्वास प्रस्ताव का सामना करने की चुनौती यूं ही नहीं दे दी थी। वह भाजपा की लगातार आ रही धमकियों से निपटने के लिए कई दिनों से बाकायदा इसकी तैयारी कर रही थी। पहले उसका इरादा 21 जुलाई को सदन में बजट पारित करवाने के दौरान इस तरह का शक्ति प्रदर्शन करने का था, लेकिन भाजपा अपनी कमजोरी को भांपते हुए उससे पीछे हट गई। सरकार को बजट पर मतदान करवाने की चुनौती देने के बजाय, अप्रत्याशित रूप से उसने ऐन वक्त पर दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को श्रद्धांजलि देने के प्रस्ताव को मुद्दा बनाते हुए सदन से बहिर्गमन कर दिया।
उसके बाद से ही दोनों पक्ष, खासतौर से कांग्रेस अपने लिए मौका ढूंढ रही थी। 24 जुलाई को हालांकि सत्र का अंतिम दिन नहीं था। यह सत्र पूर्व घोषित कार्यक्रम के अनुसार 26 जुलाई तक चलना था। लेकिन कमलनाथ सरकार ने अंदर ही अंदर दूसरी ही तैयारी कर रखी थी। उसने ठान रखा था कि किसी न किसी बहाने इसी सत्र में शक्ति परीक्षण का एक अवसर तो निर्मित करना ही है। संयोग से गोपाल भार्गव ने 24 घंटे में सरकार गिराने की बात कह कर कांग्रेस को ऐसा अवसर निर्मित करने का मौका दे दिया।
सदन में जब सरकारी विधेयक पारित किए जा रहे थे, तो विधि मंत्री पीसी शर्मा ने सबसे अंत में दंड विधि (मध्यप्रदेश) संशोधन विधेयक 2019 पारित होने के लिए प्रस्तुत किया। सदन ने ध्वनिमत से इसे मंजूरी दे दी। लेकिन इसी बीच सरकार को समर्थन दे रही बहुजन समाज पार्टी के विधायक संजीव सिंह संजू ने इस पर मतदान कराने की मांग कर डाली। विपक्ष यानी भाजपा की ओर से कहा गया कि सदन बिल से सहमत है और मतदान की कोई जरूरत नहीं है, लेकिन अध्यक्ष ने मतदान करा लिया।
और जब इस मतदान के परिणाम आए तो भाजपा मुंह दिखाने लायक नहीं रही। जो पार्टी 24 घंटे में सरकार गिराने के दावे कर रही थी वह खुद ऐसे औंधे मुंह गिरी कि अपना ही चेहरा फोड़ लिया। इस पूरे प्रसंग में भाजपा का राजनीतिक अधकचरापन तो नजर आया ही, तमाम दिग्गजों की सदन में मौजूदगी के बावजूद फ्लोर मैनेजमेंट में भी पार्टी पूरी तरह फेल रही।
मैं यह बात समझने में असमर्थ हूं कि जब प्रतिपक्ष के नेता गोपाल भार्गव सहित भाजपा के तमाम वरिष्ठ लोग सदन में यह कह रहे थे कि वे विधेयक के समर्थन में हैं तो उन्होंने डिविजन मांगे जाने के दौरान सदन में मौजूद रहते हुए भी उसके पक्ष में वोट क्यों नहीं किया? यदि वे अपनी बात के अनुरूप विधेयक के पक्ष में मतदान कर देते तो हो सकता है कि विरोध में सिर्फ बसपा के संजीवसिंह संजू का ही एक वोट पड़ता और सत्ता पक्ष को यह बता सकने का मौका ही नहीं मिलता कि भाजपा के दो विधायक उसके समर्थन में आ गए हैं। एक को छोड़कर सभी समर्थन में रहते तो भाजपा की बंदी मुट्ठी भी नहीं खुलती। मतदान में भाग न लेकर भाजपा ने अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारी।
नतीजा क्या हुआ? नतीजा यह हुआ कि मतदान के बाद कांग्रेस ने छाती चौड़ी करके कहा कि भाजपा के दो विधायकों मैहर के नारायण त्रिपाठी और ब्योहारी के शरद कोल ने हमारा साथ दिया है। गणित के हिसाब से कांग्रेस पक्ष को 120 मत ही मिलने थे क्योंकि अध्यक्ष आमतौर पर मतदान में भाग नहीं लेते। लेकिन उसे मिले 122 मत और इस तरह कांग्रेस के पास अब सदन में अपने समर्थकों का आंकड़ा 121 से बढ़कर 123 (अध्यक्ष सहित) हो गया है।
विधानसभा के इस घटनाक्रम ने आने वाले दिनों में मध्यप्रदेश की राजनीति की बदलती तसवीर का खाका खींच दिया है। अब तक तो भाजपा बढ़चढ़कर कमलनाथ सरकार गिराने की बात कर रही थी, लेकिन कमलनाथ ने पहले वार कर, एक तरह से सियासी लड़ाई का शंखनाद कर दिया है। चर्चा है कि भाजपा के 8 विधायक कांग्रेस के संपर्क में हैं (जिनमें से दो तो 24 जुलाई को सामने भी आ गए) वहीं कांग्रेस के 6 विधायक भाजपा के संपर्क में हैं।
चूंकि कांग्रेस पक्ष ने भाजपा में पहले सेंध लगा दी है तो अब भाजपा को भी खुली छूट मिल गई है। देखना होगा कि उसकी तरफ से अगला वार क्या होता है। दो बातें और हैं- पहली यह कि भाजपा का अगला वार आलाकमान जल्दी ही तय करेगा और दूसरी यह कि 24 जुलाई को विधानसभा में हुआ घटनाक्रम खुद प्रदेश भाजपा के कई दिग्गज नेताओं पर भारी पड़ने वाला है।